परमात्मा ने पंचतत्वों से निर्मित इस काया में इतनी अगणित संभावनाएं भर कर रख दी है कि यदि उनका विवेक-पूर्वक उपयोग किया जाये तो सामान्य स्थिति में प्राप्त किये जाने वाले लाभों, सफलताओं और उपलब्धियों से अनन्त गुना अधिक लाभ तथा सफलताएं प्राप्त की जा सकती हैं। किसी के पास प्रचुर धन-सम्पदा हो, आर्थिक दृष्टि से कोई कितना ही सम्पन्न क्यों न हो, किंतु यदि वह मनमाने तरीके से अस्त-व्यस्त और बिना सोचे समझे उसे खर्च करता रहे तो अंततः आर्थिक संतुलन का बिगड़ना निश्चित ही है। इसी प्रकार मनुष्य उपलब्ध शक्ति को आवश्यक अनुपयोगी कार्यों में खर्च करता रहता है और बाद में उपयोगी आवश्यक कार्यों के लिए शक्ति लगाने में वह प्रायः असमर्थ ही रह जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मनुष्य के पास जितनी मात्रा में शारीरिक और मानसिक शक्ति उपलब्ध है, यदि उसे ढंग से प्रयोग में लाया जाय तो आमतौर पर लोग जितना काम करते हैं, कम से कम उसका दूना काम तो किया ही जा सकता है।
इस तथ्य से सभी अवगत हैं कि मनुष्य की अधिकाँश शक्तियाँ व्यर्थ के कार्यों में खर्च होती है और सभी जानते हैं कि जितना कुछ करने की क्षमता अपने पास है, उससे अधिक कुछ किया जा सकता है। प्रश्न उठता है कि पर्याप्त शक्ति-सामर्थ्य होते हुए भी मनुष्य अपनी आसक्ति और दुर्बलता के कारण क्यों वाँछित सफलताएं प्राप्त नहीं कर सकता ? होता यह है कि उपयोगी प्रयोजनों में जितनी शक्ति खर्च होती है, उससे कहीं अधिक उसकी शक्ति निरर्थक कामों में खर्च होती रहती है। यदि तनिक सतर्कता से काम लिया जाये तो इस अनावश्यक अपव्यय को बचाया जा सकता है और ऐसे कार्यों में लगाया जा सकता है, जिनसे कुछ उपयोगी प्रयोजन सधता हो।
व्यर्थ में बिना किसी कारण, बिना किसी आवश्यकता के लोग बक-झक करते रहते हैं। इस प्रकार जिह्वा के माध्यम से जितनी शक्ति नष्ट होती है, लोग उसका मूल्याँकन नहीं कर पाते। वे यह भूल जाते हैं कि क्रिया चाहे कोई भी क्यों न हो, उसके लिए ऊर्जा चाहिए और उसे जुटाने में कोशिकाओं का ईंधन जलेगा ही। इस तरह शक्तियों को अनावश्यक रूप से नष्ट करना उनका अपव्यय करना ही तो है। इस प्रकार शक्ति का ऐसा महत्वपूर्ण कोश, जिसे यदि उपयोगी, योजना बद्ध कार्यों में लगाया जाये, तो उतने से ही प्रगति की दिशा में काफी दूर तक आगे बढ़ जा सकता है। सतर्कता बरत कर शक्ति की यह थोड़ी-थोड़ी बचत और उसे उपयोगी कार्यों में लगाने की प्रवृत्ति ही बूँद-बूँद करके घड़ा भरने की उक्ति को चरितार्थ करती हुई, जीवन को महान बनाने वाली सफलताओं में परिणत होती है।
लोग सोच-विचारों में अधिकाँशतः निरर्थक और निरुद्देश्य बातें ही सोचते हैं और न जाने कैसे निरर्थक अव्यावहारिक रंग-बिरंगे सपने देखते रहते हैं। उन बातों की परिस्थिति और योग्यता से जरा भी संगति नहीं होती फिर भी लोग आकाश की उड़ने भरते रहते हैं। यदि इन निरर्थक बातों में कुकल्पनाओं में चित्त को उलझाया न जाये और सार्थक-सोद्देश्य चिंतन किया जाये, तो उत्साहवर्धक और आशाजनक सफलताएं प्राप्त की जा सकती हैं।
