अंत की अकुलाहट (Kavita)

January 1994

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की बहुत कोशिश बसा लूँ, साँस में ही नाथ तुमको। जब लगा तुम दूर हो, तो यह हृदय तज धीर, रोया॥

सुन रखा था-है तुम्हारा, रूप जग में-”रसौ वै सः”। इसलिए अंतःकरण को, स्नेह के रस में भिगोया॥

जो मिला उसको लिखा, तकदीर का कहकर सहेजा। हरेक प्राणी में तुम्हीं हो, यह समझ-अधिकाँश खोया॥

प्राप्त हो इस जन्म में वह, लेख था गत-कर्मफल का। सुख मिले आगे इसी से , आज अच्छा बीज बोया॥

क्या पता-”था जन्म पिछला क्या” अशाँति व क्लेश क्यों है। था सभी अज्ञात फिर भी, अश्रु जल से हृदय धोया॥

जब पड़ा मालूम तुम ही, व्याप्तं हो प्रति चर अचर में विश्व-मानव के लिए, मृदु-प्यार नस-नस में समाया॥

किंतु दौड़ो जब नियंता, बाँसुरी आकर बजाओ। विश्वमानव के हृदय का, स्नेह और सौजन्य सोया॥

-माया वर्मा


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