दृश्यमान वैभव-विस्तार ही सब कुछ नहीं

April 1994

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किसी का बहिरंग का वैभव-बड़प्पन देखकर उसकी गरिमा का मूल्याँकन करना सही नहीं कहा जा सकता। गरिमा उत्कृष्टता में छिपी रहती है, क्योंकि सशक्तता उसी के साथ जुड़ी रहती है। सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने पर भौतिकता का कलेवर नहीं रहता, पर इससे शक्ति में कोई कमी नहीं आती, वरन् वह आवरण का भार हल्का हो जाने पर और भी अधिक सम्पन्न बनती जाती है।

अध्यात्म-सूक्ष्मता का विज्ञान है। उसमें पदार्थ के विस्तार को नहीं, गुणों की- सूक्ष्म विशेषताओं को, तेजस्विता को, अधिक महत्व दिया गया है। आँतरिक उत्कृष्टताएं आँखों से दृष्टिगोचर नहीं होतीं, तो भी उनका प्रभाव कितना अधिक होता है, इसे सहज ही जाना जा सकता है। विचारवान इसलिए विस्तार की अपेक्षा सूक्ष्मता-जन्य प्रखरता को ही महत्व देते हैं।

दृश्य रूप बड़े हो तो उसकी महत्ता भी उतनी ही होगी, यह बात स्थूल स्तर पर ही सही सिद्ध होती है। सूक्ष्म प्रयोजनों में स्वल्प का महत्व बढ़ता जाता है। दृश्य जगत क्या है ? पदार्थों का समुच्चय। पदार्थ क्या है ? यौगिकों, तत्वों और परमाणुओं का समन्वय। परमाणु क्या है ? विद्युत बिंदुओं का संगठन। इन विद्युत बिंदुओं- इलेक्ट्रॉन- प्रोटानों की भी गहराई अभी खोजी जा रही है। दृश्य जगत वस्तुतः उन विद्युत बिंदुओं से आरंभ होता है, जो कहने सुनने में सरल, किंतु देखने- अनुभव करने में अत्यंत छोटे कलेवर के कारण अति कठिन है।

हमारे शरीर के कोशाणु बहुत ही छोटे हैं। उनकी अवशोषण शक्ति भी उनके कलेवर के अनुरूप ही स्वल्प है। उनमें प्रवेश कर सकने वाले पदार्थ इतने छोटे होने चाहिए, जो इन शरीरगत कोशाणुओं के भवन में आसानी से प्रवेश पा सके। आहार में प्राकृतिक रूप से हर जीवनोपयोगी पदार्थ बहुत ही छोटे अंशों में विद्यमान रहते हैं, इसलिए वे पच कर शरीर में घुल-मिल जाते हैं; पर यदि उन्हें सघन रूप से लिया जाय, तो उनके मोटे कण चूर्ण-विचूर्ण होने में बहुत समय और श्रम लेंगे और तब कहीं कठिनाई से थोड़ी मात्रा में हजम होंगे। यही कारण है कि शाक-भाजी, अन्न-दूध में अत्यंत स्वल्प मात्रा में मिले हुए क्षार और खनिज हमारे शरीर में घुल जाते हैं ; किंतु उन्हीं पदार्थों को यदि गोलियों के रूप में खाया जाये तो उनका बहुत छोटा अंश ही शरीर को मिलेगा, बाकी स्थूल होने के कारण बिना पचे ही मल मार्ग से निकल जाएगा।

हाइड्रोजन परमाणु का एक इलेक्ट्रॉन अपने केन्द्र के चारों ओर एक सेकेण्ड में 6000 खरब चक्कर काटता है। परमाणु की संरचना सौरमण्डल के सदृश्य है। उनके भीतर विद्युत कण भयंकर गति से घूमते हैं, फिर भी उनके पेट में बड़ा सा आकाश भरा रहता है। परमाणुओं के गर्भ में चल रही भ्रमणशीलता के कारण ही इस संसार में विभिन्न हलचलें हो रहीं हैं। यदि वे सब रुक जायें, तो पदार्थ सत्ता अपना अस्तित्व बनाये रख पाना मुश्किल हो जायेगा और सर्वत्र अकल्पनीय शून्यता दिखाई पड़ेगी।

वजन की दृष्टि से कौन भारी और कौन हल्की है, इस आधार पर उसकी गरिमा का मूल्याँकन नहीं हो सकता। चट्टान बहुत भारी है ; किंतु उसका मूल्य हीरे के एक टुकड़े के बराबर नहीं होता। सबसे हल्के हाइड्रोजन अणु अन्य भारी समझे जाने वाले अणुओं की तुलना में कम नहीं अधिक ही महत्व प्राप्त कर रहें हैं।

बड़े पदार्थ अणुओं का एक विशाल रूप होता है। प्रत्येक कण, को अपना स्वतंत्र अस्तित्व और प्रभाव प्रकट करने का अवसर नहीं मिलता। वे यदि अलग-अलग होकर अपनी मूलसत्ता को प्रकट कर सकने की स्थिति में होते हैं, तो आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार नमक का एक करोड़वाँ भाग भी अपना आश्चर्यजनक काम करता है।

