प्रार्थना की चमत्कारी शक्ति

January 1994

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आत्म-चेतना को परमात्मा सत्ता से जोड़ने, उससे वार्तालाप करने तथा उसमें निवास करने का सर्वोत्तम उपास प्रार्थना हैँ । यह वह उपक्रम है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी अंतरात्मा की भूख को मिटाता है। शरीर की क्षुधा अन्न-जल से मिटती है और उससे उसको शक्ति मिलती है। उसी तरह अंतरात्मा अपनी आकुलता को मिटाने, अपने ऊपर चढ़े मल-विशेषों-कषाय-कल्मषों को हटाने और उसमें बल तथा प्रकाश भरने, अपूर्णता से पूर्णता की ओर ले चलने की प्रार्थना भगवान से करता है। पितु, मातु-सहायक, स्वामि-सखा की भावना रखकर आराध्य के सम्मुख की गयी प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती है। परमात्म चेतना को जहाँ-कहीं जब-कभी भी श्रद्धासिक्त भावभरी हार्दिक अभिव्यक्ति मिलती है तो उनकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता उभरे बिना रह नहीं सकती। ऐसी अनेकों घटनायें अनादि काल से लेकर अब तक के पुराण एवं इतिहास के पृष्ठो पर अंकित हैं जिसमें सनातन सत्ता के मानवी प्रार्थना पर द्रवीभूत होते और उसकी सहायता मिलते रहने को प्रमाणित करते हैं।

सुप्रसिद्ध मनीषी नार्मन विन्सेन्ट पील ने अपनी कृति “ट्रेजरि ऑफ कँरेज एण्ड कान्फीडेन्स” में कहा है कि जीवन को पवित्र, प्रखर, सुखमय एवं अतीन्द्रिय क्षमता संपन्न बनाने के लिए नियमित रूप से प्रार्थना करना अनिवार्य है। प्रार्थना न केवल पूजा-अर्चना का विषय है, अपितु आत्मसत्ता को विराट् चेतना के साथ जोड़ने की प्रचंड प्रक्रिया है। प्राण ऊर्जा उत्पन्न करने की-शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन की सर्वोच्च साधना है। शारीरिक दृष्टि से इसका प्रभाव हारमोन ग्रंथियों पर तो पड़ता ही है, साथ ही मानसिक स्तर को भी उत्कृष्ट चिंतन की दिशाधारा मिलती है। विधेयात्मक दृष्टिकोण इसी की परिणति है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण के समतुल्य ही प्रार्थना भी ईश्वरीय सहायता को अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम है। भौतिक-वेत्ताओं एवं चिकित्सा विज्ञानियों ने भी अब प्रार्थना को समर्थ अध्यात्मोपचार के रूप में मान्यता प्रदान की है। उनका मानना है कि प्रार्थना से न केवल उदासीनता और निराशा जन्य लाइलाज मानसिक व्याधियों वरन् असाध्य समझी जाने वाली शारीरिक बीमारियों का निदान भी प्रार्थना की शक्ति से संभव है। पाश्चात्य देशों में इसके लिए नियमित रूप से सामूहिक प्रार्थना सभायें आयोजित की जाती है और उनके प्रतिफल भी उत्साह वर्धक रूप से सामने आते हैं।

इस संदर्भ में मूर्धन्य विद्वान फ्रैंक एडवर्ड्स ने अपनी पुस्तक “स्ट्रैन्ज वर्ल्ड” में अमेरिका के टेनेसी राज्य के शेखुड स्थान की माग्रेंट-जेक्शन नामक एक बालिका का उदाहरण प्रस्तुत किया है। मार्गेट तब दो ही वर्ष की थी कि अचानक बीमार पड़ गयी। चिकित्सकों ने बहुत जाँच पड़ताल की पर रोग की भयंकरता उनके समझ में न आ सकी। अतः उसे नेशविले के वाँडरबिल्ट अस्पताल ले जाया गया। महीनों की सघन चिकित्सा के बावजूद भी उसको अंधी होने से बचाया न जा सका। बालिका अपने घर लौट आयी।

