मधु विद्या की संसिद्धि

January 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“आश्चर्य ! अरे यह क्या ?” उन्होंने हतप्रभ हो पानी हाथ में लिया। अद्भुत ढंग की भीनी-भीनी मनोरम सुगंध पानी से उड़ रही थी। सिप्रा के जल में तो ऐसी सुगंध नहीं। वह ठहर कर सोचने लगे। कुछ क्षणों के बाद उन्होंने परिचारिका को बुलाया । वह बेचारी दौड़ी-दौड़ी आयी, आते ही उससे पूछा- “आज तुमने मेरे नहाने के पानी में क्या मिला दिया है? पानी में बड़ी मोहक गंध आ रही है। किस की आज्ञा से तुमने यह किया?”

परिचारिका बेचारी हक्की-बक्की रह गई। कुछ पल बाद जब उसका डर कुछ कम हुआ तो उसने हिम्मत जुटाकर पानी को स्वयं सूँघा। पानी में सुगंध थी। उसे भी पानी सुगंधित लगा, किंतु उसने स्वीकार किया कि उसने पानी में कुछ नहीं मिलाया है। बड़ी विलक्षण समस्या खड़ी हो गई। चारों तरफ खोज-बीन होने लगी। आखिरकार सैनिक उन कहारों के पास पहुँचे, जो राजमहल के लिए प्रतिदिन पानी भरते थे। वहाँ मालूम पड़ा कि उस दिन सम्राट के यहाँ पानी का प्रबंध कहार की नवागत पुत्र वधु ने किया था।

सुनंदा नाम की वह नवीना कहार-वधु-सम्राट विक्रमादित्य के सम्मुख प्रस्तुत की गई। सम्राट ने साशीष-उससे पूछा “प्रसन्न रहो पुत्री, क्या तुम यह बता सकती हो कि पानी में ऐसी मनोरम गंध क्यों आती है? गंध है भी सर्वथा अपरिचित।”

सुनंदा आदर-मर्यादा में डूबी नीची निगाह किए खड़ी थी। सम्राट को प्रणाम करती हुई बोली- “अपराध क्षमा हो, राजाधिराज आज का पानी सिप्रा नदी का नहीं, मेरे मायके के एक कुंड का है। न जाने क्यों उस कुँड में आजकल सुगंधित पानी ही निकलता है। उज्जयिनी से थोड़ा दूर ही वह विरुपाक्ष कुँड है। “

सम्राट विक्रमादित्य की जिज्ञासा तीव्रतर हो उठी। आश्चर्य और घनीभूत हो गया- पूछा-आखिर क्या कारण है इसका? हो सकता है कि कुछ सुगंधित फूलों वाले पेड़, अथवा कुछ सुगंधित जड़ी-बूटियाँ उस कुँड को घेरे हों या वहाँ की भूमि में कोई ऐसा खनिज हो ?

आदर सहित मृदुल स्वर में उत्तर देते हुए सुनंदा बोली- “नहीं महाराज ! न तो कोई सौरभ वाले पेड़-पौधे वहाँ हैं और जहाँ तक मैं जानती हूँ वहाँ की भूमि में कोई सुगंधित खनिज भी नहीं है और न ही बाहर से सुगंध मिलाने का कोई भी प्रबंध उस कुँड में है।”

महाराज के साथ सारे अंतः पुर को सुनंदा के इस इनकार पर विश्वास नहीं हुआ। दुबारा पूछने पर उसने फिर से अपना वही कथन दुहरा दिया। सम्राट विक्रम बड़े चकित हुए यकीन आया और नहीं भी आया। फिर पूछा- “अच्छा इतना और बताओ कि उस कुँड में पानी किस स्रोत से आता है?”

