धारावाहिक विशेष लेखमाला(10) - युग मनीषी-महाप्राज्ञ परम पूज्य गुरुदेव

January 1994

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समूची इंसानियत आज सवालों की काल-कोठरी में कैद है। बात पारिवारिक-सामाजिक क्षेत्र का हो या आर्थिक-राजनीतिक दायरों की। हर कहीं जलते सवालों की चिनगारियाँ फैल-बिखर रहीं हैं। अलगाव-आतंक, अव्यवस्था पर्यावरण असंतुलन, टूटते बिखरते परिवार न जाने कितने नाम रूप है इन सवालों के। हर रोज उपजा नया सवाल पुराने अनुत्तरित सवालों की संख्या बढ़ा देता है। समाधान की तलाश करता विज्ञान थक-हार चुका है। दर्शन भूल-भटक कर बुद्धि की भूल-भुलैया में जा फँसा है। धर्म मूढ़ताओं की विडंबना से ग्रसित है। चित्र-विचित्र मान्यताओं, कुरीतियों, कुप्रथाओं की मेघ मालाओं ने इस सूर्य को आच्छादित कर लिया है। इन व्यवस्थापूर्ण क्षणों में तलाश उस मनीषी की है, जो धर्म का आच्छादन तोड़े दर्शन को जीवन की राह के रूप में संवारे और विज्ञान का मार्गदर्शन करे। जिसका चिंतन प्रश्नों के चक्रव्यूह में उलझी मानवता के लिए मुक्तिकारक समाधान सिद्ध हो।

परम पूज्य गुरुदेव का जीवन ऐसे ही प्रज्ञा-पुरुष का जीवन था जिसमें ऋषित्व एवं मनीषा एकाकार हुई थी। अपने चिंतन में ज्ञान की प्रत्येक शाखा को गरिमा को पूर्ण स्थान देने वाले पूज्यवर वेदों की ऋचाओं, उपनिषदों की श्रुतियों के द्रष्ट की भाँति क्राँतदर्शी ऋषि थे, साथ ही शंकर, रामानुज मध्य की परंपरा में भाष्यकार भी। अपनी गहन साधना के बल पर सत्य की गंगोत्री उनका आवास बनी थी। उन्होंने सवालों, समस्याओं, उलझनों के शिकंजे में विकल बेबस मानव जीवन के दर्द को पहचाना और अपना समूचा जीवन इस व्यथा के निवारण के लिए उत्सर्ग कर दिया। उन्हीं के शब्दों में कहें तो हमारा यह जीवन भगवान की उस इच्छा के लिए समर्पित है, जिसके अनुसार वे प्रश्नचिह्नों के चक्रव्यूह में फँसी अपनी प्रिय मानवता का उद्धार करना चाहते हैं। हमारा अब तक का क्रिया-कलाप इसी धुरी के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। जितने दिन और जीना पड़ेगा। उसकी एक-एक घड़ी और शरीर की एक-एक साँस इसी के लिए लगानी है।

उसके अनुसार समस्याओं के नाम-रूप कैसे ही और कितने भी क्यों न हों, पर इसके मूल में एक ही तत्व है-मानव का अशुभ चिंतन। इस संघातिक व्याधि का ब्योरा प्रस्तुत करते हुए उनका कथन है-”समस्त विकृतियों, कुँठाओं, शोक, संताप, द्वंद्व, संघर्षों, अभाव-अपराधों, रोग, क्षोभों का एक मात्र कारण हमारे चिंतन क्रम का कलुषित हो जाना है। दुष्ट चिंतन समस्त विग्रहों का मूल है। सारी विपत्तियाँ दुर्बुद्धि ही उत्पन्न करती है। अवांछनीय विचारणा है जो नरक की परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है। समस्त सुविधाएँ होने पर भी यदि विचार पद्धति सही नहीं तो व्यक्ति केवल दुःख पाता रहेगा और संबंधित लोगों को दुःख देता रहेगा। हमारी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय विपन्नताओं का कारण कुछ और नहीं केवल लोकमानस की अशुद्ध दिशा ही है। यदि भूल के कारणों को न सुधारा गया तो सुधारों के समस्त प्रयत्न सूखते जाने वाले पेड़ के पत्ते सींचने जैसी विडंबना सिद्ध होंगे।”

