तत्वबोध का परमानंद

January 1994

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“आत्म - जाग्रति के लिए अंतः करण को निर्भय, निष्काम एवं संपूर्ण समर्पण को साधना करनी पड़ती है। वत्स ! जिस दिन तू इस तत्वज्ञान को समझ लेगा, उस दिन तेरी अवरुद्ध आत्म-प्रगति के द्वार अपने आप खुल जाएँगे ।”

बहुत दिन तक आत्मशोधन करते रहने के बाद भी जब साधक को सफलता के दर्शन न हुए, तब उसे गुरुदेव के दस शब्दों का स्मरण हो आया। किसी समय उन्होंने कहा था । पुत्र ! जब तुम्हें ऐसा लगे कि इन शब्दों का रहस्य समझ में नहीं आ रहा, तक तुम प्रकृति की शरण में चले जाना। वहाँ तुम्हें आत्म जाग्रति के लिए प्रकाश मिल जाएगा।

सालों-साल आश्रम के जीवन में बँधे रहने वाले साधक ने उन वचनों का मर्म जानने का निश्चय किया। आश्रम जीवन का परित्याग कर वह प्रकृति की गोद में विचरण करने वाला पथिक बन गया। पथिक-साधक।

बरसात के दिन थे। मेघों से आसमान घिरा था। बूंदें अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर उत्तुँग शिखर को ढहा देने में लगी थीं। प्रत्येक आघात के साथ मिट्टी का एक कण टूट जाता और ढाल में बहता-बहता नीचे जा गिरता। पर्वत की देह छिन्न-विच्छिन्न हो चली थी। पत्थर और वृक्ष नरकंकाल की नसों और हड्डियों की तरह लगते थे। इतने कुटिल आघात झेलने वाले शिखर के प्रति बूँदों के मन में किंचित मात्र करुणा भी नहीं झलक रही थी।

पथिक की जिज्ञासा उभरी-”पर्वतराज ! नन्ही-नन्ही बूँदें तुम्हें चुकाए दे रही हैं, समूचा बदन गलता जा रहा है, फिर आपको इन बूँदों से बचा लो तात् ! अन्यथा तुम्हारा तो अस्तित्व ही कुछ दिन में समाप्त हो सकता है।”

बादलों की गर्जना में अपनी हँसी की गूँज मिलाते हुए अडिग शैल शिखर ने उत्तर दिया- “साधक ! तुम इतना भी नहीं समझ पाए कि परिस्थितियों के आघात मनुष्य को चुकाते नहीं, ऊँचे उठाते हैं । तुम देख नहीं रहे, मेरा शरीर तो अवश्य छिला जा रहा है, पर बूंदों के आघात जितने तीव्र होते हैं, मेरे अंतर की शक्ति और उल्लास उतना ही उद्दीप्त होता चला जाता है। तुम्हें लगता है मैं घट रहा हूँ , पर मैं प्रति वर्ष कुछ न कुछ बढ़ ही जाता हूँ। बूँदों के जिन आघातों को तुम मेरे शरीर को नष्ट करने वाला समझते हो, वस्तुतः उन्हीं के कारण में हरियाली से सुशोभित हो पाता हूँ।”

पथिक बोला- “पर्वत श्रेष्ठ ! धन्य है तुम्हारी निर्भयता। निस्संदेह निर्भय हुए बिना, आघातों से टकराए बगैर कोई ऊँचा नहीं उठ सकता उत्कर्ष नहीं पा सकता ।”

साधक आगे बढ़ा-दिन भर अविराम चलते रहने से उसके पाँवों में थकान आ गई थी। सरिता की जल धारा के मधुर नाद ने उसे आकर्षित किया। वह एक किनारे पर जाकर चुपचाप बैठ गया। पैर पानी में डाल दिये। बड़ी शीतलता मिली उसे, पर साथ ही आत्मग्लानि भी हुई, कि मैंने क्यों इन पर पाद प्रहार किया। स्वयं के इस दुर्व्यवहार पर उसे दुःख भी हुआ साथ ही जिज्ञासा भी जगी-कि पाँव की ठोकर सहने के बाद भी नदी ने से न तो कुछ बुरा कहा और न ही उसे चोट पहुँचाई उसे शीतलता दी, थकान मिटाई ।

“तुम इतनी सरल क्यों हो सरिते ?” उसने सवाल किया-सवाल सुनकर नदी से एक मधुर ध्वनि उभरी - “बंधु ! क्षुद्र जनों को भी हीन न समझूँ इसलिए । तुम नहीं जानते जो जैसा देखता है, उसका अंतरंग भी वैसा ही बनता है, यदि मैं औरों को छोटा मानूँ तो हर किसी से लड़ने झगड़ने वाली जमीन की क्षुद्रता में बदल जाऊँ । मैंने नियम बना लिया है कोई कुछ भी करे, मुझे तो अपनी उपकार भावना अक्षुण्ण बनाए रखकर उसका भला ही सोचना और करना चाहिए।”

“परंतु देवी ! रुकती तो तुम कहीं एक पल भी नहीं, आखिर इतनी अविराम गति क्यों?” नहीं का स्वर पहले की तरह मधुर था - “इसलिए कि बल के चरणों में मेरा सिर न नीचा हो । शक्ति और शुद्धता के लिए निष्कामता आवश्यक थी, उसी महाव्रत का पालन कर रही हूँ ।”

साधक वहाँ से आगे बढ़ता हुआ समुद्र के किनारे पहुँचा । दो पहर बीत चुकी थी, पर अभी आतप की तीव्रता बरकरार थी। जल वाष्पित होता जा रहा था। पथिक की जिज्ञासा मुखर हुई - “महासिंधु ! इस तरह तो तुम्हारी समूची जल राशि ही भाप बनकर उड़ जाएगी। तुम आतप का प्रतिरोध क्यों नहीं करते। निरंतर जलते रहने में भी कुछ सुख मिलता है क्या ?”

समुद्र हंसने लगा, बोला- “तुम भ्रमित हो गए हो पथिक । मैं खो कहाँ रहा हूँ , भला । मैं जलूँ नहीं तो भाप कहाँ से बने, भाप न हो तो जल कहाँ से बरसे, जल न गिरे तो वृक्ष-वनस्पतियों और संसार को जीवन कहाँ से मिले? साधक ! मुझे जो जल मिलता है, यह भी तो मेरे उत्सर्ग का ही प्रतिफल हैं । मेरी तो इच्छा है कि और वेग से जलूँ ताकि संसार को और भी तीव्रता से पोषण मिले ।”

साधक तत्वबोध के आनंद में झूम उठा। आत्म जाग्रति के लिए निर्भयता अनिवार्य है, निष्कामता होनी चाहिए अपने पास जो कुछ है, उस संपूर्ण को विश्व हित में जला देने वाले ही पूर्णता का आनंद ले सकते हैं । इस मर्म को समझकर वह अंतिम साधना के लिए गुरु चरणों में वापस लौट गया।


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