माँगलिक प्रतीक स्वस्तिक

April 1994

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भारतीय संस्कृति की यह विशिष्टता है कि वह प्रतीकों, चिन्हों, आकृतियों और अक्षरों के मध्य बड़े-बड़े रहस्यों को छिपाये हुए है। इन्हें सही-सही समझा जा सके, तो मानवी प्रगति और शाँति को अक्षुण्ण रखने में न केवल सहायता मिलेगी, वरन् ऋषियों का वह श्रम सार्थक हो सकेगा, जिसे उन्होंने इनके अन्वेषण में लगाया था।

ॐ और स्वास्तिक आर्य संस्कृति में ऐसे दो प्रतीक हैं, जो विश्व-ब्रह्मांड के भेदों को अपने में बहुतायत में संजोये हुए हैं। इन्हें अक्षर और आकृति कहकर टाल देना उचित नहीं। यह सत्य और संदेश के दो महान तत्वों को धारण किए हुए है। प्रणव यानि ओंकार यदि ब्रह्मांड-उत्पत्ति संबंधी रहस्य उद्घाटित करता है, तो उस ब्रह्मांड के चराचर जीवों की स्वस्ति-कामना स्वस्तिक में सन्निहित है। इस दृष्टि से व्यावहारिक जीवन में स्वस्तिक अधिक उपयोगी और उद्देश्यपूर्ण है। यह स्वस्तिक ही है, जो व्यक्ति को लोक व्यवहार में सौमनस्य और सामंजस्य की प्रेरणा देता है। वह जीव-जीव और मनुष्य-मनुष्य के बीच विभेद की दीवार खड़ी नहीं करता, वरन् एक ही परमात्म तत्व की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ होने के कारण समान मानते हुए उनके सौभाग्य की मंगल कामना करता है। व्यक्तित्व में वह श्रेष्ठता का संदेश वाहक है। सदाचार, संयम, सेवा, सहिष्णुता, साहस, सात्विकता, श्रमशीलता, शुचिता, स्नेह, सौजन्यता जैसे मानवोचित गुण, जिनसे मनुष्य और समाज का सर्वोपरि कल्याण होता है, इन सभी का प्रेरणास्रोत स्वस्तिक ही है। जहाँ अनुराग और प्रेम है, वहाँ प्रच्छन्न रूप से इसकी ही शक्ति क्रियाशील होती है। यह शक्ति जहाँ जितनी अधिक होगी, वहाँ उसका परिमाण में देवत्व विद्यमान होगा। माँगलिक अवसरों पर दीवारों-दरवाजों, मकानों-दुकानों पर इस शुभ संकेत को अंकित करने के पीछे यही प्रयोजन होता है कि उस मुहूर्त में पवित्र शक्ति का अधिकाधिक परिमाण विद्यमान रहे और आयोजन निर्विघ्न संपन्न हो जाय, किसी प्रकार का कोई अवरोध-अड़चन न आने पाये। बच्चों के मुँडन संस्कार के समय मुँडित मस्तक पर इसी चिन्ह को बनाया जाता है, ताकि मस्तिष्क की उस सर्वथा खाली भूमि में श्रेष्ठता का आकर्षण होकर सुसंस्कारों का बीजारोपण हो सके। प्राचीन काल में इसी कारण इस आकार के आवास विनिर्मित किये जाते थे, ताकि उसमें व्याप्त शक्ति का ज्यादा-से ज्यादा लाभ लिया जा सके। इसके अतिरिक्त इसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। शुभ सूचक होने के कारण जब भी किसी की भी नजर इस पर पड़ती है, तो उसका अवचेतन इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उसमें एक सात्विक भाव-संचार हो जाता है। विवाह-अवसर पर परिणय-मंडप और घर में यत्र-तत्र इसी निमित्त इसका अंकन किया जाता है। शादी के निमंत्रण पत्रों पर इसे प्रमुख स्थान प्राप्त होता है। इसके अलावा पूजा की वेदी पर सुशोभित होकर यह आकृति वातावरण की दिव्यता को और अधिक बढ़ाती है। दक्षिण भारत के द्वारों पर बनी अल्पनाओं से इन्हीं के विविध रूपों के दर्शन होते हैं। कर्नाटक में ‘स्वस्तिक’ नाम का एक व्रत अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसमें बहुरंगी स्वस्तिक का निर्माण कर भगवान विष्णु की अर्चना की जाती है।