विज्ञान इस तथ्य से अपरिचित है। दर्शन को दायित्व बोध नहीं हो सका। साहित्यकारों में अधिकाँश अपनी बाल क्रीड़ा में व्यस्त रहे है। शास्त्र-पुराण-स्मृतियों आदि में जो कुछ है, वह प्रायः पुराना पड़ चुका है। वर्तमान परिस्थितियों से उसका कोई ताल-मेल नहीं। स्थिति का विश्लेषण करते हुए पूज्यवर के शब्द हैं, “कभी व्यक्ति की निर्वाह परिधि छोटी थी, समाज की समस्याएं नगण्य थीं। चिंतन और दर्शन का विस्तार एक सीमित क्षेत्र में ही हुआ था। भौगोलिक कठिनाइयों ने हर क्षेत्र को अपनी परिधि में सीमाबद्ध कर रखा था। तब धर्म का स्वरूप भी छोटा ही था। तत्वदर्शन प्रायः ईश्वर जीव, प्रकृति के निरूपण तक ही अपनी दौड़ लगाता था। उतने से ही भली प्रकार काम चल जाता था। पर अब वैसा नहीं रहा। परिस्थितियाँ आमूल चूल बदल चुकी हैं। नये प्रश्न नये समाधान चाहते हैं। जिन्हें तलाश ने की जिम्मेदारी मनीषियों की है। इसे युग मनीषा के अतिरिक्त और कोई सम्पन्न नहीं कर सकता। यह न शासन के हाथ की बात है और न समृद्धि के माध्यम से इसे जुटाया जा सकता है। इन दोनों का समर्थन, प्रोत्साहन, सहयोग मिलता रहे तो बहुत है। उत्तरदायित्व तो मनीषा का है उसे ही वहन करना पड़ेगा। “

पर मनीषी कौन? मनीषा कहाँ? लेखकों, साहित्यकारों बुद्धिजीवियों की इतनी बड़ी भीड़ के रहते इसका अकाल क्यों पड़ गया। संसार में प्रति वर्ष लाखों की संख्या में पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। न जाने कितनी संख्या में मनुष्य अध्ययन-अन्वेषण में व्यस्त हैं। पर समाधान क्यों नहीं मिल रहे? इसका उत्तर देते हुए युग मनीषी का कहना है-”बुद्धि व्यवसायियों की बिरादरी एक है, युग मनीषियों की दूसरी। बुद्धिवाद मानसिक विलक्षणता है, वह नट गायक की तरह अपनी कला का चमत्कार दिखाता और चकाचौंध भरा आकर्षण उत्पन्न करता है। बुद्धिवादी अपनी प्रखरता और चतुरता के बलबूते शब्द जाल के घटाटोप खड़े करने में देखते-देखते सफल हो सकते हैं। संपन्नों का गला पकड़ कर इच्छित धन राशि एकत्रित कर सकते हैं और उसके सहारे आदर्शवादी ढकोसले भी कागजी रावण की तरह खड़े कर सकते हैं। यह चित्र विचित्र तमाशे रोज ही देखने को मिलते हैं, पर उनके बलबूते वैसा कुछ बन पड़ने की आशा बँधती, जिसमें उज्ज्वल भविष्य के स्वप्न साकार होते हैं जबकि मनीषा न केवल आदर्शवादी प्रतिपादन करती है, न केवल आदर्शवादी प्रतिपादन करती है, न केवल लोकशिक्षण में निरत होती है, बल्कि उसका निजी जीवन भी ऋषि-कल्प होता है। आस्थाओं को उछालने की सामर्थ्य इन्हीं व्यक्तित्वों में उत्पन्न होती है।”

