परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-

January 1994

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(5 अप्रैल 1976 को शाँतिकुँज प्राँगण में पूज्यवर का उद्बोधन)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ- ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। देवियों, भाइयों! गुरु द्रोणाचार्य ने जब पाण्डवों को विद्याध्ययन कराया, तो प्राचीन परंपरा के अनुरूप उन्होंने वही मंत्र पढ़ाये जो ब्राह्मण ग्रंथ पढ़ाये जो ब्राह्मण ग्रंथों में लिखे हुए है। शतपथ ब्राह्मण में विद्यार्थी को अक्षर ज्ञान से ही पहले जो पाठ पढ़ाया जाता है-वह है-”सत्यंवद् धर्मम् चर, स्वाध्याया मा प्रमदितव्यम्।” यह ऋचाएँ अक्षर ज्ञान से भी पहले याद करायी जाती हैं जिससे आदमी को मालूम पड़ जाये कि विद्या का उद्देश्य क्या है? ज्ञान का उद्देश्य क्या है? उद्देश्य पहले बताया जाता है और उसका प्रयोग पीछे पढ़ाया जाता है। क, ख, ग पीछे पढ़ाया जाता है, पहले यह बताया जाता है कि यह किस काम के लिए है। द्रोणाचार्य ने पाँचों पाण्डवों को प्राचीन परंपरा के अनुरूप वहीं पाठ पढ़ाये-सत्यं, वद, धर्मचर, स्वाध्याया मा प्रमदितव्यम्। चारों पाँडवों ने तो वे सारे के सारे पाठ याद कर लिये, लेकिन सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर वह पाठ याद न कर सके। उन्होंने कहा-गुरुदेव! पाठ थोड़ा जटिल है। ‘सत्यंवद’ कहिए तो मैं सुना देता हूँ, लेकिन अध्यात्म में कोई ज्ञान ऐसा नहीं है जो केवल जबान की नोक से कहा जाय और जो परिणाम उसके बताये गये हैं उन्हें पूरा करने में समर्थ हो सके। जीभ का नहीं यह अध्यात्म का विषय है। अपने जो पाठ मुझे पढ़ाया उसके लिए मैंने कोशिश की कि वह मेरे जीवन में प्रयोग होता हुआ चला जाय और मेरी जीवात्मा इसको धारण करले तो बात बने। महाराज युधिष्ठिर सारे जीवन भर इसी पाठ को याद करते रहे। उसमें भी एक बार गलती हो गयी थी और ‘नरो वा कुँजरोवा’-हाथी है या अश्वत्थामा। आखिर यह पता नहीं चला, ऐसा कहकर उन्होंने गलती कर ही डाली।

मित्रों, अध्यात्म में जो शिक्षण हम प्राप्त करते हैं उसको जीवन में उतारना पड़ता है। इससे कम में कोई बात बनती नहीं-गाड़ी आगे बढ़ती नहीं। उच्चारण हमारे लिए आवश्यक तो है, पर काफी नहीं है। राम नाम या गायत्री मंत्र तो सभी याद कर लेते हैं। केन्या पूर्वी अफ्रीका का हमारा लड़का यहाँ बैठा हुआ है। उसके यहाँ काँगो का एक तोता है जो ऐसा बढ़िया गायत्री मंत्र बोलता है कि उसकी और मनुष्य की आवाज में कोई फर्क ही नहीं मालूम पड़ता। पर क्या इतने से सुग्गे को गायत्री माता सिद्ध हो गयी? क्या वह आशीर्वाद दे सकता है? नहीं क्योंकि उसे मात्र अक्षर याद हैं। अक्षर याद कर लेने भर से अध्यात्म का कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता, जैसा कि आम लोगों का ख्याल है। आम लोगों को मुद्दतों से इसी तरह बहकाया जाता रहा है कि अक्षर याद कीजिए, अक्षरों का उच्चारण कीजिए और स्वर्गलोक को चले जाइये। राम नाम लीजिए, राम का नाम सुनिये और सीधे राम लोक को चले जाइये। पर ऐसा होता नहीं है। शुरुआत हम रामनाम से करें, ठीक है। नाम तो लेना ही पड़ता है, नाम नहीं लेंगे तो बात कैसे बनेगी? जिस तक पहुँचना है उसका नाम तो लेना ही पड़ेगा। स्टेशन का नाम बताये बिना तो उसका टिकट भी नहीं मिलता। वस्तु का नाम बताये बिना दुकानदार से कहते रहिए कि अमुक चीज, यह चीज वह चीज दे दीजिए तो वह भी कहेगा कि भाग यहाँ से। नाम की पहले जरूरत है, क्योंकि नाम हमको दिशा बताता है। लेकिन अगर नाम के उच्चारण तक ही सीमित रहा गया तो समझना चाहिए कि जिस तरीके से सुग्गा रामनाम और गायत्री मंत्र बोलता रहता है, पर लाभ कुछ नहीं पाता, उसी तरह उससे कम या अधिक लाभ आपको भी नहीं मिलेगा।