उसने फिर सजज्ज भाव से कहा- “देव ! वह कुँड अपने में ही पूर्ण है। किसी स्रोत से पानी उसमें नहीं आता है। सुगंध पानी के भीतर से ही आती है। मेरी बात पर विश्वास कीजिए राज-राजेश्वर।”

मौन खड़े सारा वार्तालाप सुनते रहे महामंत्री भट्ट मात्र को थोड़ा रोष आया। तनिक तीव्र स्वर में उन्होंने पूछा- “जो कुछ तुम कह रही हो, बिलकुल सही कह रही हो। क्या सचमुच कोई ऐसा कुँड तुम्हारे मायके में है।”

भट्ट मात्र के आवेश ने कहार-वधु को थोड़ा भयभीत कर दिया। किंतु सत्य के समर्थन का प्रश्न सामने था। साहस स्वरित वाणी में वह स्पष्ट बोली- “मंत्रिवर सीधी-सादी बात है और सीधे-सादे ढंग से मैंने कही है। कोई राजनीतिक दांव-पेंच इसमें है नहीं। आप इतने आवेश में क्यों आ गए? मैं फिर आपके सम्मुख स्पष्ट करना चाहती हूँ कि मेरे मायके में, उज्जयिनी की सीमा से कुछ दूर विरुपाक्ष नाम का जल कुँड है। जिसमें आजकल सुगंधित जल भरा रहता है। इसमें मिथ्या कुछ नहीं है। यदि श्रीमान को विश्वास न हो तो सैनिकों को भेजकर परीक्षा करवा लीजिए। केवल तीन प्रहर का ही मार्ग है यहाँ से।”

तत्काल ही पाँच घुड़सवार सैनिक जल घट लेकर सुनंदा के द्वारा बताये मार्ग पर भेजे गए। सम्राट विक्रमादित्य की जिज्ञासा नगण्य चिंगारी से सुलगकर ज्वालामुखी बन गई थी। हजारों-हजार सुगंधों का उपयोग उन्होंने किया था, किंतु जैसी मोहक सौरभ उस पानी में से आ रही थी, वैसी उन्होंने आज तक कभी अनुभव नहीं की थी वरन् अलौकिक ही लगी उन्हें वह गंध।

सैनिक जब वापस लौटे, तो अपने साथ एक कहानी लेकर भी लौटे। उक्त कुँड का पता वे अवश्य लगाकर आये थे और साथ में पानी के घट भी भरकर लाये थे। महाराज के पूछने पर उन्होंने बताया- “धर्मावतार एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित वह विरुपाक्ष कुँड है। पहाड़ी पर कोई वृक्ष या वृक्षावली नहीं कुँड के पास एक पर्णकुटी है जिसमें एक युवा योगी ध्यानमग्न बैठा है। उसके रोम-रोम से तेज टपक रहा है। हमने उसे बहुत पुकारा किंतु उसका ध्यान भंग नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त हमने वहाँ कुछ नहीं पाया प्रभो। “

“सुवा योगी” इस शब्द को सुनते ही सम्राट की जिज्ञासा जैसे अनंत गुनी हो उठी। वे राजा होते हुए भी महान ताँत्रिक, योग के अप्रतिम जिज्ञासु और ज्ञान-विज्ञान के महापंडित थे। उनके बल विक्रम एवं बुद्धि-विवेक की कीर्ति समस्त भारत वर्ष में फैली हुई थी। वे जितने प्रजा वत्सल, रणशूर थे उतने ही महासाधक भी। राजनीतिक एवं शास्त्र ज्ञान में उनसे अधिक पारंगत राजा उस समय कोई न था। शकों का आतंक समाप्त कर तो जैसे उन्होंने प्रजा को नया जीवन ही दिया था। यही कारण था कि राज्य प्रबंध की दीक्षा लेने के लिए जहाँ कामरूप, प्रा. ज्योतिषपुर, तक्षशिला के राजकुमार उनके पास आते थे, वहाँ अध्यात्मिक ज्ञान की पिपासा शाँत करने के लिए योगी ताँत्रिक भी उन्हें घेरे रहते थे। लेकिन यह युवा योगी .... अद्भुत अस्फुट सा एक शब्द अनेक मुख से निकला।