लोक व्यवहार में मनीषी शब्द का अर्थ उस महाप्राज्ञ से लिया जाता है जिसका मन उसके वश में हो। जो मन से नहीं संचालित होता अपितु अपने विचारों द्वारा मन को चलाता है। उसे मनीषी और ऐसी प्रज्ञा को मनीषा कहा जाता है। शास्त्रकार का कथन है -”मनीषा अस्तियेषाँ ते मनीषि नः।” लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है “मनीषि नस्तु भवन्ति पावनानि नः भवन्ति” अर्थात् मनीषी तो कई होते हैं, बड़े-बड़े बुद्धि वाले होते हैं, परंतु वे पावन हों, पवित्र हों यह अनिवार्य नहीं है। प्रतिभाशाली-बुद्धिमान होना अलग बात है एवं पवित्र शुद्ध अंतःकरण रखते हुए बुद्धिमान होना दूसरी। यह कथन आज की परिस्थितियों में निताँत सही है। आज संपादक, बुद्धिजीवी, लेखक, अन्वेषक, प्रतिभाशाली वैज्ञानिक तो अनेकानेक है, देश-देशाँतरों में फैले पड़े है क्योंकि तपशक्ति द्वारा अंतः शोधन द्वारा उन्होंने पवित्रता नहीं अर्जित की।

साहित्य की आज कमी नहीं है। जितनी पत्र-पत्रिकाएँ आज प्रकाशित होती हैं, जितना साहित्य नित्य विश्वभर में छपता है उस पहाड़ के समान सामग्री को देखते हुए लगता है, वास्तव में लिखने वाले बढ़े हैं, पढ़ने वाले भी बढ़े है। लेकिन इन सबका प्रभाव क्यों नहीं पड़ता? क्यों एक लेखक की कलम कुत्सा भड़काने में ही निरत रहती है एवं क्यों उस साहित्य को पढ़कर तुष्टि पाने वालों की संख्या बढ़ती जाती है। इसके कारण ढूंढ़े जायँ तो वहीं आना होगा, जहाँ कहा गया था “पावनानि न भवन्ति।” यदि लिखने वाले ऋषि कल्प जीवन जीते होते उनका चिंतन तप से उपजा होता तो ये विकृतियाँ नजर न आतीं जो आज समाज में विद्यमान है।

पूज्य गुरुदेव की मनीषा उनके ऋषित्व से उपजी थी। उनका चिंतन उनकी दीर्घकालीन गहन साधना का परिणाम था। चिंतन और साधना आपस में इस कदर घुल-मिल गये थे कि एक के बिना दूसरे के बारे में सोच पाना भी मुश्किल है। उनके ही शब्दों में स्पष्ट किया गया तथ्य है-”लेखन हमारे लिए कभी व्यवसाय नहीं रहा। इसे मैंने अपनी उपासना की तरह अपनाया है। तप ने मेरे चिंतन में प्राण भरे हैं।” एक अन्य स्थान पर उनके शब्द हैं, अपनी रचनाओं में मैंने अपना प्राण सँजोया है। उनमें कितनी आभा है, कितनी रोशनी है, कितनी मौलिकता है, और कितनी शक्ति है यह कहने की नहीं अनुभव करने की बात है। जिसने इन्हें पढ़ा तड़पकर रह गये। रोते हुए आँसुओं की स्याही से जलते हृदय से इन्हें लिखा है सो इनका प्रभाव होना चाहिए हो रहा है, और होकर रहेगा।”

मनीषा पवित्रता है और तपस्या प्रखरता। दोनों का सुयोग तेल-बाती के समन्वय की तरह कृत-कृत्य करता है। मुनि को ऋषि बनना पड़ता है। मुनि अर्थात् मनीषी। ऋषि अर्थात् वह मनीषी जो तप साधना से अपना आत्मबल बढ़ाए और उपलब्धियों को अभावग्रस्तों की प्यास बुझाने के लिए उन्हें सुलभ कराए। आत्मबल के अभाव में साहस नहीं उभरता। साहस के बिना परमार्थ कैसा? परमार्थ में प्रयुक्त न होने पर ज्ञान वैभव-वर्चस्व आदि की सार्थकता कहाँ? अस्तु जिस अंतःप्रेरणा से मनीषा उभरती है, उसी का दूसरा अनुदान तपस्वी, जीवनचर्या के रूप में भी मिलता है। मनीषा यदि सच्ची और गहरी हो तो उसका दबाव व्यक्ति को तपस्वी बनने तक धकेलता कचोटता ही रहेगा।

