संयम बरतें, संपन्न बनें

April 1994

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चिंतन की उत्कृष्टता को अध्यात्म की भाषा में योग कहा गया है। इसके लिए ध्यान-धारणा, स्वाध्याय-सत्संग, चिंतन-मनन जैसे उपाय अपनाने पड़ते हैं। जीवन का दूसरा पक्ष है चरित्र। इसे क्रिया कृत्य या कर्मकाँड भी कहते हैं। दुष्प्रवृत्ति का निरोध और सत्प्रवृत्तियों का अभ्यास ही वह अन्तःक्षेत्र का साहस भरा पराक्रम है, जिसे तप कहा जाता है। तप अर्थात् संयम अनुशासन। इसी ऊर्जा के सहारे व्यक्ति पकते और प्रखर होते हैं। धातुओं के परिशोधन में यही प्रक्रिया काम में लाई जाती है।

चारित्रिक चार अनुशासन सर्व ज्ञात है। जिन्हें इंद्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम के नाम से बताया जा रहा है। इनके अभाव में असंयम के ऐसे छेद बनते हैं, जिनमें होकर ईश्वर प्रदत्त सभी विभूतियाँ और मनुष्य उपार्जित सारी सम्पदायें टपकती रहती हैं। मनुष्य निचोड़े नींबू की तरह छूँछ बनकर रह जाता है। छलनी में दूध दुहने पर गाय पालने वाले को कोई लाभ नहीं होता। तली में छेद रहने पर कुशल मल्लाह भी नाव को पार लगाने में समर्थ नहीं होता। असंयमी, आलसी कितना ही सुसम्पन्न क्यों न हो, अपने इन्हीं दुर्गुणों के कारण दुर्गति का त्रास सहेगा, ठोकरें खायेगा और असफल होता रहेगा।

इन्द्रिय असंयम में जीभ का चटोरापन और कामुकता को अधिक विनाशकारी माना गया है। स्वाद के नाम पर चटोरा व्यक्ति अधिक मात्रा में अभक्ष्य खाता और पेट पर असह्य भार लाद कर न केवल पाचन तंत्र को वरन् समूचे काय तंत्र को गड़बड़ा देता है। दुर्बलता और रुग्णता इसी अनाचरण के अभिशाप हैं। कामुकता के माध्यम से जीवन-रस गंदी नाली के द्वार से बहता रहा है और मनोबल, बुद्धि बल एवं ओजस, तेजस् का भंडार खोखला होता जाता है। कहते हैं- मनुष्य भोगों से नहीं भोगता वरन् भोग ही मनुष्य को भोग लेते हैं। समय से पूर्व ही जीर्ण-शीर्ण बनाकर अकाल मृत्यु के मुख में धकेल देते हैं।

समय संपदा का मूल्य न समझने वाले, श्रम से जी चुराने वाले, समय को आलस्य प्रमाद में गंवाने वाले दरिद्र बनने, पिछड़ेपन का त्रास सहने और उपहास तिरस्कार का भाजन बनते हैं। दिनचर्या पर ध्यान न देने वाले, अस्त-व्यस्त गतिविधियाँ अपनाने वाले हर कार्य में असफल रहते हैं उन्हीं को प्रगति समृद्धि का सुयोग मिलता है।

अर्थ-असंयम का अर्थ है फिजूलखर्ची। व्यसन विलास और अहंकार से प्रेरित होकर कितने ही लोग पैसा फूँकते रहते हैं। श्रृंगार सजधज में ढेरों पैसा उड़ जाता है।कुरीतियों के कुचक्र में फंसकर लोग गाढ़ी कमाई को फुलझड़ी की तरह जलाते हैं। यदि औसत नागरिक स्तर का जीवनक्रम अपनाया जा सके तो सादा जीवन उच्च विचार का आनंददायक प्रतिफल हर किसी को सहज ही संभव हो सकता है।

विचार-संयम का तात्पर्य है चिंतन को अनगढ़, अनैतिक, असंभव कुकल्पनाओं से रोककर सुनियोजित विधि व्यवस्था का ताना-बाना बुनने में जुटाए रखना। एकाग्रता, मनोयोग, तन्मयता इसी को कहते हैं। बंदर जैसी चंचल चित्तवृत्ति का नियंत्रण ही मनोनिग्रह है। योग साधना में विविध उपायों के सहारे इसी का अभ्यास करना पड़ता है। वैज्ञानिक, कलाकार, दार्शनिक एवं प्रगतिशील व्यक्ति इसी दक्षता में प्रवीणता प्राप्त करते और अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफल होकर रहते हैं। दूरदर्शिता का मार्ग यही है, जिसमें आरंभ में थोड़ा घाटा उठा कर कुछ ही समय उपराँत असीम लाभ उठाया जा सकता है। किसान, माली, विद्यार्थी, व्यवसायी, पहलवान अपने आरंभ काल में समय और धन गंवाते दिखते हैं। पर कुछ ही समय का धैर्य और श्रम उन्हें पूँजी की तुलना में असंख्य गुनी उपलब्धियों से मालामाल करके रख देता है। किसानों के कोठे भरते हैं। माली अमीर बनते हैं। विद्यार्थी अफसर होते और पहलवान दंगल पछाड़ते देखे जाते हैं। वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, कलाकारों की आरंभिक साधना भी बचकाने लोगों को निरर्थक सिर खपाई दिखती है। पर जब समयानुसार छोटा पौधा विशाल वृक्ष बन कर अपनी गरिमा का परिचय देता है तब यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि दूरदर्शिता अपनाना ही सबसे अच्छा व्यवसाय है। इसी को अपनाकर सामान्य परिस्थिति के व्यक्ति महामानव बने, सौभाग्यशाली हुए और अपने कर्तव्य के आधार पर लोक श्रद्धा के भाजन होकर इतिहास में प्रसिद्ध हुए हैं। हम भी संयम बरतें व समर्थ संपन्न बनें।


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