यज्ञावशिष्ट, पुरोडाश एवं चरु

January 1994

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यज्ञ का आश्चर्यजनक प्रभाव जहाँ मनुष्य जाति की आत्मा, बुद्धि एवं शारीरिक मानसिक नीरोगता पर पड़ता है, वहाँ प्रजनन कोषों की शुद्धि भी होती है। याज्ञिकों को सुसंगति प्राप्त होती है। जिनके संतान होती है वे अपने भावी बालकों को यज्ञ भगवान के अनुग्रह से सुसंस्कारी, स्वस्थ, बुद्धिमान, सुन्दर और कुल की कीर्ति बढ़ाने वाला बना सकते हैं। जिन्हें संतान नहीं होती है, वे उन बाधाओं को हटा सकते हैं जिनके कारण वे संतान सुख से वंचित हैं। प्राचीन काल में संतान हीनों के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ संपन्न किये जाते थे। यज्ञ के अंत में पुरोडाश या चरु अर्थात् खीर का हवन किया जाता था और बचे हुए भाग को यज्ञ-शेष के रूप में स्त्री-पुरुष या दोनों में से एक को भक्षण कराया जाता था। इससे जहाँ यज्ञ में आहुति दी हुई औषधियों की सुगंधि एवं ऊर्जा नासिक तथा रोमकूपों द्वारा प्रविष्ट होकर शरीर में आवश्यक तत्वों की अभिवृद्धि में सहायक होती थी वहीं उन औषधियों के मिश्रण से बने पुरोडाश और चरु यज्ञावशिष्ट के रूप में खाने से याज्ञिकों में जीवनी शक्ति के अभिवर्धन के साथ ही संतानोत्पादक तत्वों की कमी की भी पूर्ति हो जाती थी।

राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ में शृंगी ऋषि ने कौशल्या आदि रानियों को साधारण चावलों की खीर नहीं, प्रत्युत उपयुक्त गुणों से युक्त औषधियों द्वारा निर्मित चरु या खीर का ही आस्वादन कराया था। इसीलिए उन माताओं ने राम, लक्ष्मण जैसे धर्मात्मा, वीर-पराक्रमी पुत्रों को जन्म दिया था। इसी तरह भागवत् पुराण के छठे स्कंध के 14 वें अध्याय में उल्लेख है कि चित्रकेतु ने अंगिरा ऋषि से प्रार्थना करके पुत्रेष्टि यज्ञ संपन्न किया था। यज्ञ समाप्त होने पर ऋषि ने सबसे बड़ी रानी कृताद्युति को यज्ञ-चरु का भोजन कराया था जिसके फल-स्वरूप उसने सुन्दर श्रेष्ठ एवं तेजस्वी राजकुमार को जन्म दिया। मनु-पुत्री इला एवं भगवान वासुदेव के दस पुत्रों का जन्म, कौशल देश के देवदत्त नामक ब्राह्मण को पुत्र की प्राप्ति यज्ञ के माध्यम से हुई थी। राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य को मारने के लिए उनसे भी अधिक बलिष्ठ और शस्वविद्या का ज्ञाता पुत्र प्राप्त करने के लिए यज्ञ कराया था। यज्ञ के अंत में जब पुत्रोत्पादक पुरोडाश बन कर तैयार हुई और जो अत्यंत स्वल्पकाल उसे खाने के लिए नियत था, उस समय दुर्भाग्यवश रानी जूठे मुँह थी। मुहूर्त व्यतीत होता देख यज्ञकर्ता ने उस खीर को यज्ञकुंड में ही पटक दिया। उसी समय धृष्टद्युम्न और द्रौपदी यज्ञकुँड में से निकले और अंत में उन्हीं से द्रोण की मृत्यु हुई। इस प्रकार की अनेकों घटनायें इतिहास-पुराणों में भरी पड़ी है जो यज्ञ और उसमें प्रयुक्त पुरोडाश एवं चरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं।