मनीषा की यह सर्वांगीणता उनके अपने जीवन में पूरी तरह साकार हुई। जिसके प्रभाव और परिणाम-स्वयं के मनीषी होने तक सीमित न रहकर मनीषा के दिशा-दर्शक होने तक सक्रिय हुए। समर्थ और आत्मबल मात्र तीन अँगुलियों में दबी कलम तक सीमित नहीं रहा। इसके द्वारा वह उर्वर मनोभूमि में मनीषा के अंकुरण अभिवर्धन के लिए सक्रिय हुए। उलटी बुद्धि को उलट कर सीधा करने का लोकोत्तर दायित्व हाथ में लिया। इसे तनिक उन्हीं के शब्दों में सुने-”मनीषियों को यह मानने के लिए हम विवश करेंगे कि दुनिया के वर्तमान गठन को अनुपयुक्त घोषित करें और हर किसी को बताएँ कि चिर पुरातन ने दम तोड़ दिया और उसके स्थान पर नित नवीन को अब परिस्थितियों के अनुरूप नूतन कलेवर धारण करना पड़ रहा है। एक दुनिया एक राष्ट्र की मान्यता अब सिद्धाँत क्षेत्र तक सीमित न रहेगी उसके अनुरूप ताना-बाना बुना जायेगा और वह बनेगा जिसमें विश्व की एकता-विश्व मानव की एकता का व्यवहार दर्शन न केवल समझा वरन् अपनाया भी जा सके। इसके लिए विश्व चिंतन में हम ऐसा उलट फेर करेंगे जिसे उलटे को उलट कर सीधा करना कहा जा सकें।”

“इस उलट-फेर का दायरा किसी के एक क्षेत्र किसी एक देश तक सीमित न होकर मानवी बुद्धि के व्यापक क्षेत्र में संव्याप्त है। जहाँ कहीं भी सोचने का सामर्थ्य है उसे दिशा देना अपना दायित्व माना गया है। यों समीक्षाएँ भर्त्सनाएँ आये दिन होती रहती है। उन्हें इस कान से उस कान निकाल दिया जाता है। होना तो कुछ ऐसा ही होना चाहिए जिससे काम बने। युग मनीषी पूज्य गुरुदेव के द्वारा वही संपन्न हो रहा है। उनके ही शब्द हैं-वैज्ञानिक और दार्शनिक हमारी एक मुहीम हैं। वैज्ञानिकों को भड़कायेंगे कि युद्ध के घातक शस्त्र बनाने में उनकी बुद्धि सहयोग देना बंद कर दे। गाड़ी अधर में लटक जाय। उच्चस्तरीय वैज्ञानिक की प्रतिभा और सूझ-बूझ उन्हें वैसा न करने देगी जैसा कि अपेक्षा की जा रही है। अब उनका मस्तिष्क ऐसे छोटे उपकरण बनाने की ओर लौटेगा जिससे कुटीर उद्योगों की सहायता देने वाला नया माहौल उफन पड़े।”

“लेखकों और दार्शनिक का अब एक नया वर्ग उठेगा। वह अपनी प्रतिभा के बलबूते एकाकी सोचने और एकाकी लिखने का प्रयत्न करेगा। उन्हें उद्देश्य में सहायता मिलेगी। मस्तिष्क के कपाट खुलते जायेंगे और उन्हें सूझ पड़ेगा कि इन दिनों क्या लिखने योग्य है और मात्र वही लिखा जाना है। दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों ही मुड़ेंगे। इन दोनों खदानों में से ऐसे नर रत्न निकलेंगे जो उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने में आश्चर्यजनक योगदान दे सकें। ऐसी परिस्थितियाँ विनिर्मित करने में हमारा योगदान होगा, भले ही परोक्ष होने के कारण लोग उसे अभी देख या समझ न सके।”