पता नहीं यह बीमारी आगे चलकर क्या स्वरूप धारण करे, यह भय मार्गेट के पिता को जो एक विद्युत कर्मी था, सताता रहता। अतः उन्होंने अपनी यह व्यथा एपिसकोपल मिशन के पादरी रेवरेण्डजाँन हस्के को बतायी और कहा कि इस लड़की की बीमारी का निदान डाक्टर ठीक से नहीं कर पा रहे हैं, क्या किया जाय? पादरी ने लड़की के माता-पिता को प्रार्थना की शक्ति में विश्वास कराते हुए नियमित रूप से लगातार प्रार्थना करते रहने का सुझाव दिया। अब तो मार्गेट सहित उसके माता-पिता दो वर्ष तक नियमित रूप से उसकी आँख की दृष्टि लौट आने के लिए प्रार्थना करते रहे। बीच-बीच में पादरी महोदय भी सामूहिक प्रार्थना में सम्मिलित हो जाते। दो वर्ष पूरे होने को आये ही थे कि एक दिन फिर से पूर्व हुई बीमारी का पुनरावर्तन हुआ जिसके कारण उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। चार वर्ष की मार्गेट पर फिर अनेकों परीक्षण किये गये, पर इस बार भी रोग का सही पता लगा पाने में चिकित्सकों को असफलता ही हाथ लगी। रोग को असाध्य मानकर उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी। नेत्रहीन लड़की को भाग्य-भरोसे छोड़कर उसके माता-पिता साथ लेकर घर आ गये और उसकी स्वास्थ्य रक्षा के लिए अपने उपासना गृह में बराबर ईश्वर से प्रार्थना करते रहे।

कुछ ही दिन बीते थे कि एक रात्रि मार्गेट के पिता ने सिगरेट सुलगाने के लिए ज्यों ही माचिस जलाई उसके प्रकाश को देखकर वह उसे पकड़ने को दौड़ी लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि ढाई वर्ष की लंबी बीमारी के पश्चात् मार्गेट की आँखों की रोशनी लौट आयी थी। इस घटना के बाद उसकी दृष्टि में सुधार होता गया और कुछ ही महीनों में वह पूर्ण स्वस्थ हो गयी। आँखों पर किसी प्रकार के चश्मे की भी आवश्यकता नहीं रही। पादरी हस्के ने इस घटना को प्रार्थना की शक्ति का जीवन्त उदाहरण बताया है और कहा कि मनुष्य यदि अपने भीतर ईश्वरीय शक्ति में सच्ची श्रद्धा उत्पन्न कर सके तो उस आधार पर बड़े-से-बड़े-संकटों पर भी विजय प्राप्त कर सकता है।

इसी तरह की एक अन्य घटना का वर्णन “बिआँन्ड रीजँन मिरेकल्स कैन चेन्ज योर लाइफ” नामक अपने ग्रंथ में पी. राबर्टसन ने किया है। बारबरा कास्की नामक एक किशोरी 6 वर्ष से “मल्टिपिल स्केलोरिसिस” नामक महाव्याधि से ग्रस्त थी जिसकी चिकित्सा अमेरिका के इलिनोइस राज्य के एक अस्पताल में चल रही थी। उसकी देखभाल कर रहे उसी राज्य के प्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डॉ. थामस मारसल के अनुसार यद्यपि बारबारा मरणासन्न स्थिति में पहुँच चुकी थी, फिर भी उसकी आँखों में जिजीविषा की चमक विद्यमान थी। उन्होंने अपनी सूझबूझ के सहारे निराशा के घने अंधकार में डूबते हुए कास्की के माता-पिता को धैर्य बँधाते हुए कहा कि जब जगत के सब दरवाजे बंद दीखते हों तब अदृश्य चेतना के महासागर से आवश्यक सहायता खींच बुलाने के लिए ईश प्रार्थना ही एक मात्र कारगर उपाय-उपचार शेष रह जाता है। कारण बारबारा की स्थिति भी ऐसी ही हो गयी थी जिसमें मानवी प्रयत्नों की चिकित्सकीय उपचारों की इति श्री हो चुकी थी। मानवी बुद्धि के माध्यम से जो कुछ भी संभव था, अस्पताल में किया जा चुका था।

