हर जीवात्मा के लिए सुनिश्चित एक साधना-समर

April 1994

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जीवात्मा ईश्वर का अंश है। समुद्र की लहरों व सूर्य की किरणों से उसकी तुलना की गई है। इस भिन्नता को घटाकाश अर्थात् घड़े के भीतर की सीमित पोल और मठाकाश अर्थात् विशाल विश्व में फैली हुई पोल। घड़े के भीतर की पोल वस्तुतः ब्रह्मांडव्यापी पॉल का ही एक अंश है। घड़े की परिधि से आवृत्त हो जाने के कारण उसकी स्वतंत्र सत्ता दिखाई पड़ती है, पर तात्विक दृष्टि से वह कुछ है नहीं। घड़े के आचरण ने ही यह पृथक रूप से देखने और सोचने का झंझट खड़ा कर दिया है। शाँत समुद्र में लहरे नहीं उठतीं, पर विक्षुब्धता की स्थिति में वे अलग-सी लगती हैं और उदलती दिखाई पड़ती हैं। सूर्य के तेजस की विस्तृत परिधि ही उसके वितरण विस्तार की सीमा है। सूर्य सत्ता का जहाँ तक जिस स्तर का विस्तार है वहाँ तक उसी स्तर की धूप का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। इस प्रभा विस्तार की जो विभिन्न प्रकार की हलचलें हैं उन्हीं को किरणें कहते हैं। किरणों का सात रंगों में अथवा अल्ट्रावायलेट, अल्फावायलेट एक्स्लैसर आदि में अलग से जाना माना जा सकता है, पर यह विभाजन सूर्य से भिन्न किसी पृथक सत्ता का भान नहीं करता। ऐसे ही उदाहरणों से जीवन और ईश्वर की एकता-भिन्नता समझी जा सकती है।

जीव की मूल सत्ता ईश्वरीय है। चेतना का समुद्र इस विश्व में एक ही है। उससे भिन्न या प्रतिपक्षी दूसरी कोई सत्ता देवी-देवताओं के या जीवों के रूप में कहीं नहीं है। तत्वेत्ताओं ने जाना है कि, यहाँ केवल एक है दूसरा नहीं है। “जीव की पृथकता भी प्रकृति के समन्वय से है। प्रकृति के तीन स्तर सत्-रज-तम् कहलाते हैं। इन्हीं तीनों की परतें जीव के ऊपर चढ़ जाती हैं, और वे तीन शरीर कहलाती हैं।

स्थूल शरीर, अर्थात् हाड़माँस की जन्मने मरने वाली काया। सूक्ष्म शरीर अर्थात् बुद्धि, संस्थान, सुख दुःख प्रिय अप्रिय अपने विराने का अंतर करने वाला मस्तिष्कीय विचार विस्तार। कारण, शरीर, अर्थात् मान्यताओं एवं भावनाओं का समुच्चय, अंतरात्मा जिसे अंतःकरण भी कहा गया है। इन तीनों शरीरों की यों प्याज के छिलके, केले के तने या एक के ऊपर पहने हुए वस्त्रों से उपमा दी जाती है, पर य उपमा बहुत ही अधूरी है। कारण कि यह आवरण सभी एक दूसरे से पृथक हैं जबकि तीनों शरीर एक दूसरे के साथ इस प्रकार घुले हुए हैं जैसे दूध में भी और सरसों में तेल।

जीव को इन आवरणों में लिपटे रहने से कई तरह के, कई स्तर के सुख मिलते हैं, इसलिए वह उन्हें छोड़ना नहीं चाहता। फलतः बद्ध अवस्था में बना रहता है। स्थूल शरीर में कई प्रकार के वासनात्मक सुख हैं। सूक्ष्म शरीर में कल्पना लोक के मनोरम स्वप्न, विनोद, मनोरंजन, सफलता पद सम्मान व वैभव आदि के बुद्धि विलास के अनेकों साधन मौजूद हैं। कारण शरीर में अर्हता की गहरी परतें जमी हैं। आकाँक्षाओं की उमंग इसी केन्द्र से उठती है। मान्यताओं की आस्था और संवेदनाओं की पुलकन खट्टी-मीठी गुदगुदी तो है पर यह कुल मिलाकर है मधुर। जीवन में प्रिय अप्रिय प्रसंग आते जाते रहते हैं, जिसके कारण इन तीनों शरीर आचरणों को छोड़ने का मन नहीं करता। फलतः जीवात्मा का सघन अस्तित्व बन जाता है, जिसे स्वतंत्र भी कहा जा सकता है।