शतपथ ब्राह्मण 1/6/2/5 के अनुसार ‘पुरोडाश’ उसे कहते हैं जो यज्ञ में पहले समर्पित किया जाता है। ऐतरेय ब्राह्मण 2/13 में भी उल्लेख है- “पुरो वा एतान् देवा अक्रत यत्पुरोडाशानाँ पुरोडाशत्वम्” अर्थात् चूँकि यज्ञ में देवों ने इसे पहले प्रयुक्त किया-इसलिए इसे ‘पुरोडाश’ कहा जाता है। वस्तुतः पुरोडाश या चरु यज्ञाग्नि पर पकाये हुए औषधीय हव्य पदार्थ को कहते हैं। पूर्णाहुति हो जाने के उपराँत हवन कुँड या वेदी पर जो अग्नि रहती है उस पर उपयुक्त औषधियों के मिश्रण से युक्त निर्धारित आटे की बाटी सेंक ली जाती है। उसे पुरोडाश कहते हैं। प्रत्येक अन्न के गुण अलग-अलग होते हैं। उसी हिसाब से उसके आटे के गुण होते हैं। यह आटा अन्न को धोकर सुखा लेने के उपराँत धुली हुई चक्की पर अपने हाथ से पीसा जाता है। अन्न को धोना इसलिए आवश्यक है कि उसमें कोई मिश्रण न रहे। चक्की को भी धो लेना इसलिए जरूरी है कि इससे पिछली बार का कोई पिसान या आटा उसमें मिश्रित न हो। यह शुद्धता की सावधानी है।

‘चरु’ का तात्पर्य खीर से है। इसे स्थलीपाक भी कहते हैं। यज्ञ के अंत में औषधि मिश्रित इस खीर को-चरु को याज्ञिक के हाथों उसकी स्विष्टकृत आहुति दिलवाने के पश्चात् शेष बचे चरु को यज्ञावशेष के रूप में उसे खिला देते हैं। इस प्रकार चरु उसे कहते हैं जो हवन कुँड या वेदी के ऊपर पतले ताँबे या चाँदी के वर्तन में खीर बनायी जाती है। यह चावल की बनानी हो तो चावलों को पहले पानी में भिगो देना चाहिए ताकि अग्नि का तापमान कम हो तो भी वह पक सके। आम-तौर से मेवाओं की खीर-चरु पकायी जाती है। जिस मेवा की खीर पकानी हो उसे अच्छी तरह धोकर चार घंटा पूर्व पानी में फूलने के लिए डाल देनी चाहिए ताकि कम तापमान में भी वह पक सके ।

वैदिक काल से ही पुरुषों के लिए ‘पुरोडाश’ और महिलाओं के लिए ‘चरु’ का प्रचलन रहा है। किये गये यज्ञ का सर्वोच्च प्रभाव इनमें समाविष्ट होना माना गया है। पुरोडाश या चरु दोनों में से एक ही यज्ञीय ऊर्जा से बन सकता है, इसलिए यह निर्णय पहले ही करना होता है कि किये गये यज्ञ को प्रमुख लाभ किसे मिले पुरुष या नारी को। पूर्णाहुति होने के उपराँत सामान्य यज्ञों में थोड़ा सा ही तापमान बचता है। इसलिए उसमें से एक ही पदार्थ बन सकता है। ‘पुरोडाश’ बना लेने के उपराँत इतनी अग्नि ऊर्जा नहीं बचती कि उस पर ‘चरु’ भी पकाया जा सके। यह कार्य तभी हो सकता है जब अधिक आहुतियों बाला बड़े कुण्डों वाला यज्ञ हो। उसके लिए न केवल शाकल्य एवं घृत ही उच्च श्रेणी का विशेष व्यवस्था एवं सावधानी के साथ बना हुआ होना चाहिए, वरन् यज्ञ विधा को पूर्ण रूप से जानने वाले अध्वर्यु, उद्गाता, ब्रह्मा एवं आचार्य भी होने चाहिए। यजमान को एक सप्ताह का व्रत-उपवास करना चाहिए। चारों पुरोहितों को एक मास पूर्व से फलाहार पर रहना चाहिए तथा एक वर्ष से ब्रह्मचर्य पूर्वक संयम से रहना चाहिए। होता यजमान और आचार्य दोनों ही पक्ष उच्चस्तरीय साधनारत हों, तभी बड़े यज्ञों का विधान ठीक तरह संपन्न हो सकता है, जो वर्तमान परिस्थितियों में अत्यधिक कठिन है।

