नगर सेठ माणिक ने जगद्गुरु शंकराचार्य से पूछा- “आचार्य वर ! आप तो वेदाँत के समर्थक हैं। भगवान् को निराकार सर्वव्यापी मानते हैं। फिर मंदिरों की प्रदर्शनात्मक मूर्ति पूजा परक प्रक्रिया का क्यों समर्थन करते हैं?”
आचार्य बोले- “वत्स ! उस दिव्य सर्वव्यापी चेतना का बोध सबको अनायास नहीं होता। देवालयों में प्रातः संध्या संधिकाल से, शंख घंटों के नाद के साथ दूर-दूर तक उपासना के समय का बोध कराया जाता है। घर-घर उपासना के योग्य उपयुक्त स्थल नहीं मिलते, मंदिर के संस्कारित वातावरण में कोई भी जाकर उपासना कर सकता है। नैतिकता, सदाचार और श्रद्धा के निर्झरों के रूप में देवालय अत्यंत उपयोगी हैं। जन-साधारण के लिए यह आवश्यक है।”