निराली है सिरजनहार की यह कारीगरी

January 1994

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प्रकृति की कारीगरी पर विचार किया जाय, तो हम पायेंगे कि वह सृष्टि का एक अद्भुत इंजीनियर है। उसने निर्माणों में एक-से-एक बढ़ कर ऐसी कृतियाँ गढ़ हैं, जिन्हें देख कर अचंभा हुए बिना नहीं रहता। यदा-कदा मन में यह विचार उत्पन्न होता है कि आखिर इन रचनाओं के पीछे निसर्ग का क्या प्रयोजन है ? क्या मात्र कौतुक-कौतूहल पैदा करने के लिए ही इनका सृजन हुआ है अथवा उद्देश्य कुछ और है? गंभीर मंथन से जो निष्कर्ष निकलता है, वह बताता है कि संभव है, इनका ध्येय मनुष्य को प्रेरणा देना हो कि वह अपनी गतिविधियाँ प्रकृति की तरह रचनात्मक बनाये, ध्वंसात्मक नहीं।

इन्हीं संभावनाओं को प्रकट करता हुआ भूमध्य सागर में सारडीनिया नामक एक द्वीप है। इसके उत्तरपूर्व में कैपोडो ओरसो अर्थात् “भालू अंतरीप” स्थित है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस अंतरीप का मुख्य आकर्षण वहाँ की भालूनुमा एक विशाल संरचना है। जब कोई भी पर्यटक इस “केप अंतरीप” की चोटी तक पालू गाँव के रास्ते से आता है, तो वह प्रकृति की इस अद्भुत कारीगरी को देखकर आश्चर्य में पड़ जाता है। भालू एक विशाल चट्टान से विनिर्मित है, जिसे पास से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह उस टापू और समुद्र के विहंगम दृश्य को देखने में निमग्न है।

प्रकृति की इंजीनियरिंग का ऐसा ही एक नमूना दक्षिणी चीन के युन्नान प्राँत में देखने को मिलता है। उक्त प्राँत की राजधानी कुनमिंग से लगभग 60 मील दक्षिण-पूर्व में एक ऊंचे पठार पर पत्थरों का एक सघन जंगल है। पत्थरों के इस वन को लाग दूर-दूर से देखने के लिए आते हैं। “पत्थरों का जंगल” इस नाम से तनिक अचंभा अवश्य होता है, किंतु उसे देखने के बाद नाम की सार्थकता सत्य जान पड़ती है। वस्तुतः वह हरीतिमा रहित अरण्य ही है। जब कोई पर्यटक दूर से अकस्मात् उस ओर दृष्टि दौड़ाता है, तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई विस्तृत वन सामने फैला हुआ हो-ऐसा वन, जिसमें पेड़ों के टहनियाँ और पत्ते न हों, सिर्फ तने शेष रह गये हों। भिन्न-भिन्न आकार और ऊंचाई वाले पाषाण-स्तम्भों से युक्त यह स्थल प्रथम दृष्टि में किसी घने वन का भ्रम पैदा करता है।

