संकल्प शक्ति पर टिकी हैं, प्रत्यक्ष-जगत की उपलब्धियाँ

January 1994

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परमात्मा की इस सृष्टि में जहाँ एक ओर प्रगति के प्रचुर आधार भरे पड़े हैं, और सुख-साधनों की भरमार है, वहाँ विकृतियों और अवाँछनीयताओं की भी कमी नहीं । यहाँ सत्प्रवृत्तियों की तरह दुष्टता और दुर्बुद्धि का भी वैभव विस्तार छाया दीखता है। कई बार यह दुविधा होती है कि परमसत्ता ने इस विश्ववाटिका को ऐसी विसंगतियों से क्यों भर दिया कि एक ओर जहाँ श्रेष्ठता का अभाव नहीं, दूसरी ओर वहाँ दुष्टता भी सृष्टि-सौंदर्य को निगल जाने के मनसूबे बाँधती रहती है। जब नीति बनी, तो अनीति के अस्तित्व की क्या आवश्यकता थी ? जब देव मौजूद थे, तो दैत्यों का प्रकटीकरण किसलिए हुआ ?

उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से हमारा यह सोचना ठीक हो सकता है, पर यदि हम निर्माता की स्थिति में होते, तो समस्या दूसरे ही रूप में सामने होती और उसका समाधान करने के लिए कदाचित् हमें भी वही करना पड़ता, जो परमेश्वर को करना पड़ा है। अनुदान कितने ही कीमती क्यों न हों, उनका महत्व समझना और उनके उपयोग में सतर्कता बरतना तब तक संभव ही नहीं हो सकता, जब तक कि अभाव या प्रतिकूलता की स्थिति सामने न हो। केवल सरलता संसार में बनी रहे, तब तो कठिनाई की कल्पना ही न होगी और तुलना करने के लिए कोई आधार न रहने पर उपलब्धि का न तो कोई मूल्य समझा जायेगा, न उसमें किसी प्रकार का आनंद रह जायेगा। जिन लोगों को प्रचुर सुविधाएँ उपलब्ध होती रहती हैं, उन्हें वे भार प्रतीत होने लगती हैं और वैसा रस नहीं आता जैसा कि अभावग्रस्त स्थिति वालों को उसी को हस्तगत करने में स्वर्ग-सौभाग्य जैसा आनंद आता है। रसास्वादन में जितना श्रेय सुख-साधनों को है, उतनी ही महत्ता उस अभावग्रस्त स्थिति की है, जिसके कारण उन पदार्थों की तीव्र अभीप्सा बनी रहती है। कड़ी भूख लगने और रतजगा होने पर रूखी-सूखी रोटी और पत्थर का बिछावन भी स्वादिष्ट और सुखकर लगते हैं, जबकि पेट भरा होने तथा नींद की खुराक पूरी होने पर सुस्वादु व्यंजनों पर भी नाक-भौं सिकोड़नी पड़ती है एवं आरामदायक बिस्तर भी सामान्य लगता है। भोजन की स्वादिष्टता और बिस्तर की उत्तमता का जितना मूल्य है, उनसे अधिक कड़ाके की भूख लगने और गहरी नींद आने का है। इस मूल्याँकन के कारण ही संतोष और आनंद मिलता है। इस आनंद के लिए ही उत्कट अभीप्सा उत्पन्न होती है और उसे प्राप्त करने के लिए कठोर परिश्रम करने का साहस उठता है। प्राणियों को विभिन्न प्रकार की हलचलें करने की प्रेरणा इसी से मिलती है। मस्तिष्क को उसके आधार खड़े करने के लिए सोच-विचार करना पड़ता है। शरीर की तत्परता और मन की तन्मयता का प्रेरणा-केन्द्र अभीष्ट उपलब्धियों की आकाँक्षा ही रहती है और उन आकाँक्षाओं का उभार अभाव की कल्पना से उठता है। कंगाली की कठिनाइयों के चिंतन से सफलता बटोरने के लिए उत्साह उमगता है। रोगग्रस्तता और निर्बलता की दशा में शरीर की जो दुसह्य दुर्गति होती है, उससे डर कर ही लोग स्वस्थता प्राप्ति की व्यग्रता जताते हैं। यदि अक्षुण्ण स्वास्थ्य की निश्चितता रहे, तो फिर आरोग्य-संवर्धन के लिये जो किया और सोचा जाता है, उसकी किसी को आवश्यकता ही न पड़ेगी। फिर आरोग्य स्वाभाविक रहने और उसमें किसी प्रकार का संकट उत्पन्न होने का खतरा न रहने से उसका महत्व भी प्रतीत न होगा। ऐसी स्थिति में कोई उसके लिए फिर प्रयत्नशील क्यों रहेगा ? प्रयत्न की बात तो दूर कोई उस संदर्भ में चर्चा तक करना पसंद न करेगा। ऐसी दशा में सुदृढ़ स्वास्थ्य के कारण जो गर्व-गौरव एवं आनंद प्राप्त होता है, उसका भी अंत हो जायेगा। दस संसार में से मरण का अस्तित्व समाप्त हो जाय, तो भला, जीवन से मोह किसको रह जायेगा ? यहाँ कुरूपता के कारण ही सौंदर्य की पूजा होती है। जब सर्वत्र सौंदर्य-ही-सौंदर्य रहे, कुरूपता न रहे, तो जिस तुलना से आँखें सुन्दरता का स्वाद चखती और आनंदविभोर होती हैं, वह स्थिति बनी न रह सकेगी और दुनिया नीरस-निरानंद बन जायेगी।