निजी अनुभव एवं परामर्श से पाँच कुण्ड के तीन दिन में संपन्न होने वाले यज्ञ का विधान अनुकूल माना गया है। इसके लिए पाँच कुण्ड का यज्ञ करना पर्याप्त है। ऐसे यज्ञ से जो क्षमता उत्पन्न होती है, वह इतनी ही होती है कि एक व्यक्ति के लायक ‘पुरोडाश’ बना सके अथवा एक महिला के लिए ‘चरु’ उपलब्ध हो सके। दोनों के लिए बनाया जायगा तो शक्ति बँट जायगी और किसी को भी समुचित लाभ न मिल सकेगा। एक समय का पेट भर सके, इतनी मात्रा में चरु या पुरोडाश मिल सके, ऐसा प्रबंध करना चाहिए। वेदी पर तो इतनी मात्रा नहीं हो सकती, इसलिए जहाँ कुँड बनाकर यज्ञ किया गया हो, वहीं यह व्यवस्था की जानी चाहिए। पाँच कुण्डों में पाँच बाटी बन सकती है। इतने में एक मनुष्य का पूरे दिन का आहार मिल सकता है। यही बात ‘चरु’ के संबंध में भी है। पाँच कुण्ड के यज्ञ में थोड़ी-थोड़ी मात्रा में खीर पकाई जाय तो उससे एक महिला की 24 घंटे क्षुधा निवृत्ति हो सके, इतनी खीर मिल सकती है।

यज्ञ की जीवनी शक्ति की ऊर्जा पुरोडाश या चरु में होती है। इसलिए यह व्यक्ति विशेष के धन या प्रयत्न से किया जाता है। सामूहिक या सार्वजनिक यज्ञ में यह नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि पैसा सबका लगे और लाभ एक उठावे, यह अनुचित हैं। सामूहिक यज्ञ में नवात्र को भूनकर उसका प्रसाद सबको बाँटा जाता है। होली के यज्ञ में यही होता है। जौ की बालें होली की अग्नि पर भूनते हैं और उसी में से थोड़ा-थोड़ा अन्न सभी बाँट देते हैं। यह पुरोडाश प्रथा है - कहीं-कहीं नारियल की गिरी या गोला होली की अग्नि पर भून कर उसका एक-एक छोटा टुकड़ा उपस्थित जनों में बाँट देते हैं। इसे प्रसाद कह सकते हैं। जैसे यज्ञ के घृत को हाथों से मलकर अग्नि पर तपा कर चेहरे में लगाते हैं। जैसे यज्ञ की भस्म को एक अंगुली से मस्तक, कंठ, आदि पर लगाते हैं, उसी प्रकार यज्ञाग्नि पर कच्चे जौ भूनकर प्रसाद रूप में बाँटे जा सकते हैं।जौ की ऋतु न हो तो ज्वार, बाजरा आदि जो कच्चा अन्न उपलब्ध हो, उसका पुरोडाश भूनकर उपस्थित जनों को प्रसाद रूप में बाँट देना चाहिए। यह सामूहिक पुरोडाश वितरण की बात हुई। एकाकी पुरुष या नारी अथवा दंपत्ति के उपयोग के लिए पुरोडाश या चरु कुण्ड या वेदी पर ही विनिर्मित किया जाता है। सामूहिक रूप से इसका प्रचलन यज्ञ विधान में नहीं हैं।

पुरोडाश या चरु का उपयोग केवल संतानोत्पादन तक ही सीमित नहीं हैं वरन् यह शारीरिक और मानसिक आदि शक्ति की अभिवृद्धि में भी बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ है। दुर्बल एवं रोगियों के लिए पुरोडाश एवं चरु देने से उनकी जीव में शक्ति-प्राण ऊर्जा बढ़ती है, किंतु जिनकी पाचनशक्ति ठीक हो उन्हीं को इसकी पूर्ण मात्रा देनी चाहिए। कारण एक तो जो खाद्य पदार्थ पकाया गया है, वह स्वयं ही पौष्टिक होता है और वनौषधियों के मिश्रण तथा यज्ञ की ऊर्जा का उसमें समावेश हो जाने से तो जीवनी शक्ति और भी अधिक बढ़ जाती है। अस्तु व्यक्ति की पाचनशक्ति को देखकर ही यह हविष्यान्न से बना हुआ चरु या पुरोडाश उसे देना चाहिए। इसके गुण 24 घंटे तक ही रहते हैं। इसके उपराँत गुण समाप्त हो जाते हैं, फिर वह यज्ञ प्रसाद न रहकर मात्र खाद्यान्न ही रह जाता है।

