दरिद्रता की दवा पारस नहीं ।

April 1994

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“ सचमुच पारस का कोई पदार्थ है?” अलबर्ट माँरीसन रसायन शास्त्री हैं। इस नाते यह जिज्ञासा सतत् उन्हें बनी रहती थी। प्रत्येक वैज्ञानिक को एक सनक होती है। कहना यह चाहिए कि प्रतिभा का प्रसाद उसी को प्राप्त होता है, जो अपनी सनक का पक्का हो। माँरीसन को प्राचीन पदार्थ शास्त्र के अन्वेषण की सनक थी और विषय कोई हो, उसका प्राचीनतम साहित्य तो भारत के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं उपलब्ध है नहीं। अलबर्ट माँरीसन भारतीय पदार्थ शास्त्र का अन्वेषण कर रहे थे। उन्होंने पुराण, ज्योतिष तथा अनेक सूत्र एवं कारेका ग्रन्थ एकत्र कर लिए थे।

“केवल कल्पना हे पारस?” अनेक बार यह विचार आता था-” एक भव्य कल्पना-भारतीय कल्पना प्रवण होते हैं। कितनी पूर्ण कल्पना की है उन्होंने?” “ प्रकृति कोई सामाजिक अव्यवस्था उत्पन्न नहीं होने देती। कोई लोभी कभी पारस नहीं पाता।” अल्बर्ट का मन उन्हें संतुष्ट नहीं होने देता था-केवल परम संतुष्ट संत उसे पाते या देखते हैं वह उनके संतोष की परीक्षा मात्र बन सकता है। एक रहस्य से बाहर आकर फिर रहस्य हो जाता है वह।

‘परमात्मा के लिए कुछ असंभव तो नहीं है। वैज्ञानिक अल्बर्ट आस्तिक हैं-जिन्हें भी पारस मिला वे सच्चे अर्थों में संत थे। अपने लाड़ले बच्चे पर प्रभु अपना कोई रहस्य प्रकट कर दें-कोई कठिन बात तो नहीं है?‘पारस पदार्थ है या कल्पना?’साहित्यिक या समालोचनात्मक झट से ‘कल्पना’ कह देगा। किन्तु एक रसायन शास्त्री ऐसा नहीं कह पाता। लोहे की आणविक संरचना में केवल एक परिवर्तन उसे स्वर्ण बना देगा। यह परिवर्तन उसमें भार एवं रंग दोनों दे देगा। अवश्य उसका विस्तार आकार संकुचित हो जायेगा। पारस यदि कोई ऐसा पदार्थ हो, जो अपने स्पर्श से लोहे के अणुओं में अपेक्षित परिवर्तन कर देता हो।

“पारस प्राप्त किए बिना तो समस्या सुलझेगी नहीं। वैज्ञानिक का काम कल्पना से नहीं चलता। वह प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। अल्बर्ट को पारस की आवश्यकता थी। पारस यदि कहीं हो तो निश्चित अपने भारत में ही हो सकता है। जहाँ अनेक बार पाया गया है अथवा उसे पाने की कल्पना की गई है। भारत की यात्रा कुछ कठिन नहीं थी वैज्ञानिक के लिए। वे केवल भ्रमण करने वाले यात्री बनकर ही आये। उन्हें पता था कि पारस कभी जन सामान्य की जानकारी में नहीं आया। आज उसे पाने की चर्चा भारत में पागलपन ही कही जाएगी।

‘कहाँ से कैसे अन्वेषण प्रारंभ हो?’ कुछ ठीक उपाय सूझता नहीं था। अवश्य ही अलबर्ट ने भारतीय साधुओं के प्रति अपना आकर्षण व्यक्त कर दिया था। वे प्रायः पता लगाकर अच्छे कहे जाने वाले साधुओं के दर्शन करने पहुँचते थे। किन्तु बहुधा निराशा हाथ लगती थी।

मुझे बड़े आश्रमों वाला बड़ा साधु नहीं चाहिए। बहुत शीघ्र उन्हें अनुभव हो गया कि जो प्रख्यात साधु हैं वे सम्पन्न हैं ओर जहाँ सम्पत्ति स्वीकृत होती है पारस का पता वहाँ पाने की आशा भी नहीं की जा सकती।” कौपीनधारी जिसके पास कुछ न रहता हो, जो देने पर भी पैसा न ले, ऐसा साधु चाहिए मुझे।”