नाम उच्चारण आवश्यक है, पर इससे आगे उसे हमारी अंतरात्मा में इस गहराई तक समा जाना चाहिए कि वह हमारे व्यवहार में उतरने लगे। इस संदर्भ में प्रहलाद की घटना मुझे याद हो आयी। प्रहलाद को उसके मास्टर ने सबसे पहले पट्टी पूजन कराया और रामनाम पट्टी पर लिखकर कहा-पहले रामनाम लिख, पीछे क, ख, ग भी बतायेंगे। वह रोज रामनाम लिखने लगा। पहले दिन, दूसरे दिन, तीसरे दिन-चौथे दिन भी राम नाम। मास्टर ने कहा-अब राम नाम लिखना बंद करो और गिनती लिखों। उसने कहा नहीं साहब, अभी तो हम राम नाम ही पढ़ेंगे क्योंकि यह पाठ अभी पक्का नहीं हो पाया और वह राम नाम ही पट्टी पर लिखकर लाता रहा। पिता से शिकायत की गयी। उन्होंने कहा बच्चे! आगे वाली पढ़ायी पक्की कर लेनी चाहिए तब आगे पढ़ना चाहिए। प्रहलाद सारी जिंदगी भर उसी पढ़ाई में लगे रहे और पक्की करते रहे। बार-बार गायत्री मंत्र याद करने की बात कहते हैं और अभी 24 हजार का जप करा रहे हैं। आप यह पूछ सकते हैं कि क्यों साहब गायत्री मंत्र तो वही है, उसे चाहे हम एक बार जप कर लें या 24 हजार बार। फिर आप बार-बार क्यों कराते हैं? उससे क्या फायदा? गायत्री मंत्र याद भी हो गया और उसका अर्थ भी हम समझ गये-कि हे भगवान हमारी बुद्धि को शुद्ध पवित्र बना दीजिए। आप यही रेपिटोशन बार-बार क्यों कराते हैं? किस काम के लिए कराते हैं? आपको यह सवाल करना चाहिए और इसका जवाब मालूम करना चाहिए।

साथियों ‘रेपिटेशन’ इसीलिए कराते हैं कि हमारा मस्तिष्क बड़ा भुलक्कड़ है कि इससे ज्यादा भुलक्कड़ इस दुनिया में कोई होगा क्या? जहाँ तक भौतिक जीवन का सवाल है, वहाँ तक हम और आप बिलकुल सही हैं, कभी भुलक्कड़ नहीं हो सकते। इस मामले में हमारा दिमाग बहुत चालाक है, लेकिन इस मामले में वह इतना वाहियात है कि हम अपने जीवन लक्ष्य क्या है? हमारा कर्तव्य क्या है? हमारे जीवन का स्वरूप क्या हैं? हमको मालूम नहीं है। मूल चीज को हम एकदम भूल जाते हैं। बाहर की सब चीजों हमको याद रहती हैं कि दुकान में कितना नफा होगा, किसका लेना है, किसका देना है आदि बातें हमको ऐसे याद रहती हैं कि कभी भी उसमें भूल नहीं पड़ती लेकिन जहाँ तक अपनी जीवात्मा का सवाल है, परमात्मा का सवाल है, इसमें भूल पर भूल होती चली जाती है। इसलिए इस भुलक्कड़पन को दूर करने के लिए हम बार-बार आपसे गायत्री मंत्र का जाप कराते हैं, ताकि आपकी जीवात्मा में वह घुल जाय और आपकी स्मरण में अंतः चेतना में उसको प्रवेश करने का मौका मिल जाय। ग्रामोफोन के रिकार्ड के तरीके से हमारी जीभ की नोक कई तरह के अक्षरों का-मंत्रों का उच्चारण कर लेती है, पर हमारे जीवन में वे समाविष्ट नहीं हो पाते-प्रवेश नहीं कर पाते। फलतः हमको बार-बार याद करना पड़ता है। उच्चस्तरीय सिद्धाँतों को जीवन में प्रवेश कराने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। जिस तरह इम्तहान की तैयारी के लिए, बच्चों को अपना पाठ पक्का करने के लिए उसे बार-बार याद कराना पड़ता है, उसी प्रकार हम आपको गायत्री मंत्र के जप के रूप में बार-बार रेपिटेशन कराते हैं। ताकि आपकी याददाश्त में से जो वेश कीमती चीज भूल गयी उस गँवायी हुई चीज को आप तलाश कर पायें।

