नहुष को पुण्य फल के बदले इन्द्रासन प्राप्त हुआ। वे स्वर्ग में राज्य करने लगें। ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आए, ऐसे कोई बिरले ही होते हैं। नहुष भी सत्ता मद से प्रभावित हुए बिना न रह सके। उनकी दृष्टि रूपवती इन्द्राणी पर पड़ी। वे उसे अपने अंतःपुर में लाने की विचारणा करने लगे। प्रस्ताव उनने इन्द्राणी के पास भेजा। इन्द्राणी बहुत दुःखी हुईं। राजा के विरुद्ध खड. होने का साहस उसने अपने में न पाया, तो एक दूसरी चतुरता बरती। नहुष के पास संदेश भिजवाया कि वह ऋषियों की पालकी में जोते और उस पर चढ़कर मेरे पास आवें, तो प्रस्ताव स्वीकार कर लुँगी।
आतुर नहुष ने अविलंब वैसी व्यवस्था की, ऋषि पकड़ बुलाए, उन्हें पालकी में जोता गया, उस पर चढ़ हुआ राजा जल्दी-जल्दी चलने की प्रेरणा देने लगा। दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके। अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे। एक ने कुपित होकर श्राप दे ही तो डाला-” दुष्ट! तू स्वर्ग से पतित होकर पुनः धरती पर जा गिर।” श्राप सार्थक हुआ, नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्युलोक में दीन-हीन की तरह विचरण करने लगें।
इन्द्र पुनः स्वर्ग के इन्द्रासन पर बैठे। उन्होंने नहुष के पतन की सारी कथा ध्यान पूर्वक सुनी और इन्द्राणी से पूछा-” भद्रे, तुमने ऋषियों को पालकी में जोतने का प्रस्ताव किस आशय से किया था ?” शची मुस्कराने लगीं। वे बोली-नाथ, आप जानते नहीं, सत्पुरुषों का तिरस्कार करने, उन्हें सताने से बढ़कर सर्वनाश का कोई दूसरा कार्य नहीं। नहुष को अपनी दुष्टता समेत शीघ्र ही नष्ट करने वाला सबसे बड़ा उपाय मुझे यही सूझा। यह सफल भी हुआ। देव सभा में सभी ने शची से सहमति प्रकट कर दी। सज्जनों को सताकर कोई भी नष्ट हो सकता है। बेचारा नहुष ही इसका अपवाद कैसे रहता ?