बुद्धं शरणं गच्छामि (Kahani)

January 1994

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संत का बाना भर पहनने से जब किसी की वृत्ति बदल सकती है, तो वैसे कर्म में प्रवृत्त होने पर तो क्या नहीं हो सकता? एक राजा कोढ़ी हो गया। वैद्यों के उपचार बताया कि-राजहंसों का माँस खाया जाय। हंस मान-सरोवर पर रहते थे। वहाँ तक कोई पहुँचता न था। साधु-संतों की ही वहाँ तक पहुँच थी। कोई संत तो पाप कर्म के लिए तैयार न हुआ, बहेलियों ने संत का बाना पहनकर वहाँ जाना और पकड़ना स्वीकार कर लिया।

मानसरोवर के हंस साधुओं से हिले रहते थे। उन्हें देखकर वे उड़ते नहीं थे। बहेलियों की घात लग गई और हंस पकड़ लिये, राजा के सामने प्रस्तुत कर दिये। राजा सोच में पड़े कि संत श्रद्धा से अभिप्रेत इन भावुक हंसों का स्वार्थवश वध करना अनुचित है। दया उमड़ी और हंसों को मुक्त कर दिया गया। राजा का दूसरा उपचार चलने लगा। इस घटना का बहेलियों पर भी प्रभाव पड़ा। वे सोचने लगे जिस संत वेष के लिए हंसों तक में इतनी श्रद्धा है, उसे ऐसे हेय प्रयोजनों के लिए कलंकित नहीं करना चाहिए। बहेलियों ने संन्यास ले लिया और वे सब संत बन गये।

भगवान बुद्ध कपिलवस्तु पधारे। यशोधरा का त्याग ही उन्हें इस स्थिति तक पहुँच पाया था यह भी उन्हें स्मरण था। वे महल पहुँचे और यशोधरा से पूछा-’यशोधरे! कुशल से तो हो?’

‘हाँ स्वामी’ चिर प्रतीक्षित स्वर सुन कर यशोधरा का हृदय गदगद हो उठा। ‘स्वामी नहीं, भिक्षु कहो यशोधरे! मैं अपना धर्म निभाने आया हूँ। बोलो तुम कुछ भिक्षा दे सकोगी?’ यशोधरा विचारमग्न हो उठी। अब क्या बचा है देने के लिए? अपने दाम्पत्य की स्मृतियों को छोड़कर और कुछ भी तो नहीं है, जो देने योग्य हो। कुछ क्षण तक विचार करते रहकर उसके चेहरे पर निश्चय के भाव उभरे और बोली-”भंते! अपने पूर्व के संबंधों को ही दृष्टिगत रखकर क्या आप भी कुछ प्रतिदान कर सकोगे?” “भिक्षु-धर्म की मर्यादा का उल्लंघन न होता होगा, तो अवश्य करूंगा आर्ये,” बुद्ध ने उत्तर दिया। यशोधरा ने अपने पुत्र राहुल को पुकारा और तथागत की ओर उन्मुख होकर बोली, “तो भगवन्! राहुल को भी अपनी पितृ परंपरा निभाने देकर उसे अपना अधिकार पाने दीजिए।” और फिर राहुल से बोली, “जाओ बेटा! अपनी पितृ परंपरा का अनुकरण करो। बुद्ध की शरण में, संघ की शरण में जाओ।”

राहुल के समवेत स्वरों में गूँज उठा, “बुद्धं शरणं गच्छामि” यशोधरा एवं सिद्धार्थ की श्रेष्ठ संतति राहुल भी इसी परंपरा में सम्मिलित हो गया जिसे स्वयं सिद्धार्थ ने-गौतम बुद्ध ने आरंभ किया था। माता को इसमें और भी अधिक श्रेय जाता है जिसने पति के अभाव में भी अपनी संतति को उच्चतम संस्कार दिये।


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