भगवान रामचंद्र की सीता जी को रावण चुरा ले गया। रामचंद्र जी ने पहाड़ों से, नदियों से, तालाबों से पेड़ों से, हवा से-हर एक से पूछताछ की कि कहीं सीता आपने देखी है। क्या सीता के बिना राम बिलकुल निर्जीव से हो गये थे। उनकी जीवात्मा निकल गयी थी। वे हारे-थके हुओं के तरीके से वन-वन में घूम रहे थे और सीता-सीता पुकारते थे। हम भी पुकारते हैं अपनी जीवात्मा को, जिसको कि हमने गँवा दिया है-खो दिया है। साँप के फन में से और हाथी के सिर में से मणि निकल जाती है तो वह बेकार हो जाता है। साँप और हाथी के सिर में यह मणि होती है कि नहीं, यह तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं जानता हूँ कि मनुष्य के भीतर एक मणि अवश्य होती है जिसको गँवा देने के बाद आदमी निष्प्राण हो जाता है। निस्तेज, निर्जीव-छूँछ हो जाता है और व्यथाओं, कष्टों, चिंताओं से घिर जाता है। सारे जीवन पर निराशा के बादल छा जाते हैं। वह मणि है हमारी जीवात्मा जिसको हमने गँवा दिया। अब तो लोहार की मरी हुई धौंकनी के तरीके से साँस भर चलती है। आज आदमी मरे हुए के बराबर है। मनुष्य जीवन के साथ जो श्रेष्ठताएँ उमंग, उत्साह और उल्लास जुड़े हुए होते हैं जिन्हें की आदमी अमृत की तरीके से बिखेरता रहता है, वह चेहरे पर कहीं दिखायी नहीं देती। ऐसी खीजें हुए बेचैन एवं चिंतित आदमी को मैं मरे हुए में शुमार करता हूँ। सीताजी के चले जाने के बाद रामचंद्र जी चिंतित दुःखी हो गये थे और अपना उत्साह, आनंद अपनी खुशी को सीता के नाम से पुकारते थे। हम भी आपसे निवेदन करते हैं कि आप अपनी सीता को पुकारिये, जिसका नाम हमने गायत्री माता रख दिया है। गायत्री माता को पुकारने के लिए गायत्री मंत्र का जप करने के लिए हमने कहा है।

गायत्री माता क्या हो सकती है? गायत्री माता बेटे, आपकी जीवात्मा हो सकती है और वह उच्चस्तरीय जीवात्मा जब आपके अंतः करण में प्रवेश करती है तो आपको आनंद और उल्लास से भर देती है और देवता बना देती है। वह गायत्री माता जो बीस साल पहले आपको एक छवि के रूप में सुपुर्द की थी, जिसको आप चंदन, धूपबत्ती चढ़ाते हैं प्रणाम करते थे-माला घुमाते थे, बहुत पुरानी बात है। जब आप छोटे बालक थे, तब हमने बताया था कि गायत्री माता हंस पर सवारी करती है और हाथ में पुस्तक, पुष्प कमंडलु लिए रहती है। पर आज मैं ज्ञान की बात कहता हूँ। जिस गायत्री माता का हम “जप कराते हैं, उपासना और अनुष्ठन कराते हैं, उसकी फिलॉसफी, उसका तत्वज्ञान, उसका सार, प्रकाश और मूल बताना चाहते हैं। मैं समझता हूँ के अब आप इस लायक हो गये हैं कि खुले दिल से, खुले मन से, आपको हम असलियत समझा सकते हैं कि आखिर गायत्री माता क्या हो सकती है जिसका हमें जप करना चाहिए और जप करने का उद्देश्य क्या हो सकता है जिसके लिए हम आपको बार-बार कहते हैं। जो सिद्धियों की-चमत्कारों की देवी है, जो शाँति की वरदान की देवी है, जो ऐसी देवी है जिसको प्राप्त करने के बाद में और कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रह जाता। वह गायत्री मंत्र जो गुरु विशिष्ठ के पास था, जो विश्वामित्र के पास था जिन्होंने अपना सारा राजपाट छोड़कर जंगल में तप करने के बाद गायत्री माता का साक्षात्कार किया था और जिसने कहा था- धिकवलं क्षत्रिय बलं ब्रह्म तेजो बलंवलम्। मैं आपको उसी गायत्री मंत्र को बताना चाहता हूँ जो आपको निहाल कर सकता है-धन्य कर सकता है और आपको चमत्कारी बना सकता है और भगवान बना सकता है।”

वह गायत्री मंत्र जो ‘मद्यम दत्वा व्रजतब्रह्मलोकम’ प्रदान करता है। ब्रह्मतेजस् और ब्रह्मवर्चस् प्रदान करता है। यह गायत्री माता का प्राण है जिसका हमने कलेवर-शकल बना करके रखा है, अन्यथा जो निराकार शक्तियाँ है वे देखी और दिखायी नहीं जा सकती। उनकी शक्लें नहीं होती है। ठंडी, गर्मी, प्रेम, मुहब्बत, क्रोध जैसी संवेदनाओं की शकल नहीं हो सकती भगवान की केवल संवेदनाएं, विचारणाएँ, प्रेरणाएं , निष्ठायें, आस्थायें और अनुभूतियाँ हो सकती है। उनकी कोई शकल नहीं हो सकती। शकल हमारी कल्पना है। कल्पना इसलिए है कि हमको निष्ठ तक पहुँचने के लिए रास्ता मिल जाये। जिस तरह इंजेक्शन की सुई और शरीर के भीतर रक्त में दवा पहुँचा देती है, उसी प्रकार शक्लों के माध्यम से हमारा मस्तिष्क किसी चीज को पकड़ सकता है। शकल के बिना, नाम और रूप के बिना हमारी स्मरण शक्ति और दिमाग की बनावट काम नहीं कर सकती और हम उन संवेदनाओं को पकड़ नहीं सकते। इस संवेदना को, निष्ठ और आस्था को पकड़ने के लिए हमने शक्लों की मूर्तियों की कल्पना की है।