इस प्रकार कर्नाटक में ‘स्वस्तिक’ नाम का एक व्रत अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसमें बहुरंगी स्वस्तिक का निर्माण कर भगवान विष्णु की अर्चना की जाती है।

इस प्रकार इस आकृति-निर्माण के पीछे दो ही उद्देश्य कारण भूत माने जाते हैं-प्रथम इसमें निहित देवशक्ति को आकर्षित करना और द्वितीय मन की भीतरी परतों को प्रभावित-उत्तेजित कर उन्हें अधिक सक्रिय बनाना। इसे देखते ही एक प्रकार का उत्साह उमड़ पड़ना उसके इसी मनोवैज्ञानिक प्रभाव को इंगित करता है। इसी कारण तंत्र शास्त्रों में इसे एक माँगलिक यंत्र की संज्ञा दी गई है। यंत्रों में यही एकमात्र ऐसी आकृति है, जो निर्द्वंद्व है, अन्यथा संसार की हर एक वस्तु द्वंद्वात्मक है, उनमें से प्रत्येक में दो विपरीत सत्ताओं की उपस्थिति है। स्वयं सृष्टि भी इसका अपवाद नहीं। वह प्रकृति और पुरुष के विरोधी युग्म का परिणाम है। द्रव्यों में ऋण-धन नामक दो प्रकार के विद्युत कण मौजूद हैं। आग जलाती है तो वह जीवनरक्षक भी है। भोजन पकाने में उसका रचनात्मक गुण काम आता है, तो मकान को भस्मीभूत करने में ध्वंसात्मक प्रकृति निमित्त बनती है। वायु सबसे बड़ी जीवनदायी है, तो तूफान उतना ही बड़ा विनाशलीला मचाने वाला, किन्तु स्वस्तिक इन सबसे परे कल्याण का उद्घोषक है। उसमें मात्र शुभ ही शुभ की कामना है। अशुभ का रंचमात्र भी नहीं। इस दृष्टि से जीवन में उसकी उपादेयता कहीं अधिक बढ़ जाती है। मनुष्य की वास्तविक उन्नति और संसार में शाँति स्वस्तिक में छिपी अवधारणा के बिना हो ही नहीं सकती। आकृति विज्ञान की यह अनुपम देन सार्थक तभी समझी जायेगी, जब हम इसकी शिक्षा को समझकर अंगीकार कर सकें।

इस प्रकार इस आकृति-निर्माण के पीछे दो ही उद्देश्य कारण भूत माने जाते हैं-प्रथम इसमें निहित देवशक्ति को आकर्षित करना और द्वितीय मन की भीतरी परतों को प्रभावित-उत्तेजित कर उन्हें अधिक सक्रिय बनाना। इसे देखते ही एक प्रकार का उत्साह उमड़ पड़ना उसके इसी मनोवैज्ञानिक प्रभाव को इंगित करता है। इसी कारण तंत्र शास्त्रों में इसे एक माँगलिक यंत्र की संज्ञा दी गई है। यंत्रों में यही एकमात्र ऐसी आकृति है, जो निर्द्वंद्व है, अन्यथा संसार की हर एक वस्तु द्वंद्वात्मक है, उनमें से प्रत्येक में दो विपरीत सत्ताओं की उपस्थिति है। स्वयं सृष्टि भी इसका अपवाद नहीं। वह प्रकृति और पुरुष के विरोधी युग्म का परिणाम है। द्रव्यों में ऋण-धन नामक दो प्रकार के विद्युत कण मौजूद हैं। आग जलाती है तो वह जीवनरक्षक भी है। भोजन पकाने में उसका रचनात्मक गुण काम आता है, तो मकान को भस्मीभूत करने में ध्वंसात्मक प्रकृति निमित्त बनती है। वायु सबसे बड़ी जीवनदायी है, तो तूफान उतना ही बड़ा विनाशलीला मचाने वाला, किन्तु स्वस्तिक इन सबसे परे कल्याण का उद्घोषक है। उसमें मात्र शुभ ही शुभ की कामना है। अशुभ का रंचमात्र भी नहीं। इस दृष्टि से जीवन में उसकी उपादेयता कहीं अधिक बढ़ जाती है। मनुष्य की वास्तविक उन्नति और संसार में शाँति स्वस्तिक में छिपी अवधारणा के बिना हो ही नहीं सकती। आकृति विज्ञान की यह अनुपम देन सार्थक तभी समझी जायेगी, जब हम इसकी शिक्षा को समझकर अंगीकार कर सकें।


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