घूमते-भटकते-अपने अन्वेषण की सनक में वह दुर्गम हिमालय में पहुँच गए। एक स्थान पर उन्होंने देखा अपने हाथ पर सिर टेके एक अलमस्त साधु लेटे थे। उनकी आँखों से करुणा झर रही थी। देह पर एक स्वर्णिम आभा की दीप्ति थी। अल्बर्ट उनके पास जाकर घुटनों के बल बैठ गये। पतलून की क्रीज की चिन्ता न जाने कब छूट चुकी थीं।’ तुम पारस क्यों चाहते हो?’ वह ऐसा पदार्थ नहीं कि मात्र कौतूहल निवृत्ति के लिए उसे पाया जा सके। संत समझा रहे थे-”मुझे वह प्राप्त नहीं। किसी को आज प्राप्त है या नहीं, मुझे पता नहीं, किन्तु तुम क्यों नहीं सोचते कि उसे पा लेने पर कितनी अव्यवस्था हो जाएगी समाज में?”

‘आप चाहें तो उसे पा सकते है?’ अल्बर्ट ने पूछा। उनकी जिज्ञासा अभी तर्क से तृप्त होने को प्रस्तुत नहीं थीं

‘परमात्मा परम दयालु है।’ साधु का स्वर गदगद हुआ। उसका कोई बच्चा कोई हठ ही कर ले तो वह दयामय उसे अवश्य पूर्ण कर देगा। पारस पदार्थ बना देने में उस सर्वशक्तिमान को क्या देर लगेगी।

‘काश। एक बार मैं उसे देख पाता?” रासायनिक की उत्कंठा आतुर हो उठी। ‘क्या करोगे उसका?’ साधु हंसे।उसका आविष्कार संसार के लिए सबसे बड़ा विध्वंसक बम सिद्ध हो सकता है।

“आज कितने कंगाल हैं लोग।” अल्बर्ट ने प्रार्थना के स्वर में कहा-”दरिद्रों पर दया नहीं आती आपको? उनका दुख-उनका अभाव दूर करने के लिए केवल कुछ घंटों को पारस का प्राप्त होना भी पर्याप्त हो सकता है। “ “बहुत भावुक हो तुम!” “वैज्ञानिक भावुक नहीं हुआ करते”। “साधु खुलकर हंसे-आज की शासन व्यवस्था तो देखो। पारस प्राप्त कर लो तो स्वर्ण बनाने के लिए छिपते फिरोगे। पारस पता लगने पर तुमसे छीन लिया जाएगा तुम जेल में बंद होओगे या तुम्हारी हत्या करा दी जायेगी। आगे पारस का क्या होगा-तुम कोई आश्वासन नहीं दे सकते। इसे पाकर तुम कितनी अशाँति ले लोगे-तुमने स्वयं सोचा है?”

“आपको सत्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।” वैज्ञानिक ने मस्तक झुका दिया-” सब आपत्तियाँ झेलकर भी यदि मैं कुछ कंगालों की सेवा कर सकूँ-आप मुझपर विश्वास कर सकते हैं कि मैं आपके देश के दरिद्रों की ही सेवा करूंगा पारस या उससे बना स्वर्ण इस देश के बाहर नहीं जाएगा। मैं अपने उपयोग में भी उसे नहीं लाऊंगा।”

“तुम इस प्रकार कह रहे हो, जैसे पारस मेरे पास पड़ा है।” साधु हंसे

“आप उसे पा सकते हैं।” वह निराश नहीं हुआ। उसका आग्रह स्थिर रहा-दरिद्रों का दुःख दूर करने में आप मेरी सहायता करेंगे।

“जिनका चित्त सम्पत्ति के अभाव में दुखी है वे दरिद्र हैं।” साधु ने समझाने का मार्ग लिया-जिनके पास संपत्ति नहीं है वे दरिद्र हैं-ऐसा तो तुम नहीं मानते होगे, क्योंकि मेरे पास एक कौड़ी नहीं और मुझे दरिद्र मानकर मेरी सहायता करने की बात तुम सोच भी नहीं सकते।”

“संपत्ति के अभाव में जो दुःखी हैं, वे दरिद्र हैं।” अल्बर्ट ने साधु की परिभाषा स्वीकार की-” उनकी ही मैं सेवा करूंगा। आपके समान संतुष्ट महापुरुषों की कोई क्या सेवा कर सकता है?” “आज तुम बंबई चले जाओ!” साधु ने आज्ञा दी। दो दिन वहाँ रहो। इसके अनंतर यदि पारस की आवश्यकता प्रतीत हो तो यहाँ आ जाना। “

हिमालय की दुर्गमता को छोड़कर माँरीसन रेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे। उनके कूपे में केवल एक यात्री थे। कोई भारतीय व्यापारी होंगे। उनके वस्त्र कोट में लगे हीरों के बटन, अंगूठी में जड़ा बड़ा सा नीलम अवश्य वे कोई संपन्न व्यक्ति होंगे। किन्तु उनका श्रीहीन मुख बार-बार लंबी श्वाँस लेना, बार-बार नेत्र पोंछना-कोई बहुत बड़ा दुख उन पर आया जान पड़ता था।