एक अन्य स्थान पर उनकी स्पष्टोक्ति है-”हमने व्यक्तियों में पवित्रता और प्रखरता का समावेश करने के लिए मनीषा को ही अपना माध्यम बनाया एवं उज्ज्वल भविष्य का साक्षात्कार किया। स्वयं में युग मनीषी की भूमिका निभाते हुए उन अनुसंधानों की पृष्ठभूमि बनाने का हमारा मन है वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का प्रत्यक्ष रूप इस तर्क तथ्य, प्रमाणों को आधार मानने वाले समुदाय के समक्ष रख सकें। आत्मानुसंधान के लिए अन्वेषण कार्य किस प्रकार चलना चाहिए साधना-उपासना का वैज्ञानिक आधार क्या है? मनःशक्तियों के विकास में साधना उपचार किस प्रकार सहायक सिद्ध होते हैं? ऋषिकालीन आयुर्विज्ञान का पुनर्जीवन शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को कैसे अक्षुण्ण बनाया जा सकता है? गायत्री की शब्द शक्ति एवं यज्ञाग्नि की ऊर्जा कैसे व्यक्तित्व को सामर्थ्यवान एवं पवित्र तथा काया को जीवनी शक्ति संपन्न बनाकर प्रतिकूलताओं से जूझने में समर्थ बना सकती है। ऐसे अनेकानेक पक्षों की शोध हमने अथर्ववेदीय ऋषि परंपरा के अंतर्गत है सम्पन्न की है। जो आगामी समय में आत्मिकी के अनुसंधान में निरत होने वाले वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाश में आयेगी। परोक्ष रूप से हम उन्हें सतत् पोषण देते रहेंगे। सारी मानव जाति को अपनी मनीषा द्वारा एवं शोध अनुसंधान के माध्यम से लाभान्वित करने का हमारा संकल्प किस आश्चर्य रीति से सफल होगा, इसे आने वाला समय बतायेगा। “

युग मनीषी के रूप में अपनी भूमिका संपन्न करने वाले परम पूज्य गुरुदेव अब मनीषियों के निर्माण में संलग्न है। हो भी क्यों न? युग संधि की बेला में सबसे बड़ी जिम्मेदारी मनीषा की है। उसे अँधेरी निशा में समुद्र के बीच प्रकाश स्तम्भ की तरह एकाकी जलना होता है। उसे समर्थन किसका? सहायता किसकी? चारों ओर उफनते लहरों के कोलाहल और टकराव से अस्तित्व को चुनौती ही मिलती रहती है। फिर भी प्रकाश स्तम्भ न केवल अपनी सत्ता बचाये रहता है साथ ही उस क्षेत्र से गुजरने वाले जलयानों की इतनी सेवा भी करता रहता है कि उन्हें इस प्रदेश की चट्टानों से टकरा कर उलट जाने की विपत्ति में न पड़ने दे। बेशक हीरक हार बाँटते रहने की स्थिति न होने के कारण उन्हें दानवीर होने का श्रेय तो नहीं मिलता फिर भी जानकार जानते हैं कि प्रहरी की जागरुकता, सुरक्षा कर जो प्रावधान करती है, उसका कितना मूल्य महत्व होता है। आलोक बुझ जाने पर जलयानों के उलट जाने की दुर्घटना देखकर ही कोई यह जान सकता है कि प्रकाश स्तम्भ की मूक सेवा कितनी उपयोगी, कितनी आवश्यक होती है।

प्रश्न श्रेय का नहीं वह किसी को भी मिल सकता है, किसी का भी हो सकता है। पर उन चिनगारियों को भुलाया नहीं जा सकता है जो चमकी-भड़की और लपेट में वन प्रदेशों को ईंधन बनाकर दावानल की तरह गगनचुँबी बनती चली गई। सुकरात, अफलातून, अरस्तू जैसे मनीषियों के परोक्ष अनुदानों के गुणगान मुकुट धारियों जैसे ढोल, तासे बजाकर नहीं होते फिर भी तथ्य बताते हैं कि उनकी भूमिकाएँ शत-सहस्र शासकों से बढ़कर रही है। प्रज्ञा परिजनों में से जिनके अंतराल में दूरदर्शी विवेकशीलता का आलोक दीप्तिमान हो उनको समय की चुनौती स्वीकार करना चाहिए और संव्याप्त अंधकार में अपना साहस दीपक की तरह प्रज्वलित करना चाहिए।


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