बंधन मुक्ति के तमाम मतभेदों के रहते हुए भी एक समन्वित तथ्य और सर्वमान्य निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। वह यह कि जीवात्मा को प्रिय अप्रिय की विक्षुब्ध अव्यवस्था विवशता से उबरना चाहिए और ऐसी स्थिति में रहना चाहिए जहाँ आदतों की, संस्कारों की पराधीनता उसे अवाँछनीय चिंतन एवं अवाँछनीय संवेदनाओं का कष्ट देने में समर्थ न हो सकें। समस्त विपन्नताओं की जड़ यह पराधीनता ही है। जीवन का आनन्द उठाने से इसी विवशता के कारण वंचित रहना पड़ता है। यही बंधन मनुष्य को उच्चस्तर तक पहुँचकर देवोपम आनंद, उल्लास उपलब्ध करने के मार्ग में एकमात्र व्यवधान बने रहते हैं। इस स्थिति को बदल सकना यही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है-इसी को ‘मुक्ति कहा गया है’। मुक्ति प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य माना गया है।

मुक्ति का अर्थ है-स्वाधीनता। पराधीनता के बंधनों को काट देना ही स्वाधीनता है। यह पराधीनता -मात्र चिर-संचित संस्कारों की है जो स्वभाव का बनकर हमारे चिंतन व कर्म को अपने ढर्रे पर चलाती है-अपनी लाठी से हाँकती है। शरीर को यह पराधीनता, वासना के बंधन में बाँधकर बेतरह घसीटती है, उसका स्वास्थ्य चौपट करती है, दीर्घजीवन से वंचित करती है और सत्कर्म निरत रहकर समृद्धियाँ, सफलताएं प्राप्त करने के स्थान पर ऐसा कुछ करते रहने में लगाती हैं जिनके कारण रुग्णता, निंदा, असफलता, दरिद्रता, कुरूपता जैसी विपन्नताएं ही आये दिन सामने खड़ी रहती हैं। विवेक कई बार सोचता है कि अपनी गतिविधियों में अमुक प्रकार का परिवर्तन करना चाहिए। किन्तु औचित्य को समझते हुए भी वैसा कुछ बन नहीं पड़ता। आदतें इतनी जबरदस्त सिद्ध होती हैं कि उपयोगी सुधार के मनसूबे एक कोने में रखे रह जाते हैं और आदतें अपनी बेढंगी राह पर शरीर को घसीटती चली जाती हैं और वे काम कराती हैं जिनके लिए पीछे पश्चाताप ही करना शेष रह जाता है। यदि आदतें शरीर का संचालन न करें तो विवेक के हाथ से नियंत्रण, संचालन किया जाने लगे तो स्वास्थ्य, सौंदर्य दीर्घजीवन जैसी उपलब्धियाँ तो अति साधारण हैं। समर्थ काया से अभीष्ट प्रयोजनों में आश्चर्यजनक सफलतायें देने वाले पराक्रम पुरुषार्थ का अभिनव स्त्रोत खुल सकता है और उसके फलस्वरूप जो जीवन लाभ मिल सकता है, उसकी कल्पना मात्र से आँखें चमकने लगती है। दुर्बल शरीर इन्द्रिय सुख की लिप्सा भर में लगा रहता है, साधन उपस्थित होने पर भी वह उसका समुचित आनन्द नहीं ले सकता। भोजन का आनंद कड़ाके की भूख लगने वाले को ही मिल सकता है। आलस्य, प्रमाद को भगाकर व्यवस्थित दिनचर्या बनाना और उस पर निष्ठापूर्वक आरुढ़ रहना सफलताओं का प्रधान आधार माना गया है और शरीर भौतिक जगत से सीधा संबंध उसी का है। समर्थ शरीर ही भौतिक उपलब्धियों का केन्द्र होता है। शरीर पर विवेक का नियंत्रण जिस मात्रा में होता जाता है उसी अनुपात से भौतिक सफलताओं का पथ प्रशस्त होता चला जाता है। यह स्थिति शरीर क्षेत्र की मुक्ति कही जा सकती है। इसका प्रतिफल है भौतिक सुख।

सूक्ष्म शरीर के क्षेत्र में हमारा चिंतन उस ढर्रे में ढला हुआ होता है, जिसकी प्रतिक्रिया ही हमें अर्धविक्षिप्त स्तर का बनाये रखती है। कितने प्रकार की सनकें, कितने वहम, कितने भ्रम मस्तिष्क में लदे होते हैं यदि उन्हें ठीक तरह से समझा जाय तो प्रतीत होगा कि विवेकहीन व्यक्ति की तुलना में चालू आदमी निस्संदेह अधपगला होता है। लोक-प्रभाव का संशोधन करने वाली अवतारी आत्माएं उतरती हैं। उनके चले जाने के बाद फिर विकृतियाँ भरने लगती हैं और सामाजिक प्रचलनों में गंदे नाले जैसी गंदगी भरती चली जाती है। जन मान्यताएं-लोगों के प्रचलित ढर्रे ही अपने को सुहावने लगते हैं। कुरीतियाँ मूढ़ मान्यताएं, अन्धविश्वासों के सहारे न जाने कितनी उपहासास्पद भ्रांतियां मस्तिष्क में जड़ जमाकर बैठ जाती हैं। लोगों में प्रचलित भ्रष्टाचार अपने को भी ललचा लेता है। विकृत चिंतन के कारण मनुष्य न सोचने योग्य सोचता है और बाल बुद्धि की योजनाएं बनाकर उनमें बहूमूल्य विचार शक्ति को नष्ट करता रहता है। चिंता, निराशा, खीज, आवेश, उत्तेजना, निष्ठुरता, घबराहट, कायरता, कृपणता, ईर्ष्या व द्वेष, आत्महीनता व उद्दंडता जैसे अनेकों मानसिक रोग मस्तिष्क को घेरे रहते हैं और सौ रोगों से ग्रसित शरीर की जो दुर्गति होती है वैसा ही मनोविकार विचार संस्थान को, सूक्ष्म शरीर को बनाए रहते हैं। यह मनोगत कुसंस्कारों की, चिंतन विकृतियों की पराधीनता है जिसके कारण हर दृष्टि से अद्भुत विचारणा सर्वनाश के गर्त में गिरती और नष्ट होती रहती है।