डॉ. थामस न केवल भौतिक चिकित्सा विज्ञानी थे, वरन् प्रार्थना की शक्ति में उनका अटूट विश्वास था जिसके माध्यम से वे अब तक सैकड़ों मरीजों को स्वस्थ करने की ख्याति अर्जित कर चुके थे। उन्होंने लड़की के पिता का ध्यान अस्पताल की मुख्य दीवाल पर लिखे हुए महाकवि टेनीसन के एक महावाक्य की ओर आकर्षित किया जिसमें लिखा था-’साँसारिक मनुष्य जो सोचता और करता है, उससे कहीं अधिक समर्थ शक्ति प्रार्थना में है।’ चूँकि बारबारा के रोग को चिकित्सकों ने असाध्य घोषित कर दिया था, अतः उन्होंने उसके माता-पिता को अध्यात्मोपचार की ओर प्रेरित किया। अस्पताल में ही टी. वी. पर प्रतिदिन ‘प्रार्थना द्वारा रोगोपचार’ विषय पर कार्यक्रम दिखाये जाने लगे कि किस प्रकार रोगी औषधि उपचार की अपेक्षा प्रार्थना की अध्यात्मोपचार प्रक्रिया द्वारा अनेक गुनी शक्ति प्राप्त करता और पूर्ण निरोग हो जाता है। इस प्रक्रिया से बारबारा का खोया आत्म विश्वास वापस लौटने लगा और वह स्वयं प्रार्थना के उन शब्दों को गुनगुनाने लगी। अब उसके मन में जिजीविषा की आकाँक्षा प्रबल हो उठी थी और नर्स की सहायता से प्रतिदिन सामूहिक प्रार्थना में सम्मिलित होने लगी। एक वर्ष तक यही क्रम चलता रहा।

अमेरिका के इलिनोइस प्राँत में डॉ. एफ. डिविनिटी पेट राबर्टसन ने ‘क्लब 700’ नामक एक संस्था स्थापित की है। यह संस्था टी. वी. प्रसारण के माध्यम से आध्यात्मिक रोग शमन के विभिन्न कार्यक्रम प्रसारित करती है। रोगियों से मुलाकातें तथा उनके उपचार, प्रार्थना सभाओं का आयोजन आदि की जानकारी केबल टी. वी. के जरिये लगभग ढाई करोड़ व्यक्तियों तक पहुँचाई जाती है। बारबारा के लिए भी उन्होंने सामूहिक प्रार्थनाएँ आयोजित करनी आरंभ की दी जिसमें उसके साथ सैकड़ों लोग शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रार्थनाएँ करने लगे। फलस्वरूप जो लड़की पहले बिस्तर से उठ नहीं पाती थी, धीरे-धीरे क्रमशः ठीक होने लगी, मल्टिपिल स्केलोरिसिस नामक जिस महाव्याधि से वह पीड़ित थी, उसका लक्षण ही यह है कि जिस प्रकार किसी विद्युत उपकरण में जिन तारों से बिजली पहुँचायी जाती है, उन पर चढ़ी प्लास्टिक खोल यदि जल जाती है तो दो तार जहाँ सटे हुए - होते हैं, वहाँ शार्ट सर्किट होने लगती है और शक्ति स्रोत से संबंध विच्छेद हो जाने के कारण उपकरण निरुपयोगी हो जाता है। इसी प्रकार मस्तिष्क से विभिन्न अंगों को नियंत्रण में रखने के लिए संकेत स्नायु-मंडलों के माध्यम से दिये जाते हैं। इन स्नायु तंतुओं पर भी ‘माइलिन’ नामक एक वसीय परत चढ़ी होती है जो इस बीमारी के कारण गलने लगती है। बारबरा के स्नायु तंत्र की माइलिन भी गलने लगी थी। फलस्वरूप हाथ-पैरों से लेकर क्रमशः सभी शारीरिक प्रणालियाँ एक के बाद एक बेकार होती चली गयीं। साँस लेना तक दूभर हो गया था अतः कृत्रिम श्वास पर इसे जीवित रखा जा रहा था। 6 वर्षों तक वह इसी प्रकार कृत्रिम यंत्रों के माध्यम से किसी प्रकार जीवित रही। सातवें वर्ष सामूहिक प्रार्थना की शक्ति ने अपना चमत्कारिक प्रभाव दिखाना आरंभ कर दिया। सर्वप्रथम फेफड़ों की क्षमता धीर-धीरे लौटने लगी। इसके बाद कैथेटर की सहायता में भी कमी आने लगी। जैसे-जैसे प्रार्थना में उसकी अभिरुचि बढ़ती गयी, आत्मविश्वास जगने लगा, त्यों-त्यों उसके स्नायु-मंडल की माइलिन परतें जो विगलित हो गयी थी, पुनर्स्थापित होने लगी और चिकित्सकों के प्रयत्न भी सफल होने लगे।