थीसली, ग्रीस में पिण्डस पर्वत की तराई में एक छोटा शहर है- कलाम्बका। इसकी पृष्ठभूमि में उत्तर की ओर विशाल चट्टानी स्तंभों के तीन समूह हैं। ये विशाल स्तंभ देखने में ऐसे प्रतीत होते हैं मानों कोई बौद्ध स्तूप हों। इन समूहों में स्तूपों के अतिरिक्त और भी कितनी ही संरचनाओं की नैसर्गिक अनुकृतियाँ बनी हुई हैं। इनमें दो, यात्रियों का ध्यान विशेष रूप से अपनी ओर आकर्षित करती है। ये हैं वहाँ के विशाल स्तूप एवं अगणित कँगूर वाली गढ़ियाँ। इस संपूर्ण प्राकृतिक निर्माण को तनिक हटकर देखने से ऐसा आभास मिलता है, जैसे रजवाड़ों की यह छोटी-छोटी गढ़ियाँ हैं और उन्हीं के निकट उनके पृथक्-पृथक् शिक्षाओं और सिद्धाँतों का उद्घोष करते उनके अपने-अपने स्तंभ। इस प्रस्तर रचना को ‘मिटिओरा’ के नाम से पुकारा जाता है। ग्रीक में इसका अर्थ “गगनचुंबी” होता है। स्तंभों में से कई-कई तो 18 सौ फुट ऊंचे हैं। इन स्तूपों की शोभा को तब चार चाँद लग गये, जब प्रकृतिगत निर्माणों के ऊपर मानवीकृत संरचनाएँ खड़ी की गई। यह अद्भुत निर्माण का विचार कुछ संन्यासियों के मन में तब आया, जब उन्हें संसार से विरक्ति अनुभव होने लगी। ऐसी स्थिति में इन सर्वथा अगम्य स्तूप श्रृंगों पर छोटे निवास बनाकर उनने अपनी इच्छा-पूर्ति की। वोटी पर स्थित उनके मठ सचमुच ही सर्वसाधारण की पहुँच से परे थे। यदि उनसे जुड़ी अलग होने और मुड़ने वाली सीढ़ी को हटा दिया जाय, तो मठ का संबंध समाज से बिलकुल ही विच्छिन्न हो जाता है। और उनमें रहने वाले व्यक्ति समाज में मनुष्य के बीच रहकर भी उनका संपर्क मनुष्य और समाज से एकदम टूट जाता है। निर्माणों की विशेषता यह है कि जब तक ध्यानपूर्वक इन्हें नहीं देखा जाय, तब तक यह ज्ञात नहीं होता कि इनके ऊपर मानवीकृत संरचना भी विनिर्मित है। ऐसे मठ वहाँ के खंभों में बीस से ऊपर हैं। इनका निर्माण 14 वीं एवं 15 वीं सदी में किया गया था और ये 19 वीं शताब्दी तक आबाद रहे। अब ये खाली पड़े हुए हैं। जो भी पर्यटक यहाँ आते हैं, वे प्रकृति और मनुष्य की इन मिली-जुली रचनाओं को देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं।

प्रकृति के वास्तुशिल्प का एक अच्छा उदाहरण “फ्रांसीसी गुफाओं” के रूप में देखा जा सकता है। यह कंदराएँ इटली में एसीनो नदी से लगे पहाड़ पर स्थित है। इन गुफाओं की सबसे बड़ी विशेषता उनमें स्थित अनेकानेक कक्ष हैं। हर कक्ष की अपनी-अपनी विशिष्टताएँ हैं। उन्हीं के आधार पर उनका नामकरण किया गया है। उदाहरण के लिए उसका एक भाग ऐसा है, जिसमें सिर्फ चमगादड़ रहते हैं। इस आधार पर उस प्रकोष्ठ का नाम “ग्रोटाडिले नोटोले” अर्थात् “चमगादड़ों की गुफा” रखा गया । उसके एक अन्य कक्ष का नाम “ग्रोटो ग्रेण्डे डेल वेण्टो” अर्थात् “ग्रेट केव ऑफ विण्ड” है। कंदरा के इस भाग में अनेक प्रकोष्ठ हैं। इनका आकार-प्रकार इतना बड़ा है कि उनमें बड़े-बड़े मठ समा जायँ। इनमें से कुछ में प्राकृतिक प्रकाश की अच्छी व्यवस्था है विशाल गुफा का एक भाग “साला डिले कैण्डेलाइन” कहलाता है। उक्त नाम उस हिस्से में स्थित उन अगणित छोटे-छोटे मोमबत्तीनुमा निर्माणों की ओर इंगित करता है, जो देखने से ऐसे प्रतीत होते हैं, मानों वही जल-जल कर उस भाग को प्रकाशित कर रहे हों। इसी कारण उसका नाम “मोमबत्ती वाला कमरा” रखा गया है। एक अन्य कक्ष “साला डेल इनफिनिटो” या “रूम ऑफ इनफाइनाइट” कहलाता है। इस प्रकोष्ठ में बड़े एवं विशाल सुसज्जित स्तंभ हैं, जो गुफा की छत को सँभाले हुए हैं। इन्हें देखने से ऐसा लगता है, जैसे प्रकृति ने विशाल खंभों का निर्माण कर विस्तृत छत को दृढ़ता प्रदान की हो, ठीक वैसे ही, जैसे मानवी निर्माणों में देखा जाता है। इनमें से अकेले ग्रोटा ग्रेण्डे डेल वेण्टो की लंबाई आठ मील है। उल्लेखनीय है कि फ्रांसीसी गुफाओं के प्रत्येक कक्ष एक दूसरे से संबद्ध हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार विशाल इमारतों में कमरे परस्पर जुड़े होते हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका में कोलोरैडो नदी के तट पर उसके दक्षिण पूर्व भाग में “उटाह” नामक स्थान है। यहाँ एक नेशनल पार्क है, जो “मेहराबों वाला पार्क” के नाम से प्रसिद्ध है। इस पार्क की विशेषता यह है कि यहाँ छोटे-बड़े कितने ही आकर्षक पत्थरों के मेहराब हैं। इन्हें देखने पर प्रकृति की उस कलाकारिता पर आश्चर्य होता है, जिसने कुशलतापूर्वक इन्हें गढ़ कर खड़ा किया। इनमें से कई इतने नाजुक और पतले हैं, कि विश्वास नहीं होता यह लंबे समय से अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। ऐसे में निसर्ग की निर्माण कुशलता पर विस्मय होना स्वाभाविक ही है। इस पार्क का सबसे लंबा मेहराब “लैंडस्केप आर्च” है। विश्व का यह अपने प्रकार का सबसे बड़ा आर्च है। इसकी लंबाई 291 फुट है।