गायत्री माता क्या हो सकती है। अब मैं उसके शकल की व्याख्या करूंगा। गायत्री माता-बेटे, एक जवान स्त्री का नाम है जैसे कि हमने फोटो में छापा है और मंदिर में स्थापित किया है। जवान स्त्री इसलिए कि उसके प्रति तेरे भीतर मातृ बुद्धि पैदा हो, आँखों में शुद्ध पवित्रता का भाव पैदा हो, क्योंकि मनुष्य की भावना और ईमान दो बातों में सबसे ज्यादा गंदा हो जाता है। एक धन को देखकर, दूसरा जवान स्त्री को देखकर। एक पैसे को देखकर आदमी भ्रष्ट हो जाता है, दूसरे विपरीत सैक्स की जवानी देखकर न जाने कैसा शैतान दिमाग में आ जाता है कि आदमी सब कुछ भूल जाता है। कामिनी और कंचन दोनों को देखकर जो अपने ईमान को सही रख सकता है, उसे कह सकते हैं कि यह आदमी बहादुर है-शूरवीर है। इसके पास वह शक्ति है जिसका नाम-ब्रह्मवर्चस् है। जिसके पास ब्रह्मवर्चस वह भगवान को भी मजबूर कर सकता है कि आइये जमीन पर और हमारे सामने खड़े होइये। भगवान को इसके आधार पर हम खड़ा कर सकते हैं। भगवान को इसके सामने नत होना पड़ता है। मित्रो, ब्रह्मतेजस् आज कहाँ से है? चरित्र में से आता है। पूजा-चरित्र के लिए है। पूजा से भगवान नहीं मिल सकते, पूजा हमारा माध्यम है, लक्ष्य नहीं। पूजा के माध्यम से हम अपनी चरित्रनिष्ठ, विचारशीलता और आँतरिक उदात्तता का विकास करते हैं। उपासना इसी के लिए की जाती है।

मित्रो, ब्रह्मवर्चस् प्राप्त करने के लिए हमको वह साहसिकता जगानी पड़ेगी जो कि अध्यात्म का मूल उद्देश्य है। उसी के लिए सारे का सारा क्रिया कलेवर खड़ा किया गया है जिसमें सत्संग भी आता है। रामायण पाठ, गीता पाठ, गायत्री जप, देवदर्शन, तीर्थ यात्रा आती है। ये सब के सब साधन हैं और साध्य हैं-अपनी अंतरात्मा का परिष्कार। अंतरात्मा का परिष्कार जिस हिसाब से किया जाता है, उसी हिसाब से भगवान और उनकी शक्तियाँ मनुष्य के नजदीक आती हुई चली जाती हैं। अध्यात्म इसी के लिए बनाया गया था। उसका मूल उद्देश्य आदमी को श्रेष्ठ मनुष्य बनाना है, क्रमशः जीवात्मा से महात्मा, महात्मा से देवात्मा और देवात्मा से परमात्मा बनाना है। इन सीढ़ियों को पार करते हुए चलना है। इसी मूल उद्देश्य को पूरा करने के लिए सारे के सारे धर्मशास्त्र बनाये गये, योगाभ्यास बनाये गये, तपश्चर्याएँ बनायी गयीं। साधना विज्ञान बनाये गये और सारे के सारा अध्यात्म का इतना बड़ा कलेवर बनाया गया। आपको इसके उद्देश्यों को पूजा-उपासना के उद्देश्यों को समझना चाहिए।