पुरोडाश के लिए जौ सर्वोत्तम माना गया है जौ के छिलके छानकर उनकी बाटी हवनकुंड की मंद अग्नि पर सेंकी जाती है। हविष्यान्न का भी पुरोडाश बनता है। हविष्यान्न का अर्थ होता है-जौ, चावल, तिल। अनुपात इस प्रकार है-तीन छटाँक अर्थात् 150 ग्राम जौ, दो छटाँक चावल और एक छटाँक तिल। चावल प्राकृतिक लेना चाहिए। आजकल बासमती सरीखे कितने ही शंकर जाति के चावल चल पड़े हैं। यज्ञ कार्यों में प्राकृतिक चावल ही लेने चाहिए। तिल जहाँ भी यज्ञ कार्य में उल्लेख हुआ है, वहाँ काले तिल से अभिप्राय है। तिल काले और सफेद मिले हुए हों तो उन्हें छान लेना चाहिए। अकेला जौ अधिक बलिष्ठ और गरिष्ठ होता है। उसका पुरोडाश युवा व्यक्तियों के जिए ही बनाना चाहिए। बच्चों को, वृद्धों को, कमजोरों को हविष्यान्न की बाटी बनानी चाहिए, वह इतनी मोटी न हो जो बीच में कच्ची रहे और किनारे जल जायँ। इतनी पतली भी न हो और इतनी देर सेंकी भी न जाय कि वह कड़ी हो जाय और चबाने में कठिनाई उत्पन्न करे।

चरु में दूध अनिवार्य रूप में गाय का ही लिया जाता है। भैंस, बकरी आदि का दूध निषिद्ध है। गाय में भी काली गो अधिक श्रेष्ठ मानी गयी है। जिसके नीचे बछड़ा हो उसका दूध और भी अधिक अच्छा है। अभाव में किसी भी गाय का दूध लिया जा सकता है।

चरु-खीर के लिए चावल प्राकृतिक लेने चाहिए। धान लगे न रह गये हों, इसलिए उन्हें अच्छी तरह बीन लेने चाहिए। प्राकृतिक चावलों में चैता, साँवा, मकन, रामदाना आदि भी लिये गये हैं। यह फलाहारी माने जाते हैं और पचने में चावलों की तुलना में सुगम्य होते हैं। चरु में मेवा घी भी मिलाई जा सकती है। जल्दी पक जाने वाली सेवाओं में किशमिश, छुहारा, काजू, पिस्ता, चिलगोजा मुख्य हैं। इन्हें आग पर चढ़ाने से पूर्व चार घंटे पानी में भिगो लेना चाहिए। इससे वे चावलों के साथ अच्छी तरह घुल जाती हैं। पकाने में इस बात का ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि वह न तो कच्ची रहने पावें और इतनी अधिक पके भी नहीं कि लेही-पेस्ट बन जाय या जलने की गंध आने लगे और पेंदे पर चिपक जाय। बर्तन ताँबे का लेना चाहिए, पर जिनके यहाँ चाँदी के बर्तन पकाने लायक हो वे उसका प्रयोग कर सकते हैं।

आयुर्वेद में वर्णित जो वनौषधियाँ जिस रोग के लिए गुणकारी मानी गयी हैं, उन्हें पुरोडाश या चरु के साथ मिलाकर हवनकुँड या वेदी पर पका लेने पर यज्ञीय ऊर्जा समाविष्ट हो जाने के कारण उनकी क्षमता अनेक गुनी अधिक बढ़ जाती है। यज्ञ की संपूर्ण जीवन दायिनी शक्ति पुरोडाश या चरु में सन्निहित होती है। अतः इसका उपयोग न केवल रुग्णता एवं अक्षमता-अशक्तता निवारण एवं शारीरिक मानसिक जीवनी शक्ति की अभिवृद्धि के निमित्त किया जा सकता है, वरन् इसके सेवन से ओजस्वी-तेजस्वी और मनस्वी भी बना जा सकता है। इतना ही नहीं गीता 3-13- एवं 4-31 के अनुसार तो यज्ञ से बना हुआ यज्ञावशिष्ट अर्थात् चरु या पुरोडाश खाने वाला सर्व पापों से छूट जाता है तथा सनातन ब्रह्म को प्राप्त करता है।


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