उपासना की श्रेष्ठता (Kahani)

January 1994

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भगवान् को ध्यानमग्न देखकर नारद जी ने लक्ष्मी जी से जब कारण पूछा, तो उन्हें बताया गया कि वे अपने सबसे बड़े भक्त पृथ्वीवासी एक व्यक्ति की उपासना कर रहे हैं। अपने से भी बड़े भक्त को देखने को व्यग्र नारद वापस लोट पड़े। कितने ही दिन वे खोये-खोये घूमते रहे।

एक दिन वह गाँव के बाहरी रास्ते से निकल रहे थे। चमड़े की दुर्गंध उनके चरणों की गति को और तीव्र कर रही थी। उन्होंने जैसे ही दृष्टि उठाई, पशु-चर्मों से घिरा एक मैला-कुचैला चमार दिखाई दिया। वह पसीने में लथ-पथ चमड़े की सफाई में व्यस्त था। नारद जी समझ गये, हो न हो यही विष्णु का परम भक्त है, जिसका चित्र उस दिन बड़ी निम्नता के साथ बनाया जा रहा था। अनिच्छित उनके चरण वहीं रुक गये। तीव्र दुर्गंध के कारण वे चमार के पास तो न जा सके। उनके मन में जिज्ञासा जाग्रत हुई कि इसकी दिनचर्या कर निरीक्षण तो करना ही चाहिए। वे दूर खड़े नाक पर हाथ लगाये उसके कार्यों को ध्यानपूर्वक देखने लगे।

चमड़े के ढेर को साफ करते-करते शाम हो गयी। नारद ने सोचा, शायद अब किसी मंदिर में जायेगा या अपने निवास पर ही भगवान् का नाम स्मरण करेगा, पर उसके द्वारा ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अब तो उनके क्रोध की सीमा न रही। वह सोचने लगे कि एक अधम चमार को मुझसे श्रेष्ठ बताकर मेरा अपमान किया है। कहीं भक्त ऐसे होते हैं। अंतः से आवाज आयी-थोड़ी देर और इसकी गतिविधि देखनी चाहिये। अतः वे रुक गये।

चमार तो अपने कार्य में लगा ही था। जब रात होने लगी, तो उसने चमड़े के सारे ढेर को समेटा। जितना चमड़ा दिन भर में साफ कर लिया था, उसे एक गठरी में बाँधा और जो चमड़ा साफ न हो पाया था, उसे एक ओर समेट कर रखा। फिर एक मैला कपड़ा लेकर सिर से पैर तक अपने पसीने को पोंछकर घुटनों के बल बैठ गया और हाथ जोड़कर भाव-विभोर हो कहने लगा-”प्रभो ! मुझे क्षमा करना, मैं बिना पढ़ा चमार आपकी पूजा करने के ढंग को भी नहीं जानता। मेरी आपसे यही विनय है कि मुझे कल भी ऐसी सुमति देना कि आज की तरह ही आपके द्वारा दी गई जानकारी को ईमानदारी के साथ पूर्ण कर सकूँ।”

नारदजी ने तभी पाया कि भगवान् विष्णु उसके समीप खड़े मुस्करा रहे हैं। मंद स्मित के साथ वे बोल उठे-”मुनिराज ! समझ में आया, इस भक्त की उपासना की श्रेष्ठता का रहस्य ?”


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