ब्रह्मवर्चस पैदा करने वाली गायत्री माता की छवि हमको यह बात बताती है कि हमारी आँखों में दिव्य तत्व का प्रवेश होना चाहिए। हमारी आँखों में जो चीज जैसी है, उसी तरह की देखने का माद्दा पैदा होना चाहिए। नारी क्या हो सकती है? नारी हमारी माँ हो सकती हैं, बेटी हो सकती है, बहिन हो सकती और उससे भी ऊँचा एक और स्थान है -उसको धर्मपत्नी कह सकते हैं। पत्नी नहीं धर्मपत्नी-जो हमारी सह अंगनी-सहधर्मिणी है, और समाज को श्रेष्ठ नागरिक देने के उद्देश्य से है। दोनों हाथों से जिस तरीके से नाव को चलाते हैं, उसी तरीके से स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर के जीवन की नौका को खेने के लिए और उसे पार करने के लिए खड़े हो जाते हैं। स्त्री हमारी सहधर्मिणी है, इसलिए वह देवी है और पूजा करने योग्य है। अगर यह वृत्ति अपने भीतर बसायी और बनायी जा सके तो हमारे मस्तिष्क की दिव्य सत्ता का अस्सी फीसदी बिखराव में जो नष्ट होता हुआ चला जाता है उसे बचाया-रोका जा सकता है और अपनी आँखों में वह तेजस पैदा किया जा सकता है जिसके आधार पर हम भगवान को मजबूर कर सकते हैं और भौतिक लोगों को भी प्रभावित कर सकते हैं। अगर अपनी आँखों के द्वारा जो बिजली नष्ट होती रहती है उसको रोक पायें तब मैं आपसे कहता हूँ कि आपकी और हमारी आँखों में गांधारी की तरीके से वह तेजस पैदा हो सकता है कि हम अपने बच्चों को अगर यह आशीर्वाद दें कि तेरा शरीर लोहे का हो जायेगा तो लोहे का बन सकता है और अपनी आँखों में वह ब्रह्मतेजस् पैदा किया जा सकता है जो गाँधी जी की आँखों में था। 32 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी स्त्री को बा कहना शुरू कर दिया था, इससे उनके आँखों में वह ब्रह्मतेजस् पैदा हुआ कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल को अपने वायसराय को यों लिखना पड़ा कि आप गाँधी जी से आँख मत मिलाना , उनकी आँखों में हिप्नोटिज्म पावर है। जिसको भी देख लेते हैं उसी को वह प्रभावित कर लेता है उसी को मैस्मराइज कर देता है और चंगुल में फँसा लेता है। आप में से हर आदमी की आँखों में वह मैगनेट पैदा हो सकता है जिससे आप अपने लोगों को, पड़ोसियों को और हर आदमी को प्रभावित कर सकते हैं, अगर आप अपनी आँखों की शक्ति का बिखराव रोक पायें तब।

मित्रो, गायत्री माता हंस के ऊपर सवारी करती है। हंस का मतलब उस प्रतीक से है जो हमारे भीतर एक वृत्ति पैदा करती है। संकल्प पैदा करती है कि जो आदमी हंस है गायत्री माता उसके ऊपर सवारी करेंगी। हंस गायत्री माता का प्रतीक है जो जवान स्त्री के प्रति भिन्न सैक्स के प्रति दिव्यता का पवित्रता का भाव पैदा करता है। हंस वह आदमी, जो मोती खाये-जिसके ऊपर दाग धब्बे न हो। जो दूध और पानी को अलग करना जानता हो अर्थात् जिसके रोम-रोम में इंसाफ भरा हुआ पड़ा हो। हंस मोती खाता है अर्थात् जो विवेकवान हैं वे मोती खाते हैं अर्थात् न्याय की कमाई खाते हैं, ईमानदारी की कमाई खाते हैं और शुद्ध चीजें खाते हैं। वह आदमी हंस है तो दूध और पानी में फर्क करते रहते हैं अर्थात् जो चीज सामने आती है उसमें से यह फर्क करते हैं कि उचित क्या और अनुचित क्या है? यह कसौटी है खरे-खोटे की पहिचान की। पुराने जमाने में जब सोने-चाँदी के सिक्के चलते थे, तब उनके कसौटी लगाई जाती थी कि कौन सिक्का खरा है और कौन खोटा। आपके पास जो भी घटना आये, परिस्थिति आये, व्यक्ति या विचार आये, प्रत्येक के ऊपर कसौटी लगाइये और देखिए कि क्या इसमें उचित है और क्या अनुचित है। कौन नाराज होता है और कौन खुश होता है-यह देखना आप बंद कीजिए। यह दुनिया ऐसे पागलों की दुनिया है कि अगर आपने यह विचार करना शुरू कर दिया कि हमारे हितैषी किस बात में प्रसन्न होंगे तो फिर आप कोई सही सही काम नहीं कर सकते। सही काम करना है तो फिर आपको यह बात उठाकर ताक पर रखनी पड़ेगी कि कौन नाराज होगा कौन नहीं। अगर आपको भगवान को प्रसन्न करना है और अपने ईमान को प्रसन्न करना है, जीवात्मा को प्रसन्न करना तो लोगों की नाराजगी और प्रसन्नता की बाबत विचार करना एक दम बंद कर देना पड़ेगा। हमको भगवान की प्रसन्नता की जरूरत है, लोगों की प्रसन्नता की नहीं। आपको सर्टीफिकेट लेना है तो अपनी जीवात्मा का लीजिए और किसी का मत लीजिए।