एक पल का चिंतन दूसरे पल के निश्चय में बदला। रथ पर बैठकर चुने हुए सभासदों के साथ स्वयं विरुपाक्ष कुँड गए। जिज्ञासा तो संक्रामक ठहरी। सम्राट के पीछे दूरी अवंतिका और आस-पास से आये जिज्ञासु मनीषी और गृहस्थ थे। प्रायः जन हीन रहने वाला वह विरुपाक्ष शिखर आज स्वयं में नैमिषारण्य बन गया।

सम्राट ने पर्णकुटी में ध्यानस्थ बैठे उस युवक तपस्वी को देखा और देखते रह गए-सिन्दूरी लिए कर्पूर गौर देह-चौड़ा ललाट जिस पर लंबी जटाओं का मुकुट सुशोभित था, शाम्भवी मुद्रा में अर्धोन्मीलित नेत्र बस कुछ ऐसा ही लग रहा था जैसे भगवान महाकालेश्वर स्वयं देह धारण करके विराजमान हो गए हों। काफी देर बाद उस योगी ने आँखें खेली। राजा को आशीर्वाद देते हुए उसने मीठी वाणी में कहा- “नरोत्तम तुम्हारी जिज्ञासा का मुझे पता है। मैं शीघ्र ही बताता हूँ कि इस कुँड का पानी क्यों सुगंधित है?”

महाराज अभी तक मंत्रमुग्ध थे। उनके नेत्र उस सौंदर्य शिरोमणि योगी को निर्निमेष ताक रहे थे। ऐसी मीठी वाणी उन्होंने जीवन में कभी नहीं सुनी थी। मानवीय स्वर इतना मीठा हो सकता है, राजा ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। उस युवा योगी के कंठ से निकला प्रत्येक शब्द उन्हें अमृत का बिंदु लग रहा था।

राजा को अपने में डूबे देखा, उस तरुण साधक ने कहा- “राजन् ! व्यर्थ आश्चर्य में न डूबो सुस्थिर होकर सारा प्रसंग सुनो। इस कुँड में सुगंधित पानी क्यों है, इस प्रश्न के द्वारा किसी महान रहस्य का उद्घाटन नहीं होता है। बात बिलकुल सरल है। मेरे यहाँ आने से पूर्व इस कुँड का पानी सुगंधित नहीं था। मैं यहाँ-वेदों में वर्णित “मधु विद्या” की साधना करता हूँ। उसके प्रभाव से ही इस कुँड का पानी अलौकिक गंध से सुरभित और मधु से भी अधिक मीठा है। लो पानी का थोड़ा आचमन भी करो।”

तरुण योगी ने स्वयं अपने कमंडल में से राजा की हथेली में जल उड़ेला। जीभ पर रखते ही राजा का मुख खिल उठा। पानी में भी स्वाद होता है और इतना मधुर स्वाद, राजा के आश्चर्य की सीमा न रही। उन्होंने उस योगी के चरण पकड़ लिये। फिर अनुनय के साथ बोले- “प्रभो! लगता है आप साक्षात् देवाधिदेव है। हमें ज्ञान सुधा पिलाने के लिए कृपा करके धरती पर उतरे हैं-धन्य भाग है हमारे। अब विलंब न कीजिए देव, अपने उपदेशों से हमें कृतार्थ कीजिए। मधु-विद्या क्या है हमारे लिए स्पष्ट करने का अनुग्रह कीजिए।”

“मैं देवाधिदेव, नहीं राजन् उनका एक तुच्छ अनुचर हूँ। मेरा नाम-योगी गोरखनाथ है।” “तब-तब मेरे अग्रज महाराज भर्तृहरि के पथ को प्रशस्त करने वाले....” विक्रमादित्य ने अटकते-हुए वाक्य पूरा करने की कोशिश की। हाँ मैं ही। गोरखनाथ के इन शब्दों को सुनते ही सम्राट की श्रद्धा शंतगुणित हो उठी।

