गुरुकुल दीक्षाँत समारोह भी हो गया किन्तु तीनों विद्यार्थियों को घर जाने की आज्ञा न मिली। वे सोचने लगे अब क्या बाकी है। सब कुछ तो पढ़ सीख लिया। वर्षों घर नहीं गये उन्हें याद सता रही थी। सायंकाल होते ही गुरु ने कहा”‘ तुम तीनों चारों तो आज जा सकते हो।” जाने का नाम सुनकर विद्यार्थी बिना इंतजार किये शाम को ही चल पड़े। रास्ता पैदल का था। पगडंडी पकड़कर जंगल के रास्ते से जा रहे थे। किन्तु गुरु ने पहले ही मार्ग में काँटेदार झाड़ियाँ बिछवा दी थीं। उनमें से एक विद्यार्थी ने पगडंडी का मार्ग छोड़कर रास्ता पार कर लिया। दूसरे ने छलाँग लगाकर काँटेदार मार्ग पार कर लिया। तीसरा झाड़ियां हटाकर रास्ता साफ करने में लग गया। सोचा अंधेरे में दूसरे आगंतुक यात्री उलझेंगे बेचारों को बड़ा कष्ट होगा। साथ जिन्होंने रास्ता पार कर लिया था वे बोले छोड़ो भी जल्दी चलो अंधेरा होने वाला है। तीसरा विद्यार्थी जो काँटा साफ करने में लगा बोला-”इसीलिए और जरूरी है काँटा साफ करना कि कोई बेचारा अंधेरे में उलझ न गिरे। तुम चलो मैं पीछे से आता हूँ। अचानक झाड़ी में से गुरु प्रकट हुए, बोले जो दो आगे चले गये हैं अंतिम परीक्षा में असफल रहें हैं अभी उन्हें कुछ दिन गुरुकुल में और ठहरना होगा। जिसने काँटे बीने थे उसकी पीठ थपथपाकर कहा तुम अंतिम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए तुम जा सकते हो।। गुरु ने कहा अंतिम परीक्षा शब्द की नहीं प्रेम की थी। पाँडित्य की नहीं औरों के लिए करुणा थी।