परिष्कृत सूक्ष्म शरीरी चिंतन की उत्कृष्टता के कारण स्वयं हर घड़ी सदा संतुष्ट, उल्लसित एवं प्रफुल्लित बना रहता है। अवाँछनीय मानसिक भ्रम से छुटकारा पाने के कारण उसकी सूझबूझ दूरदर्शी और तत्वदर्शी बन जाती है। उसका लाभ न केवल संपर्क क्षेत्र को वरन् समस्त संसार को मिलता है।

कारण शरीर की चेतना की अवस्था यदि सुधर जाए तो मनुष्य महात्मा, देवात्मा और परमात्मा बन सकता है। यही ध्रुव का केन्द्र है जहाँ आत्मा और परमात्मा का पारस्परिक पतला सा संबंध सूत्र जुड़ा हुआ है। उसे परिष्कृत कर दिया जाय तो ब्रह्म चेतना का, जीव चेतना का विशिष्ट संबंध स्थापित हो सकता है और ऐसे आदान-प्रदान का पथ प्रशस्त हो सकता है, जिस के आधार पर नर से नारायण का अवतरण प्रत्यक्ष देखा जा सके। ऐसी स्थिति में पहुंची हुई आत्माओं की संज्ञा देवताओं से दी जाती है।

अध्यात्म विज्ञान की पृष्ठभूमि को संक्षेप में इतना कुछ समझ लेने के उपराँत तत्वज्ञान के एक जिज्ञासु को इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मनुष्य को मिली हुई तीन शरीरों के रूप में तीन विभूति या प्राणी जगत की सबसे बड़ी ईश्वर प्रदत्त उपलब्धियाँ हैं। इन तीन क्षेत्रों में जो विकृतियाँ घुस पड़ी हैं उन्हीं ने जीव को निकृष्ट स्तर का दीन-दयनीय बनाकर रख दिया है। प्रकृति का-भौतिकता का अनावश्यक और अवाँछनीय भार लद पड़ने से पिता और पुत्र का वियोग उपस्थित हो गया है। इसी अशक्ति, अविद्या और अभाव की परिणति स्वरूप जीव की दुर्गति हुई है। प्रकृतिगत आकर्षणों की ओर अस्वाभाविक और असाधारण रूप से दौड़ पड़ने से ही कुसंस्कारों की परतें जमी हैं और उनने पतनकारी दुर्दशा उत्पन्न की है। उस अवाँछनीयता से जूझना ही वह साधना समर है, जिसमें प्रत्येक हनुमान और अर्जुन को-साधक का अपना पराक्रम दिखाना पड़ता है।

आत्मा को परमात्मा से मिला देने के लिए कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाना पड़ता है और ईश्वरीय प्रेरणा का अनुगमन करते हुए अपनी अंतरंग स्थिति ऐसी बनानी पड़ती है जो ब्राह्मी कही जा सके।

दूध और पानी एक रस होने से घुल सकते हैं। लोहा और पानी का घुल सकना कठिन है। हम अपने भौतिकतावादी स्तर से ऊंचे उठें और ईश्वरीय चेतना के अनुरूप अपनी क्रिया, विचारणा एवं आस्था को ढालें तो ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो सकता है। वियोग का अंत योग में होना चाहिए यही ईश्वर की इच्छा है। बच्चे दिनभर खेलकूद और पढ़ने-लिखने में संलग्न रहे, पर रात को घर लौट आए और एक ही बिस्तर पर सो जाये, ऐसी माता की इच्छा रहती है। परमात्मा भी अपने पुत्र आत्मा से ऐसी ही अपेक्षा करता है। उसकी इच्छा पूर्ण करने के लिए हमें जो चेतनात्मक पुरुषार्थ करना पड़ता है, उसी का नाम योग है। योग साधना हमारे लिए सर्वोपरि श्रेय साधन है। उसमें अपनी प्रवृत्तियों को तत्परता पूर्वक लगाया जा सके, उसी में कल्याण है।


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