रात के बिना दिन की उपयोगिता किसकी समझ में आती है ? न दिन का महत्व मालूम पड़ेगा, न उन घंटों के एक-एक क्षण के निष्ठापूर्वक उपयोग की आवश्यकता महसूस होगी। परिणाम यह होगा कि इन दिनों दिन के उजाले में काम पूरा करने की जो जल्दी मनुष्य को रहती है , वह तब न दिखाई पड़ेगी एवं लोग अकर्मण्य शिथिल-से बने रहेंगे। मानवी उत्साह तो अतिरिक्त लाभ पाने के लिए अथवा संभावित कठिनाई से बचने के लिए उत्पन्न होता है । उत्साह एक उत्तेजना है, जो लाभ कमाने एवं भय से बचने की कल्पना के सहारे उठती है। महामानवों और महापुरुषों में भी जो उत्कृष्ट साहस और पुरुषार्थ प्रकट होते हैं, उनके मूल में भी यही तथ्य काम करते हैं। यह बात दूसरी है कि उनके लाभ की परिभाषा सर्वसाधारण की तद्विषयक परिभाषा से भिन्न है। वे प्रायः व्यक्तिगत सुविधा के स्थान पर सामूहिक सुविधा की बात सोचते और आध्यात्मिक लाभ को प्रधानता देते हैं। इसी प्रकार वे भी सार्वजनिक विनाश और भौतिकता के नरक तुल्य दुःखों की विभीषिका को ध्यान में रखते हुए जन-जन का उत्साह उभारते हैं। यह स्तर भर का अंतर है। उत्साह जिसे शक्ति का स्रोत कह सकते हैं, बिना किसी लोभ या भय के उभरता ही नहीं। स्पष्ट है कि उत्साह की उत्तेजना ही मूर्च्छित व्यक्तित्व को जगाती , और उभारती और सक्रिय बनाती है, उसे प्रगति के पथ में धकेलती और महत्वपूर्ण कार्य कराती है। यदि उमंगें न उपजें, तो मनुष्य को शरीरचर्या की सामान्य क्रिया करते रहने के अतिरिक्त और कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। ऐसी अवस्था में उसकी दशा अर्धमृतकों-अर्धमूर्च्छितों जैसी बन जायेगी और सिवाय खाने-सोने के अतिरिक्त और कुछ सोचते-करते न बनेगा। उस साहसी मनोभूमि का वरदान पाने से वंचित ही बना रहेगा, जिसके सहारे तिनके आकाश चूमने लगते हैं और तुच्छ व्यक्तियों की गणना उच्च स्तरीय महा मानवों में होने लगती है।

अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों के ही अपने-अपने लाभ हैं। अनुकूलता, सुविधा एवं सफलता प्राप्त होने से मनुष्य को आत्म-गौरव की अनुभूति होती है। सफलता पर गर्व करने के साथ-साथ वह अपने व्यक्तित्व के वर्चस्व की अनुभूति भी करता है। यह आत्माभिमान, आत्मावलंबन का विश्वास दिलाता है और अपनी क्षमता के बारे में यह मान्यता बनाने का अवसर मिलता है कि आगे भी बड़े काम करने और बड़े लाभ पाने की स्थिति आनी है। यह अवधारणा जिस भी अंतराल में पूरी तरह हृदयंगम हो जाती है, निश्चय ही वह असाधारण सामर्थ्यवान बन जाता है। मनुष्य में आत्मबल सर्वोपरि बल है, उससे बड़ा और कोई बल नहीं। आत्मबल आत्मविश्वास पर ही अवलंबित है। पर आत्मबल इस आत्मबल का ही पूरक बल है।