सम्राट की श्रद्धा को निहार कर महायोगी तेजोदीप्त आँखें अमित प्रेम से उद्भासित हो उठी। अनुकूलता की उस परितोष मुद्रा में वे साक्षात् शिव प्रतीत हो रहे थे। राजा की अशाँत-उत्सुकता का शमन करते हुए वे बोले- “ज्ञानसत्तम! मैं यहाँ निश्चल, भाव से दृढ़ संकल्प के साथ प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करता हूँ। मैं यहाँ बैठा-बैठा यह संकल्प सँजोता रहता हूँ कि इस भूतल के सारे जीव परस्पर प्रेम से रहें सुखों से घिरे सबके मन में सर्व कल्याण की कामना विकसित होती रहे। सबकी इंद्रियाँ सर्वहित के कामों में लीन रहें-पिंड का सुख समुद्र उमड़ा और ब्रह्माँड के महासागर के साथ एक रूप हो जाय। प्राणों की सारी शक्ति केन्द्रस्थ करके मैं सबसे शुभोदय की कल्पना करता हूँ-जीवन का सारा रस समेट कर सर्व श्रेय का दीपक जलाता हूँ, जिसकी किरणें शिव भावना का प्रकाश लेकर इस भूमंडल के कोने-कोने में पहुँचती हैं। पुण्यात्मा राजन् यही वह मधु विद्या है, जीव-जीवन के प्रति मधुमय भावना का संकल्प”।

सुना तो सम्राट के नेत्र हृदयावंग में छलछला आयें। भाव विह्वल कंठ से बोले- “भाग्यवान हूँ प्रभो-जो अग्रज की तरह मैं भी आपकी कृपा का पात्र बन सका। अब तक का जीवन या तो तंत्र साधनाओं में बीता, रणविद्या के हुँकारो अथवा राजनीतिक पहेलियों को सुलझाने में। योगी की गुह्यताओं से सुपरिचित नहीं हूँ देव! क्या मन में विकसित कामना अथवा भावना इतनी बलवती हो सकती है कि वह इस भौतिक प्रकृति को ही बदल दे? क्या अगोचर अव्यक्त का प्रभाव इतना गोचर प्रत्यक्ष भी हो सकता है कि असंभव भी संभव प्रतीत होने लगे।”

योगी गोरखनाथ का ज्योति मुखमंडल मुसकान के माधुर्य में अरुणोदय की भाँति उठा। अतुल मधुरिमा को शब्दों से सींचते हुए वे बोले- “यह चमत्कार नहीं है राजन् संकल्प की सरल सिद्धि मात्र है। तुम अपने आस-पास जो कुछ देख रहे हो वह संकल्प के व्यक्त रूप के सिवाय और क्या है? दृढ़ संकल्प करके देखो राजन्! जो भी तुम्हारी कामना होगी, पूरी होगी। मेरी कामना तो आत्मा के सौरभ की कामना है। मैं संपूर्ण शक्ति एकत्र करके इस कामना के अव्यक्त प्रवाह को धरती के चारों छोरों पर भेजता हूँ और चित की अविचल एकाग्रता में, मैं स्वयं विस्मित होकर देखता हूँ कि मेरी अरुण भावनाएँ रूप ग्रहण कर रही हैं। इसके उपराँत जब शक्ति और स्थित हो जाती है तो मैं प्रत्यक्ष देखने लगता हूँ कि मेरी सर्वहित कामना एक विशाल हिलोर की तरह सारे संसार को अपने प्रवाह में सींच रही है। वीर विक्रम! इस जल में जो मिठास और सुगंध तुम पाते हो, वह मेरे मन की मंगल भावना का ही भौतिक रूप है। सब के लिए की गई कल्याण कामना के ही संसर्ग का फल है। मालवेश! तुम भी अपने प्रजाजनों के साथ इस मधुविद्या की साधना करो। तुम सबकी समवेत साधना धरती में मधुवाता ऋ तायते....मधुछरंति सिंधपः बनकर मुखरित होगी।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118