रोजमर्रा के जीवन में हम देखते हैं कि तनिक सी प्रतिकूलता सामने आते ही हम लड़खड़ा जाते हैं । होशोहवास खो बैठते हैं तथा किंकर्तव्य विमूढ होकर कभी-कभी वह कर जाते हैं, जो नहीं करना चाहिए था। विशेष रूप से मानवी-गरिमा को धारण किए इस मानुष तन धारी देवत्व से भरी-पूरी सत्ता के कारण तो कदापि नहीं। वह है आत्मघात-पलायनवाद या प्रगतिशील चिंतन से मुख मोड़कर अपनी दिशाधारा उलटी कर देना। ऐसा क्यों होता है ? इस पर मनःशास्त्री-दार्शनिक कहते हैं कि यह मनुष्य का मनोबल, संकल्प शक्ति गिर जाने से, आशंकाओं-कुकल्पनाओं-के भय के कारण अधिकाधिक होता देखा जाता है।
आज की सबसे बड़ी समस्या यही है कि आदमी का मनोबल चुक गया हैं जूझने की अदम्य सामर्थ्य जो उसमें विद्यमान है, वह प्रायः क्षीण होती चली जा रही है तथा ऐसी स्थिति में वह जरा सा भी प्रतिकूलता का आघात सहन नहीं कर पाता। यह आघात-यश-कीर्ति के क्षेत्र में भी हो सकता है जिसमें अहं पर गहरी चोट लगी हो, धन-समृद्धि के क्षेत्र में भी हो सकता है जिसमें अच्छा-खासा घाटा मनुष्य को हुआ हो, विद्या-बुद्धि के क्षेत्र में भी हो सकता है जिसमें जैसी अपेक्षा थी, वैसे परिणाम हस्तगत नहीं हुए अथवा किसी कारण असफलता का सामना करना पड़ा तथा बल-आरोग्य के क्षेत्र में भी हो सकता है, जब शरीर तो प्रत्यक्षतः स्वस्थ था पर वातावरण के दबाव या अकस्मात् उत्पन्न तनाव के कारण मनोबल टूट गया, उच्च रक्तचाप-मस्तिष्कीय रक्तस्राव के रूप में प्रकट हो वह आदमी को प्रायः पूरा ही तोड़ गया।
आत्मविश्वास की कमी, कल्पित भय भविष्य के प्रति निराशा ये तीनों ही स्थितियाँ ऐसी हैं, जो आदमी के संकल्पबल-आत्मबल को क्षति पहुँचाती तथा समाज में दुर्बल नागरिकों को जन्म देती है। हमारे राष्ट्र के साँस्कृतिक पराभव का, जो विगत दो हजार वर्षों में हुआ, यही मूल कारण है। यदि इस दुर्बलता से हमें उबरना है, तो हमें एक ही उपनिषद् वाक्य जीवन में उतारना होगा- “बलम् उपास्य” । हम सभी बल की, आत्मबल संवर्धन की, तथा मनःशक्ति संवर्धन की साधना करें। इसी में मानव मात्र के समूचे समाज व राष्ट्र का हित है।