‘बाबू ! एक पैसा!स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी।गोद में नवजात शिशु लिए मैले-फटे वस्त्रों में शरीर छिपाये एक कंगाल प्रायः भिक्षुणी आ खड़ी हुई। दीनता की साकार मूर्ति लगती थी वह। “चल! भाग यहाँ से।” व्यापारी ने उसे दुत्कार दिया। वह तो जैसे इसकी अभ्यस्त हो गई थी। बड़ा खेद हुआ अल्बर्ट को। उसने अपनी जेब से मनीबैग निकाला, जो पहिला नोट हाथ में आया, उस भिखारिन के हाथ पर रखकर खिड़की बंद कर ली उसने।

“ये भिखारी अब भी पिंड नहीं छोड़ते।” व्यापारी महोदय-अपने आप बड़बड़ा रहे थे-” इन्हें अपने से मतलब, कोई जिए या मरे, इन्हें पैसा चाहिए।”

“क्या कष्ट हैं इन्हें ? “ इच्छा हुई अल्बर्ट को जानने की। किन्तु बिना प्रयोजन किसी अपरिचित की व्यक्तिगत बातों में बोलना असभ्यता है।अपने समाज के शिष्टाचार के कारण चुप रहना था और व्यापारी महोदय समझते नहीं थे कि साहब हिन्दी जानता है। स्वयं वे अंग्रेजी बोलने में असमर्थ थे। गाड़ी सीटी देकर चल चुकी थी।

पर्याप्त समय तक उस डिब्बे में दो ही यात्री रहै। ट्रेन जब बोरी बंदर स्टेशन पहुंच गई, तब भी दो ही यात्री उतरे उसमें से। अलबर्ट माँरीसन मार्ग में अपनी पुस्तकों के पन्नों में उलझ गये थे। उन्हें याद भी नहीं आयी कि वे डिब्बे में एकाकी हैं।

अरे! दूसरे दिन प्रातःकाल होटल के एक कमरे में उन्होंने जब प्रातःकाल अखबार उठाया वे चौंक पड़े। एक बार उनके हाथ से अखबार छूटकर गिर पड़ा।

“भारत के प्रसिद्ध व्यापारी श्री ...........न कल रात आत्महत्या कर ली” समाचार के प्रथम पृष्ठ पर मोटा शीर्षक था। उन्हें स्मरण आया-यह नाम तो उन्होंने कल अपने साथ यात्रा करने वाले यात्री महोदय के बक्से पर लिखा देखा था। तब क्या उन्होंने........’उन्हें अपने सट्टे के व्यापार में बहुत बड़ा घाटा लगा था।” समाचार पत्र ने विवरण दिया था-अनुमान किया जाता है कि घाटा एक अरब के लगभग है। उसे दे डालने पर उनकी केवल अपने रहने की कोठी और दस-बारह करोड़ की संपत्ति बची रहेगी, उनकी श्रीमती जी के समीप।

उसे स्मरण आया-वे व्यापारी बड़बड़ा रहे थे-मैं कंगाल हो गया। केवल कुछ करोड़ बचेंगे मेरे पास। आज का अरबपति दरिद्र हो गया।

“दरिद्र ! “ अल्बर्ट फिर चौंके-”दस-बारह करोड़ और विशाल कोठी होने पर भी वह अपने को ऐसा दरिद्र समझता था कि आत्म हत्या करके मर गया। जब वह भिखारिन सिर्फ एक रुपये का नोट पाकर आनन्द से खिल उठी थी। दोनों में दरिद्र कौन?” जिनका चित्त संपत्ति के अभाव में दुखी है, वे दरिद्र! साधु के वचन स्मरण और मन ने कहा-संपत्ति के अभाव की कोई सीमा है?कुछ ही करोड़ रहने, आत्महत्या कर लेने वाला सेठ-असंतोष जिसे है-वह दरिद्र यही तो अर्थ हुआ। ऐसे दारिद्रय की दवा पारस कैसे कर सकता है? ठीक ही तो कहा था साधु ने-यदि किसी को कुछ सार्थक देना चाहते हो-तो उसे विचार दो-जीवन जीने की कला सिखाओ। वैज्ञानिक ने टेलीफोन डायरेक्टरी उठा ली थी। वे पूछना चाहते थे कि यूरोप के लिए वायुयान कब जा रहा है। पारस पाने की कोई उत्कंठा अब उनमें नहीं रह गयी थी।


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