संसार में अब तक जो अद्भुत और आश्चर्यजनक कार्य हुए हैं, उनकी सफलता का सूत्र तलाशा जाय, तो उन सब में मनोबल की ही प्रधान भूमिका दृष्टिगोचर होती प्रतीत होगी। उसी की प्रेरणा से शरीर अधिक परिश्रम करता है- मस्तिष्क में उमंगें छायी रहती हैं और अंतःकरण में सफलता की आशा सुदृढ़ बनी रहती है। महामानवों के जीवन-इतिहास का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जिस प्रचंड मनोबल का परिचय उनके उत्तरार्ध जीवन में दिखाई पड़ता है, वस्तुतः वह प्रारंभिक जीवन छोटे-छोटे प्रयासों, प्रयोगों और सफलताओं के आधार पर ही विनिर्मित होता है वह कहीं आकाश से नहीं टपकता। यदि ऐसी बात रही होती तो आरंभिक जीवन में उन्हें कठोर संघर्ष करते नहीं देखा जाता। इससे स्पष्ट है कि छोटे कार्य और छोटे कदम की आरंभिक कक्षा क्रमशः उत्तीर्ण करता चले, तो मनुष्य शनैः-शनैः अधिक आत्मविश्वासी बनता जाता है और इस आधार पर विकसित हुई प्रतिभा के सहारे स्वयं को क्रियाशील बना कर इस स्थिति में जा पहुँचता है कि उसे असाधारण महत्व एवं सामर्थ्य का व्यक्ति समझा जा सके।

यह सुविधा पक्ष हुआ। असुविधा एवं प्रतिकूलता की उपयोगिता इससे भी अधिक है, पर वह कष्टकारक रहने से रुचिकारक नहीं लगती और आमतौर से लोग उससे डरते-बचते देखे जाते हैं। इतने पर भी उसका मूल्य किसी प्रकार कम नहीं होता। आवश्यकताओं को आविष्कारों की जननी कहा गया है। प्राणिशास्त्र के आचार्य कहते हैं कि विभिन्न जीवधारियों के जो रूप रंग, आकार-प्रकार एवं शरीर-संरचना इन दिनों है, वैसी बनावट विकासकाल के आरंभिक दिनों में उनकी न रही होगी। तब वे कुछ और डील-डौल के रहे होंगे। वर्तमान रूप तो उनकी भीतरी आकाँक्षा और बाहरी आवश्यकता के अनुरूप हुए क्रमिक परिवर्तन का परिणाम है। मन जिस वस्तु या स्थिति को पाने के लिए मचलता है, उसके लिए भीतर से क्षमताएँ उभरती हैं और बाहर से साधन जुटते हैं। चेतना की अद्भुत शक्ति का उसे चमत्कार समझा जा सकता है। चेतना का यह चमत्कार यदि न हुआ होता तो सृष्टि संरचना से अब तक की जीवनयात्रा के दौरान न जाने कितने जीव, कठिनाइयों और कठिन परिस्थितियों की मार के कारण विलुप्त हो गये होते और जो मुट्ठी भर शेष रहते, उनका इतिहास बहुत पुराना न होता, किंतु ऐसा न हुआ। शाकाहारी प्राणियों ने आत्मरक्षा के लिए और माँसाहारियों ने शिकार पर सफल आक्रमण करने के लिए अपने शरीरों में क्रमशः परिवर्तन किये और उनकी वंशावलियाँ आगे बढ़ती चली गई । इस परिवर्तन का एकमात्र कारण जीवनशास्त्रियों के शोध-निष्कर्ष से यही सिद्ध हुआ है कि उनकी अंतःचेतना में प्रस्तुत कठिनाइयों के समाधान की अकुलाहट और अधिक अनुकूलता की अभिलाषा उत्पन्न हुई। उसके दबाव से शरीर और मस्तिष्क ने तद्नुरूप ढलना शुरू किया और एक के बाद एक परिवर्तन होते चले गये। अन्य प्राणियों की तरह मानवी प्रगति का इतिहास भी यही है। यह प्रखरता प्रतिकूलताओं के साथ होने वाली टकराहट की प्रतिक्रियाओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

