हम अमृत के पुत्र, सुधा का पान किया है। शारदेय-संस्कृति का ही, संदेश दिया है।।1।। अंधकार की छाती पर, पदचिह्न जमाये। चले अमावस्या से, हम पूनम तक आये।। उजली स्याही से, स्वर्णिम-इतिहास लिखा है। शरद-ज्योत्सना के सम्मुख, तम नहीं टिका है।। हमने मुसकाते-मुसकाते, तिमिर पिया है। हम अमृत के पुत्र, सुधा का पान किया है।।2।। हमने जग के जमना तट पर, रास रचाया। हर गोपी को, आशा का पियूष पिलाया।। किरणों सी अपनी बांहें, हम फैलाते हैं। शीतल किरणों से, जन-जन को सहलाते हैं।। हमने मानवता का, दुखता-घाव सिया है। हम अमृत के पुत्र, सुधा का पान किया है।।3।। अंधकार के विषधर, फिर फन फैलाये हैं। शारदेय-संस्कृति को डसने, बौराये हैं।। भोगवाद का विष, अविरल बढ़ता जाता है। भाषा, भाव, विचारों पर, चढ़ता जाता है।। भोगवाद के विष को, रस में घोल दिया है। हम अमृत के पुत्र, सुधा का पान किया है।।4।। नाग नाथने का इतिहास, पुनः दोहरायें। जन-मानस को, विकृति-विष से मुक्त करायें।। संस्कृति की पूनम का, चाँद उगाना होगा। चंद्र किरण बनकर, प्रकाश फैलाना होगा।। हमने तम की छाती पर, चढ़ नाच किया है। हम अमृत के पुत्र, सुधा का पान किया है।।5।। देव-संस्कृति शरद-पूर्णिमा बन बिखरेगी। फिर ‘वसुधैव कुटुँबकम्’की, आभा निखरेगी।। समरसता का ऐसा राग, रचेगा फिर से। समता की वंशी का स्वर, उभरेगा फिर से।। देव संस्कृति-सुधा-पानकर, विश्व जिया है। हम अमृत के पुत्र, सुधा का पान किया है।।6।।
-मंगल विजय विजय वर्गीय