पी. राबट्सन के अनुसार बारबरा के ही शब्दों में ‘सात जून सन् 1971 को जब डॉ. थामस मुझे देखने आये थे तब मैंने जीने की आशा छोड़ दी थी, लेकिन उनकी सद्भावना एवं विशाल चिकित्सकीय अनुभव के साथ प्रार्थना शक्ति को जोड़ने की अद्भुत कुशलता ने मुझे नया जीवन प्रदान किया। ‘मेडिकल साइंस’ के ‘स्प्रिचुअल साइंस’ का बेमिसाल समन्वय, लोगों की सद्भावना तथा विश्वासपूर्वक सच्ची लगन से अंतःकरण कर पुकार का मनोविज्ञान क्या-क्या चमत्कार नहीं कर सकता है, अपने आप में एक अवर्णनीय सत्य है। ठीक दस वर्ष बाद अर्थात् 7 जून 1981 में सोलह वर्ष की उम्र में वह पूर्ण स्वस्थ हो गयी और चलने फिरने लगी। डॉ. थामस सहित सभी चिकित्सकों के लिए यह सुखद आश्चर्य था। सभी ने उस परमसत्ता की अनुकंपा के प्रति जो अहो-भाव अनुभव किया था, वह वर्णनातीत है।

प्राचीनकाल से ही प्रायः सभी देशों में इस प्रकार की असाध्य बीमारियों में आध्यात्मिक उपचारों का सहारा लिया जाता रहा है। यूरोप, अमेरिका आदि पाश्चात्य देशों इंद्रियगम्य उपचारों के अतिरिक्त ‘फेथ हीलिंग‘ जैसे अध्यात्मोपचारों में प्रार्थना के बल पर अनेकानेक आधि-व्याधियों से मुक्ति दिलायी जाती है। इसके लिए अशरीरी आत्माओं की भी सहायता ली जाती है। उदाहरण के लिए इटली की एक घटना को लिया जा सकता है। इस देश के ब्रसिया काउन्टी के मोन्टीकियारों नगर में पेरिनागिली नामक एक नर्स रहती थी। 13 जुलाई 1947 के दिन अचानक उसने हवा में तैरती हुई एक दिव्य नारी को देखा जिसके सीने पर सफेद, पीले और लाल रंग के तीन फूल थे। उस देवी ने उसे बताया कि यदि लोग सामूहिक प्रार्थना करके रोगग्रस्त व्यक्तियों की आधि-व्याधि दूर करने का सच्चे हृदय से संकल्प करेंगे तो उनकी बीमारियाँ दूर होने लगेंगी। नर्स ने जब यह बात अस्पताल में बतायी तो वहाँ का सारा स्टाफ और रोगियों के मित्रों ने मिलकर सामूहिक प्रार्थना सभा का आयोजन किया जिसका आश्चर्यजनक सत्परिणाम निकला। रोगियों में नयी आशा की किरणें उभरने लगीं जिसकी कोई उम्मीद तक नहीं थी। तब से न केवल उस अस्पताल में वरन् पूरे नगर में उस दिन सामूहिक प्रार्थनाएं आयोजित की जाती हैं जिसे ‘रोजामिस्टिका’ पर्व नाम दिया गया है। देवी सहायता को खींच बुलाने का प्रार्थना से बढ़कर दूसरा कोई कारगर उपास नहीं है।


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