मित्रो, वह गायत्री मंत्र जिसका हम आपको जप कराते हैं-जिस गायत्री माता की उपासना करते हैं, वह सिर्फ उस आदमी के गले में माला पहनी जा सकती है जो सत्यवान है। सत्यवान और सावित्री की कथा आपने सुनी होगी कि उसने सत्यवान का वरण किया था और कहा था कि हमने अपनी मनमर्जी से ब्याह किया है। यह सावित्री और गायत्री एक ही शक्ति का नाम है। गायत्री और सावित्री वरण कर सकती हैं? वरदान दे सकती है? कहना मान सकती हैं? उत्तर है-हाँ। नंदा नाई के बदले में पैर दबाने भगवान गये थे और गायत्री माता भी आपको दूध पिलाने के लिए और आपके पैर दबाने भगवान गये थे और गायत्री माता भी आपको दूध पिलाने के लिए आ सकती हैं, आपका वरण कर सकती हैं, पर शर्त एक ही है कि आपको सत्यवान होना चाहिए। जो सत्यवान नहीं है जिन्होंने अपना सारा जीवन झूठावान बना करके रखा है। जिसके व्यवहार में झूठ, विचारों में झूठ, नियम में झूठ, रोम-रोम में झूठ भरा पड़ा है, उसका यदि ख्याल हो कि गायत्री मंत्र बोलने के बाद में किसी ऐसी शक्ति को गुलाम बना सकता है जो उसके मनमर्जी के मुताबिक जो भी मनोकामना होगी, उसको पूरा कर दिया करेगी, तो मेरे हिसाब से यह ख्याल गलत है। दुनिया में ऐसी कोई देवी नहीं है जो किसी पूजा-पत्री करने वाले को निहाल इसलिए कर दिया करे कि उसने इतना जप किया, धूपबत्ती जलायी या इतना हवन कर दिया है। हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया में नहीं है।

गायत्री क्या हो सकती है? उसका वाहन हंस क्या हो सकता है? उसका सार और आधार समझने की हमने भी कोशिश की है कि गायत्री उपासना से आपकी आँखों के अंदर दिव्यता, पवित्रता आनी चाहिए जिससे आपको प्रत्येक के भीतर देवत्व दिखता हुआ चला जाय। काँचन और कामिनी के प्रति अपना दृष्टिकोण साफ करके देखें, ताकि आपकी आँखों में अर्जुन और शिवाजी की तरीके से वह तेज आ जाये। अर्जुन को गाँडीव मिला था-आँखों का संयम कर लेने से और उर्वशी के प्रति अपनी मातृ बुद्धि रखने की वजह से और छत्रपति शिवाजी को देवी से तलवार मिली थी। तलवार और गाँडीव देवी-देवता देते हैं या नहीं, लेकिन वे साहसिक रूप में, आदर्शवादिता के रूप में चरित्रनिष्ठ के रूप में अवतरित अवश्य होते हैं और उसमें हजार हाथी के बराबर बल हो जाता है। अगर गाँडीव में तथा शिवाजी की तलवार में हजार हाथी के बराबर ताकत रही होगी तो मैं इसको अचंभा नहीं मानता, सब सही है। अंतरात्मा की महानता में कितना बल होता है-आप से मैं कैसे कह सकता हूँ। आपने तो देखा भी नहीं है। अगर आप अध्यात्म की छाया में खड़े हुए होते तो आप को मालूम पड़ता की गाँधी, बुद्ध, ईसा और विवेकानंद में कितनी बड़ी ताकत थी। अध्यात्म को आप समझते तक तो हैं नहीं। बार-बार वही माला, वहीं धूपबत्ती तक अपने आपको सीमित किये हुए हैं फिर आपको किस तरीके से आध्यात्मिक लाभ हो सकता है? गायत्री माता जिसकी हम आपको उपासना कराते हैं, अनुष्ठन कराते हैं, उसकी भक्ति के अगर आप इच्छुक है तो यहाँ से जाने से पूर्व कम से कम उसका सही स्वरूप अपनी अंतरात्मा में अवश्य निर्धारित कर लीजिए। इससे आपका फायदा तो होगा ही, साथ ही अध्यात्म के ऊपर जो एक कलंक आ गया है कि इसका कोई महात्म्य नहीं है कोई फल नहीं है, वह दूर हो जायेगा। प्राचीनकाल में केवल सात ऋषि थे और उन सात ऋषियों की वजह से सारी दुनिया में अध्यात्म जिंदा था। अगर दुनिया में सात आदमी भी अध्यात्मवादी रह जाय तो भी अध्यात्म जिंदा रहेगा। वही आदमी अध्यात्म के स्वरूप को जिंदा रखेंगे और उनकी वजह से ढेरों आदमी आ जायेंगे।