बहुत से लोग जीवन क्रम में आने वाले साधारण से उतार-चढ़ाव को आकाश-पाताल जैसा बढ़ा -चढ़ा कर देखते हैं और उनसे अकारण ही असामान्य रूप से उद्विग्न, उत्तेजित होते रहते हैं। इस तरह की चिंता और व्याकुलता का कारण खोजा जाए तो प्रतीत होगा कि जिस वजह से मन को इतना उद्विग्न किया गया था, वह मानव जीवन में आये दिन घटती रहने वाली घटनाओं में से एक बहुत छोटी सी हलचल मात्र है। मानसिक उद्वेगों के कारण जितनी शक्ति नष्ट होती है, उस शक्ति को यदि सृजनात्मक चिंतन में लगाया जाये तो न केवल असाधारण रूप से ज्ञानवृद्धि हो सकती है, वरन् वर्तमान स्थिति से ऊँचे उठकर आगे बढ़ने एवं प्रगति करने का भी पथ प्रशस्त होता है।
मानसिक उद्वेगों पर किस प्रकार नियंत्रण रखा जाय और कैसे मानसिक स्वास्थ्य सुस्थिर रखा जाय, इस संबंध में अनेक प्रयोग अनुसंधानों के बाद मनःशास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह इस बात पर निर्भर है कि उद्वेग और क्षोभ का प्रभाव व्यक्ति पर कम से कम हो। प्रसिद्ध मनःशास्त्री बिल्डर पेनफिल्ड दीर्घकालीन शोध के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि व्यक्ति जितना ही मानसिक तनाव या दबाव अनुभव करेगा, वह शरीर से और मन से उतना ही रुग्ण होगा, साथ ही ऐसी मानसिक विकृतियाँ भी उठ खड़ी होंगी, जिन्हें अर्ध रुग्ण स्थिति एवं अस्त व्यस्तता कहा जा सकता है। इस तरह की मनःस्थिति का व्यक्ति अपने लिए व अपने साथियों के लिए एक समस्या बनकर रहता है। न वह स्वयं चैन से बैठता है और न दूसरों को चैन से बैठने देता है।
कनाडा के शरीर विज्ञानी डा. हेन्स सेल्ये इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि स्वास्थ्य के बिगड़ने और मनः संस्थान को अस्त व्यस्त होने का प्रधान कारण नाड़ी संस्थान पर बढ़ हुआ तनाव ही है और इसका प्रमुख कारण अचिन्त्य चिंतन के कारण मनःसंस्थान का संतुलन बिगड़ जाना है। लोग काम करना तो चाहते हैं, पर यह नहीं जानते कि उसे कैसे किया जाना चाहिए ? शरीर और मन का तनाव कोई आकस्मिक या अप्रत्याशित घटना नहीं है। न तो वह बादलों की तरह बरसता है और न ही बिजली की तरह गिरता है। वस्तुतः वह आग्रह पूर्वक बुलाने पर स्वाभिमानी अतिथि की तरह आता है। बेढंगे मन से अत्यधिक काम करना ही इस संकट को आमंत्रित करना है। ढंग कायदे और करीने के साथ आदमी अधिक भी काम करता रह सकता है। पर यदि बेतरतीब ढंग से आठ-दस घंटे भी काम किया जाये तो बुरी तरह थकान आयेगी और तनाव उत्पन्न होगा।
शरीर का रासायनिक संतुलन मुख्यतः तीन ग्रंथियों पर अवलंबित है। एक पिट्यूटरी मस्तिष्क के नीचे तथा दो ग्रंथियाँ एड्रीनल गुर्दे के समीप हारमोन और दूसरे अति महत्वपूर्ण रासायनिक तत्वों का निर्माण, शोधन, परिवर्तन प्रायः उन्हीं की सक्रियता के कारण संभव होता है। अनावश्यक और अस्त-व्यस्त मानसिक श्रम करने का प्रभाव इन तीनों ग्रंथियों पर पड़ता है और वे काम ठीक तरह से न कर पाने के कारण शरीर की रासायनिक आवश्यकता ठीक तरह पूरी करने में असमर्थ हो जाती हैं। इस प्रकार हमारी आँतरिक और अदृश्य भूख पूरी न होने के कारण भीतरी दुर्बलता बढ़ती जाती है तथा रोग निरोधक और दूसरी क्षमताओं का भंडार रिक्त होता चला जाता है।