आहार और चिकित्सा में सूक्ष्मता को महत्व मिलना चाहिए। इस तथ्य पर विज्ञान वेत्ता बहुत समय से प्रकाश डाल रहें हैं। होम्योपैथी के जनक डा. हैनीमैन का कहना था कि यदि समस्त चिकित्सा पद्धतियों को सूक्ष्मता के सिद्धाँत पर आधारित किया गया होता, तो आज जितनी बीमारियाँ दवाओं के पार्श्व प्रभाव से उत्पन्न होती देखी जाती हैं, वह व्यथा तब शायद न दिखाई पड़ती। उनका मानना था कि दवाओं की स्थूल मात्रा से रोग घटने के बजाय बढ़ते हैं। इसलिए होम्योपैथी में सूक्ष्मता के सिद्धाँत को महत्व दिया गया है। आयुर्वेद भी इसी सिद्धाँत पर आधारित है, पर एलोपैथी इस पर विश्वास नहीं करती। वह मात्राओं की बहुलता पर अधिक भरोसा करती है। अतएव उसमें एक व्याधि के समाप्त होते ही भारी मात्रा में खाई गई दवाओं की प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरी बीमारी के उत्पन्न होने की शत-प्रतिशत आशंका बनी रहती है। यह औषधियों के सूक्ष्म स्थूल स्वरूप की लाभ हानि हुई।

आहार शास्त्र में भी यही सिद्धाँत काम करता दिखाई पड़ता है। दूध को लें, तो उसमें एक ग्रेन का छः लाखवाँ अंश जितना स्वल्प लोहा होता है; पर इतने से ही बच्चे के शरीर की लौह आवश्यकता पूरी हो जाती है। यदि इसी लोहे को गोली के रूप में दें, तो उससे पोषण की जगह उल्टा-स्वास्थ्य संकट उठ खड. होगा और शरीर पर अनावश्यक बोझ बढ़ेगा।

बात को और भी स्पष्ट रूप से समझने के लिए यह स्मरण रखना चाहिए कि एक क्यूबिक इंच के 1, 20, 00, 000 वाँ भाग आकार का एक लाल रक्त कण होता है। एक बूँद खून में इस तरह के प्रायः तीन लाख अणु होते हैं। वे ही खनिजों, क्षारों- तथा अन्य रसायनों को अपने ऊपर लादे सारे शरीर में ढोते फिरते हैं। इन पर कितनी हलकी और विरल वस्तु लद सकती है, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है और खाद्य पदार्थों में सूक्ष्मता के सिद्धाँत की उपयोगिता समझी जा सकती है।

मनुष्य की स्वयं की पूर्ण सत्ता बीज रूप में कितनी छोटी होती है, यह जानने के लिए हमें शुक्राणु के आकार पर विचार करना होगा। गर्भाधान के समय उसका आकार एक क्यूबिक मिलीमीटर का दस लाखवाँ भाग जितना होता है। उसी के भीतर शारीरिक और मानसिक दृष्टि से एक पूर्ण मानव मौजूद रहता है। इस आधार पर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सूक्ष्मता अपने अंदर कितनी बड़ी विशालता संजोये रहती है। इतने पर भी उसे यह पता नहीं होता कि काया की विशालता का कोई मूल्य नहीं। जीवन तो नाप-तौल में न आ सकने वाली अकिंचन- सी चेतना का है। वह चेतना ही इतने बड़े शरीर-यंत्र के अगणित कलपुर्जों का संचालन करती है। जब वह शिथिल पड़ जाती है, तो शरीर लड़खड़ा जाता है और विलग हो जाने पर वही देह तत्काल सड़-गल कर नष्ट होने लग जाती है।

यहाँ कहा मात्र इतना भर जा रहा है कि आकार-प्रकार की डील-डौल से पदार्थ और प्राणी की शक्ति एवं श्रेष्ठता का अनुमान लगाना ठीक नहीं। जो व्यक्ति अथवा वस्तु आकार में बड़े एवं आकर्षक हैं, वह श्रेष्ठ एवं सामर्थ्यवान होंगे, इसके विपरीत छोटे, अनाकर्षक व सामान्य दिखने वाले क्षुद्र व छोटे होंगे- यह मान्यता उचित नहीं। सूक्ष्म अदृश्य है और स्थूल दृश्य- इस आधार पर यह कहा जाए कि सूक्ष्म की महत्ता नगण्य जितनी है, तो इसे बाल-बुद्धि ही कहना चाहिए। वास्तविकता तो यह है कि हम जैसे-जैसे सूक्ष्मता की ओर बढ़ते हैं और अधिक समर्थ और सशक्त होते हुए उपनिषद्कार के शब्दों में “ विद्युत ब्रह्म “ की सीमाएं छूने लगते हैं। इसी का इसी का संकेत वृहदारण्यक उपनिषद् के ऋषि “ विद्युद्येव ब्रह्म “ (5-7-1) कह कर करते हैं। अध्यात्म अवलंबन द्वारा इसी प्रक्रिया को सम्पन्न किया जाता है इस मार्ग में बढ़ता हुआ व्यक्ति जैसे-जैसे गहराई में उतरता जाता है उसका आपा उतना ही उत्कृष्ट और उदात्त बनता जाता है, बाह्य जीवन कृत्रिमता से दूर सरल और सादगी युक्त चला जाता है। उसका बाह्य दृश्यमान स्वरूप वैसा होते हुए भी भीतर की महानता अपनी जगह अक्षुण्य बनी रहती है।

चर्म चक्षुओं से दीख पड़ने वाले वैभव विस्तार का मूल्य बढ़-चढ़ कर मानने की स्थूल बुद्धि प्रायः धोखा खाती है। गहराई में तलाश करने से पता चलता है कि महत्व विस्तार का नहीं उसमें सन्निहित सूक्ष्म क्षमता और उत्कृष्टता का है। मनुष्य को धन, बल, पद, ज्ञान आदि के आधार पर नहीं, उसकी आँतरिक स्थिति के मूल्याँकन के बाद भली-भाँति देखकर ही यह समझा जा सकता है कि वह कितना समर्थ और कितना गरिमा वान है।


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