भोंथरे आयुधों की धार तेज करने के लिए उन्हें पत्थर पर रगड़ना पड़ता है। रगड़ यों प्रत्यक्षतः अप्रिय और कष्टकर प्रतीत होती है। ऐसा लगता है कि इससे व्यक्ति और वस्तु घटते-मिटते हैं। मोटी दृष्टि को ऐसा लगते हुए भी वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। इस घर्षण से जो प्रखरता और समर्थता बढ़ती है, उसकी तुलना में रगड़ की कठिनाई अत्यंत न्यून हैं यदि वह स्वीकार न हो, तो औजारों की धार रखने और व्यक्तियों की प्रखरता बढ़ा कर उन्हें प्रतिभाशाली बनाने की आशा छोड़नी पड़ेगी। व्यायाम से शरीर पर दबाव पड़ता है और कष्ट होता है। आरामतलबी के अभ्यस्त लोगों के लिए यह भारी दंड भुगतने की तरह ही कष्टकारक प्रतीत होगा, पर जिन्हें बलवान-पहलवान बनना है, वे दंड-बैठक आदि कष्टकारक क्रियाएँ शरीर के असुविधा अनुभव करने पर भी किये ही चले जाते हैं। शिल्पी और कलाकार अपने विषयों में निष्णात बनने के लिए किस प्रकार मन मार कर अभ्यास करते है-यह उनके साथ रहकर जाना जा सकता है। जो इस तत्परता में प्रमाद बरतते हैं, उनकी सफलता उसी अनुपात में अनिश्चित बनती जाती है।

यदि सब सरलतापूर्वक होता चले, तो मनोरथ भले ही किसी प्रकार पूरे हो जायँ पर प्रतिभा विकास का रास्ता एक प्रकार से बंद होता चला जायेगा। अमीरों की संतानें आमतौर से आलसी और दुर्व्यसनी होती है, जबकि इसके विपरीत कठिनाइयों में पलने वाले गरीबों की संततियाँ आश्चर्यजनक प्रगति करती देखी जाती है। इस प्रकार की घटनाओं में प्रतिकूलताओं से टकराने पर उत्पन्न होने वाली शक्ति की कमी-वेशी ही अपनी-अपनी भूमिका निभाती देखी जा सकती है।

अमीरी को अपना कर निकम्मा बन बैठना जितना अशोभनीय है, उससे भी अधिक घातक गरीबी को अंगीकार करना है। जो इस संदर्भ में यह तर्क देते हैं कि गरीबी, दरिद्रता, उत्पीड़न, पिछड़ेपन की स्थिति में पड़े रहने से तपश्चर्या होती है, इसलिए कष्ट कर स्थिति में पड़े रहना और संतोष करना उचित है-ऐसी बुद्धि पर तरस आता है। वस्तुतः ऐसा सोच बैठना अर्थ का अनर्थ करना हो जायेगा। कष्ट में शक्ति नहीं, वह तो उलटा मनोबल तोड़ता है। शक्ति तो टकराने से उत्पन्न होती है। कठिनाइयों से जितनी तीव्रता से टकराया जायेगा, उतनी ही सामर्थ्य पैदा होगी। यदि प्रतिकूलताओं के समक्ष सिर झुका लिया गया तो फिर यही समझना चाहिए कि धीमी आत्महत्या जैसा कृत्य अपना लिया गया। टकराने और शक्ति उपार्जित करने के लिए प्रतिकूलता चाहिए, अतः ऐसे अवसर जब भी उपस्थित हों, रोने-खीजने की आवश्यकता नहीं, वरन् यह समझा जाना चाहिए कि मनोबल बढ़ाने और प्रखरता सँजोने का एक अवसर सामने आया। खोजने वाले विष में से भी अमृत खोज लेते हैं। अपनी सोच यह होनी चाहिए कि निसर्ग-व्यवस्था से जो कठिनाइयाँ सामने आ धमकी, उसे पछाड़ कर अपनी वरिष्ठता सिद्ध करने का लाभ कमाया जाय। इस प्रकार का चिंतन ही अतिवादिता को निरुत्साहित कर तथ्यों को संतुलित रीति से ग्रहण करने की, समझ देता है।

सृष्टि में कठिनाइयाँ और प्रतिकूलताएँ देखकर हमें सृष्टी की अदूरदर्शिता का असमंजस नहीं करना चाहिए। सोचना यही चाहिए कि हमारे लिए प्रगति के महत्वपूर्ण साधन के रूप में उन्हें सृजा गया है। उन्हें उसी रूप में देखना, समझना चाहिए और प्रबल प्रतिरक्षा की भावना से दबाने-दबोचने का मानस बनाये रखना चाहिए। उन्नति का यही आधार है और विसंगतियों के पीछे का तत्वदर्शन भी।


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