स्पेन में मैड्रिड के निकट पाँच सौ एकड़ भूमि पर फैला पत्थरों का एक शहर है। इस शहर में विभिन्न आकृतियों की विलक्षण संरचनाएँ अब भी देखी जा सकती है। यों इस प्रस्तर शहर की कितनी ही रचनाएँ समय की मार से विनष्ट हो चुकीं हैं, किंतु अब भी इतनी शेष हैं, कि प्रकृति की वास्तुकला की दक्षता के बारे में काफी कुछ जाना-समझा जा सकता है।

प्रकृति की कृतियों में काँगो (दक्षिण अफ्रीका) की कंदराओं की चर्चा न ही की जाय, तो उल्लेख अधूरा होगा। माना जाता है कि यह कंदरा प्रस्तर युग में आदि मानवों को निवास रही होगी। यह अनुमान उनकी दीवारों में उत्कीर्ण तस्वीरों के आधार पर विशेषज्ञ लगाते हैं, किंतु जिन कारणों से यह विश्व-प्रसिद्ध बनीं, यह कारण मानवीकृत चित्र नहीं हैं, वरन् प्रकृति की विलक्षण कारीगरी है। इनमें अलग-अलग प्रकोष्ठो में विस्मय विमुग्ध करने वाली रचनाएँ हैं। विशेष दर्शनीय वहाँ के “क्रिस्टल पैलेस” “डेविल्स वर्कशाप” एवं तहखाना हैं। इनमें कहीं पर्दे की आकृति जैसी रचना है, तो कहीं बड़े-बड़े बबूले जैसा निर्माण, कहीं बाँसुरी, तो कहीं लंबी-लंबी सुइयाँ। एक स्थान पर ऐसा ड्रम है, जो रचना की दृष्टि से ही ड्रम नहीं हैं, वरन् वह ड्रमों जैसी ध्वनि भी निरंतर निकालता रहता है। वहाँ प्रवेश करने पर ऐसा लगता है, जैसे यह सभी, पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा कर रहे हों।

कैलीफोर्निया में नेवादा के निकट एक घाटी है “डेथ वेली” या मृत्यु घाटी। इस घाटी का आकर्षण वहाँ की भूमि में विनिर्मित सुन्दर बीहड़ है। इसे देखने से ऐसा आभास होता है, जैसे किसी कुशल शिल्पी ने अपने सधे और निष्णात् हाथों से इसे तराशा हो। इसका नाम मृत्यु घाटी इसलिए रखा गया है, क्योंकि गर्मियों में वहाँ का तापमान अति उच्च हो जाता है। इसके बावजूद छोटे-छोटे जीवधारी वहाँ मजे में रहते हैं।

प्रकृति की ये रचनाएँ अपनी मूक भाषा में मनुष्य को यह शिक्षा देती रहती हैं कि वह अपने सृजन और सृजनात्मक गतिविधियों से चाहे तो समाज का नव-निर्माण कर सकते हैं, पर दुःख की बात यह है कि निसर्ग के इस महत्वपूर्ण संदेश की उपेक्षा करते हुए हम इन दिनों निर्माण में न जुट कर ध्वंस को गले लगाये हुए ऐसे कार्यों में संलग्न हैं, जो थके मन को कुछ राहत देने की तुलना में विषाद का हलाहल पिलाने में व्यस्त हैं। हम संहारक नहीं, सर्जक बनें-दुःखद समाज को सुखद संसार में बदलने का यही एक मात्र उपाय है।


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