की बहुत कोशिश बसा लूँ, साँस में ही नाथ तुमको। जब लगा तुम दूर हो, तो यह हृदय तज धीर, रोया॥
सुन रखा था-है तुम्हारा, रूप जग में-”रसौ वै सः”। इसलिए अंतःकरण को, स्नेह के रस में भिगोया॥
जो मिला उसको लिखा, तकदीर का कहकर सहेजा। हरेक प्राणी में तुम्हीं हो, यह समझ-अधिकाँश खोया॥
प्राप्त हो इस जन्म में वह, लेख था गत-कर्मफल का। सुख मिले आगे इसी से , आज अच्छा बीज बोया॥
क्या पता-”था जन्म पिछला क्या” अशाँति व क्लेश क्यों है। था सभी अज्ञात फिर भी, अश्रु जल से हृदय धोया॥
जब पड़ा मालूम तुम ही, व्याप्तं हो प्रति चर अचर में विश्व-मानव के लिए, मृदु-प्यार नस-नस में समाया॥
किंतु दौड़ो जब नियंता, बाँसुरी आकर बजाओ। विश्वमानव के हृदय का, स्नेह और सौजन्य सोया॥
-माया वर्मा