द्वापर युग में मालब देश में शिखिध्वज नाम का एक राजा था। उसकी पत्नी सौराष्ट्र की राजकन्या थी-नाम था उसका चूड़ाला। बहुत समय तक दोनों उपभोग में निरत रहे। पीछे उनके मन में आत्म ज्ञान की आकाँक्षा हुई। दोनों अपने-अपने ढंग से इस प्रयास में अग्रसर रहने लगे। रानी ने संक्षेप में समझ लिया था कि दृष्टिकोण को बदल लेना और अंतःकरण को साथ लेना ही ब्रह्मज्ञान है। सो उस उपलब्धि पर वह बहुत प्रसन्न रहने लगीं। राजा को भी सिखातीं, तो वे स्त्री के प्रति हीन भावना रखने के कारण उसकी बात पर ध्यान नहीं देते थे।
राजा को कर्मकाण्ड परक तप-साधना में विश्वास था, सो वे एक दिन चुपचाप रात्रि में उठ कर वन चले गये। रानी ने योगबल से जान लिया, सो राजकाज स्वयं चलाने लगीं। राजा के कुछ काल के लिए प्रवास जाने की बात कह दी।
एक दिन उनने राजा से मिलने की इच्छा की, सो सूक्ष्म-शरीर से वहीं जा पहुँची, जहाँ राजा था। वेष ऋषि कुमार का बनाया। परिचय पूछने पर अपने को नारद पुत्र कहा। राजा के साथ उनकी ज्ञानचर्चा चल पड़ी। पर संध्या होते ही वे दुःखी होने लगे। बोले मुझे दुर्वासा का शाप लगा है। दिन में पुरुष और रात्रि में नारी हो जाता हूँ। आपके पास कैसे टिक सकूँगा।
राजा न कहा-आत्मा न स्त्री है, न पुरुष। न इनमें कोई छोटा है, न बड़ा। डरने जैसी कोई बात नहीं है। आप हमारे मित्र हो गये हैं। प्रसन्नतापूर्वक साथ में रहे। कई दिन बीत गये। मित्रता प्रगाढ़ हुई, तो स्त्री बने ऋषि कुमार ने कहा-मेरी कामना-वासना प्रबल हो रही है। रुका नहीं जाता। राजा ने कहा-आत्मा पर कुसंस्कार न पड़े, तो शरीर क्रियाओं में कोई दोष नहीं है। उनका काम-क्रीड़ा प्रकरण चल पड़ा। न राजा को खेद था, न पश्चाताप। अब वे स्त्री-पुरुष को समान मानने लगे थे।
चूड़ाला ने अपना रूप प्रकट किया और राजा को महल में घसीट लाई। स्त्री को हेय मानने और उसके परामर्श की उपेक्षा करने का हेय भाव उनके मन से विदा हो गया। राजा ने चूड़ाला को अपना गुरु माना और प्रसन्नतापूर्वक राजकाज चलाते हुये आत्म ज्ञान में लीन रहे।
वसिष्ठ ने कहा-हे राम! आत्मा एक है। स्त्री-पुरुष होने से कोई अंतर नहीं आता। दृष्टिकोण बदल जाने पर ही मनुष्य ब्रह्मज्ञानी हो जाता है।