बेटे, हमने अपनी जिंदगी में सही अध्यात्म को समझने की और जीवन में उतारने की कोशिश की और ढेरों आदमी आ गये। हम से एक लाख आदमी वे बँधे हुए हैं जो अखण्ड ज्योति पड़ते हैं। अखण्ड ज्योति कौन-कौन पढ़ता है-अपने से बँधने का यह मैंने मानदंड रखा है। इससे एक लाख आदमी बँधे हुए हैं और एक लाख के सहारे, जो उनके स्त्री-बच्चे, पड़ोसी हैं सब मिलाकर 50 लाख हो जाते हैं। एक सही अध्यात्मवादी 50 लाख आदमियों को प्रकाश देने में समर्थ है। हम लोगों को यह यकीन दिलाने-विश्वास दिलाने में समर्थ है कि गायत्री मंत्र में कुछ जान है और लोगों ने देखा कि आचार्य जी गायत्री मंत्र का जप करते हैं, इस मंत्र में कोई शक्ति होती है। बस इसी एक वजह से इतने लोग इकट्ठे हो रहे हैं और अभी जब तक मैं जिंदा हूँ मैं समझता हूँ कि सारी दुनिया भर में करोड़ों आदमियों को गायत्री मंत्र का उपासक बनाकर जाऊँगा, क्योंकि मैं एक सही अध्यात्मवादी आदमी हूँ और लोगों को यह मालूम है कि उपासना का फल इनके पास है। इसलिए एक आदमी काफी है और सबके सब नास्तिक हो जायँ तो इससे कोई बनता बिगड़ता नहीं है उस एक आदमी की वजह से ही ढेरों आदमी अध्यात्मवादी बन जायेंगे। इसलिए मैं चाहता था कि अध्यात्म का गायत्री माता का असली स्वरूप आप समझ करके जायँ, तब काम चले। तब फायदा हो। तब उद्देश्य की पूर्ति हो। तब फिर आपको भी आनंद आये। भगवान को आनंद आये गायत्री माता को आनंद आये। फिर सबकी शिकायतें दूर हो जायेंगी। आपके पास वास्तविकता आ जायेगी और आपको जप करने के आधार और कारण मालूम पड़ते हुए चले जायेंगे।

हम आपको जो बार-बार जप कराते हैं, उसके कई प्वाइंट है। पहला प्वाइंट मैंने आपको शिक्षक-छात्र का पढ़ने-पढ़ाने का बताया है। दूसरा है-व्यायामशाला का। व्यायामशाला में आप जाइये और पहलवान जी से पूछिये-क्यों साहब, क्या हो रहा है? आप कितने दंड बैठक करते हैं। उत्तर मिलेगा 200-300 बैठक करते हैं। यह क्या हैं? ‘रेपिटेशन’ जिसे बार-बार करना पड़ता है। मिलिट्री वाले लेफ्ट राइट और कवायद के रूप में रोज रियाज करते रहते हैं। संगीत को जानने वाले रोज अपना रियाज करते रहते हैं। रियाज हाथ से गया कि संगीत हाथ से गया। स्नान करने और दाँत माँजने में हम रोज रेपिटेशन करते हैं। वर्तन साफ करते हैं तब, कपड़े साफ करते हैं तब यह सब रेपिटेशन है। मन के ऊपर जो मलिनतायें छायी हुई हैं, उसे धोने के लिए राम नाम के माध्यम से, बार-बार जप करने के माध्यम से रेपिटेशन करना पड़ता है। हम बार-बार भगवान को पुकारते हैं। गज और ग्राह की लड़ाई में गज की एक टाँग ग्राह के मुँह में चली गयी थी और ग्राह उसे घसीटता हुआ चला जा रहा था। जब गज ने देखा की हमारा कोई ठिकाना नहीं है, बचाव की कोई सूरत नहीं है, तो उसने आवाज लगायी और भगवान को 1008 बार पुकारा। गजराज के एक हजार आठ बार पुकारने पर भगवान दौड़े चले आये। बेटे, एक टाँग मुँह में पकड़कर घसीट ले गया था, कौन? ग्राह, किसकी? गज की और आप लोगों की तो सारी की सारी टाँगों को पकड़कर यह मगर घसीटे ले जा रहा है। एक-काम, दूसरा क्रोध, तीसरा-लोभ, चौथा-मत्सर, पाँचवाँ-अहंकार, छठा-मोह ये छह ग्राह कहाँ-कहाँ चिपके हैं-गर्दन पर, हाथ-पैर पर और पूँछ पर। ये सभी मुँह से पकड़कर घसीटे ले जा रहे है। इसलिए हम भगवान को पुकारते हैं कि हे भगवान! आप कहाँ हैं? आइये। हमारी जीवात्मा आप कहाँ हैं? आइये। हमारे जीवन लक्ष्य, हमारे उद्देश्य, हमारे जीवन, हमारे जीवन की महानता आप कहाँ हैं? हे हमारे आदर्श आप कहाँ हैं? आप आइये और हमको लेकर चलिए। बेटे, इसी के लिए हम जप कराते हैं आप से।