मानवी रक्त एवं मूत्र में तनाव के हारमोन्स चिकित्सकीय परीक्षण के दौरान मिलते हैं। इसका चिन्ह है शरीर में ग्लूकोस की मात्रा में अभिवृद्धि। इस दौरान मुँह में सूखापन, मीठा खाने की इच्छा, श्वाँस लेने में कठिनाई, विभिन्न अंगों द्वारा अनायास प्रतिक्रिया इसके प्रमुख लक्षण के रूप में देखे जाते हैं। तनाव अवस्था में एक महत्वपूर्ण चिन्ह यह भी दिखाई देता है कि तनाव के चिन्ह को जानकर भी अनदेखा करना, टाल देना। जब हम विभिन्न समस्याओं से गुजरते हैं और माँस पेशियाँ कड़ी हो जाती हैं इस स्थिति में अधिक दबाव के कारण सिरदर्द प्रारंभ हो जाता है जिससे समाधान पाने के लिए तनाव को दूर करने की अपेक्षा गोलियाँ लेने को महत्वपूर्ण मानते हैं। किंतु इन माध्यमों से सही इलाज हो नहीं पाता। तात्कालिक लाभ भविष्य में हानियाँ ही अधिक दिखलाता है। तनाव को- माँसपेशियों को तनाव रहित करने का यह सही समाधान नहीं है। यह उससे भी अच्छा है कि सिरदर्द प्रारंभ होते ही तनाव रहित होने के लिए जाग्रत बना जाये। दूसरे चिन्हों की जानकारी मिलते ही ऐच्छिक शिथिलीकरण की प्रक्रिया ज्यादा उपयोगी है इससे सीधा एवं स्थाई लाभ मिलता है।
हृदयरोग तनाव का निश्चित चिन्ह है। तनावग्रस्त होने के कई स्थूल कारण हैं इनमें व्यायाम की कमी, वजन बढ़ना, कम भोजन, पारिवारिक इतिहास, प्रदूषित वातावरण में निवास, नशीले पदार्थों का सेवन ये भी हृदयरोग उत्पन्न करने में सहयोगी हैं। अस्थमा रोग का हमला भी इसमें सम्मिलित है। अल्सर या चमड़ी में खुजली का क्रम प्रारंभ होना यह बताता है कि तनाव प्रक्रिया सक्रिय हो गयी है।
तनाव के दौरान रक्त प्रवाह कमर से नीचे ऊपर विभिन्न अंग अवयवों की ओर तेजी से होने लगता है। इसके कारण पाचक रस का स्राव बंद होते ही हृदय और पाचन संस्थान में सीधा प्रभाव पड़ता है। अतः हमारा पेट कार्य करना बंद कर देता है। विशेष रूप से प्रोन पेटिपट अल्सर के रोगी पाचक अम्ल अति चिंता एवं तनाव से जलाते हैं और आत्मघाती रास्ते का चयन करते हैं।
फिर प्रारंभ हो जाता है कब्ज के रूप में रोग बढ़ने का क्रम एवं आँतों के रोग जिनमें पेट का दर्द भी अपना चित्र विचित्र रूप दिखाने लगता है। इसी दशा को चिकित्सकों ने “ इरीटेबल बाँवेल सिन्ड्रोम“ की संज्ञा दी जिसमें पाचन तंतुओं की गतिशीलता पेट में गड़बड़ाने लगती है। यह जलन आमतौर पर अल्सर का रूप लेकर “अल्सरेटिव कोलायटिस“ के रूप में बदल जाती है जिसका निराकरण आज भी चिकित्सा पद्धति के पास नहीं है। वस्तुतः जीवनी शक्ति का अभाव ही वह प्रमुख कारण है जो तनाव की प्रतिक्रिया रूप में दिखाई देता है, नहीं तो तनाव रचनात्मक भी हो सकता था।
साथियों का अनावश्यक अपव्यय रुके और वह उपयोगी प्रयोजनों में लगे, इसके लिए यह आवश्यक है कि काम करते समय उसमें पूरे मन से पूरी निष्ठा से, पूरे मनोयोग और पूरी तत्परता से उसे करने में जुटा जाये। इस प्रकार समान रूप से सारी तन्मयता समेट कर किसी काम को किया जाये, तो वह अधिक मात्रा में तो होगा ही, साथ ही उसका स्तर भी ऊँचा रहेगा। जिन लोगों ने संसार में बड़े-बड़े कार्य किये हैं विभिन्न क्षेत्रों को अपनी उपलब्धियों से लाभान्वित किया है, उनकी सफलता का एक ही कारण रहा है कि जब वे अपना काम आरंभ करते हैं तो एक प्रकार से उसमें तन्मय होकर खो जाते हैं। उस काम में वे इस प्रकार डूब जाते हैं कि उन्हें दूसरी बात सूझती ही नहीं। यही वह जीवन जीने कला है जो तनाव मुक्त रचनात्मक जीवन जीना सिखाती है। अध्यात्म का व्यावहारिक पक्ष यही है।