जप का मोटा उद्देश्य तो मैं कितनी बार आपको समझाता रहा हूँ। गायत्री मंत्र का टाइप राइटर से उदाहरण देता रहा हूँ। मंत्र का हमारी जीभ से उच्चारण होता है। इससे शक्ति केन्द्र खुल जाते हैं। बार-बार एक लयबद्ध और क्रमबद्ध शब्दों के उच्चारण करने से एक गति पैदा होती है-शब्द की गति। लोहे के पुल के ऊपर फौजी कदम से कदम मिलाकर पुल पर चलने से मना कर दिया जाता है। इसी तरह एक लयबद्ध, क्रमबद्ध दिशाबद्ध ढंग से उच्चारण किया हुआ शब्द इतना शक्तिशाली हो जाता है जिसे समझना मेरे लिए मुश्किल है। लेकिन साइंस के साथ मैं आपको समझा सकता हूँ कि बार-बार एक ही शब्द को एक ही गति से, एक ही चक्र को घुमा देने से ‘सेन्ट्रीफ्यूगल’ फोर्स पैदा हो जाती है। श्रेष्ठ शब्दों के गुँथन और बार-बार उनके उच्चारण के माध्यम से हमारे भीतर सेंटीफ्यूगल फोर्स पैदा हो जाती है। इसके अतिरिक्त बार-बार एक ही शब्दोच्चारण का एक साइकोलॉजिकल प्वाइंट भी है। पैरासाइकोलॉजी एवं मैटाफिजिक्स के हिसाब से हमारी चेतना चार हिस्सों में बंटी हुई है जिसे प्रशिक्षित करने के लिए चार आधार और स्तर हैं। पहला वाला स्तर जिसको हम लर्निंग कहते हैं। यह दिमाग का वह स्तर है जो केवल एक बात को समझा देने से जानकारी मिल जाती है-जैसे आपको बता दिया कि ऋषिकेश यहाँ से 22 मील है। इसकी जानकारी आपको हो गयी। दूसरी परत वह है जिसे हम ‘रिटेंशन’ कहते हैं अर्थात प्रस्तुत जानकारी के स्वभाव का अंग बना लेना। जिस बात को हम निरंतर करते रहते हैं, बहुत दिनों बाद वह हमारे स्वभाव में शामिल हो जाते हैं, आदत में शामिल हो जाती है। यह रिटेंशन कहलाता है। एक और परत है, जिसमें बहुत सी चीजें दबी हुई पड़ी रहती है और बड़ी मुश्किल से ही कभी-कभी याद आ जाती है। चेतना की इस परत में बहुत सारी चीजें दबी हुई पड़ी होती हैं जिन्हें हम भूल गये हैं। भूली हुई उन चीजों के ऊपर जब हम जोर देते हैं-उन पर प्रकाश फेंकते हैं तो वे स्मृतियाँ उठ कर खड़ी हो जाती हैं-जाग जाती हैं जिसे ‘रीकाल’ कहते हैं। आखिरी परत है-”रीकाग्नीशन” कहलाता है। एक और परत है, जिसमें बहुत सी चीजें दबी हुई पड़ी रहती है और बड़ी मुश्किल से ही कभी-कभी याद आ जाती है। चेतना की इस परत में बहुत सारी चीजें दबी हुई पड़ी होती हैं जिन्हें हम भूल गये हैं। भूली हुई उन चीजों के ऊपर जब हम जोर देते हैं-उन पर प्रकाश फेंकते हैं तो वे स्मृतियाँ उठ कर खड़ी हो जाती हैं-जाग जाती हैं जिसे रीकाल कहते हैं। आखिरी परत है-’रीकाग्नीशन’। रीकाग्नीशन उसे कहते हैं जिसमें कि मान्यताएँ, आस्थाएं, निष्ठाएं और विश्वास जम जाते हैं। एक के बाद एक परत मिलती हुई चली जाती है। जप के द्वारा, उपासना के द्वारा, अपनी जीवात्मा को उस स्थिति पर ले जाना पड़ता है जिसमें कि रीकाग्नीशन की स्थिति पैदा हो जाती है।

“सियाराम मय सब जग जानी” यह वाक्य हमने हजार बार पढ़ा और हजार बार सुना है, लेकिन हमारे भीतर न राम के प्रति भावना पैदा होती है और न सिया के प्रति भावना पैदा होती है। हर आदमी हमें शिकार मालूम पड़ता है, हर मर्द शिकार मालूम पड़ता है-हर औसत शिकार मालूम पड़ती है। जबान से हम कहते रहते हैं तो क्या बना? रीकाग्नीशन नहीं हो सका। मान्यताएँ, निष्ठाएं परिपक्व नहीं हो सकीं। निष्ठाओं को परिपक्व करने के लिए बराबर रस्सी से जिस तरीके से पत्थर के ऊपर निशान बनाने के लिए रगड़ करनी पड़ती है, उस तरीके से जप के द्वारा-उपासना के द्वारा बार-बार रगड़ बना करके अपनी अन्तःचेतना के ऊपर निष्ठाएं जमानी पड़ती है। इसलिए हम आपको जप कराते हैं इस तथ्य को आप लोग ध्यान रखना। आप जप करने का स्वरूप समझिये-कारण समझिये। अगर आप समझ जायेंगे तो ठीक है, फिर आपको जप करना हो तो करना और न करना हो तो मत करना, पर कम से कम आपकी मान्यता तो सही होनी चाहिए। मान्यताएं सही हो जायँ-जानकारी सही हो जाय तो ठीक है। तब आप समझना कि पचास फीसदी मंजिल पार कर ली। आगे आपकी मर्जी। आज की बात समाप्त । ॐ शाँतिः शाँतिः शाँतिः


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