धारावाहिक विशेष लेखमाला-13 - युग पुरुष पूज्य गुरुदेव पं.श्रीरामशर्मा आचार्यजिनने साधना-सूत्रों की नूतनशोध से द

April 1994

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जिंदगी कैसे जिएं ? परम पू. गुरुदेव का जीवन इस शाश्वत प्रश्न का युगानुरूप समाधान है। यों इस सवाल को हल करने के लिए परिस्थिति एवं परिवेश के अनुरूप समय-समय पर अनगिनत कोशिशें होती रही हैं। इसी के जवाब में न जाने कितने शास्त्र, दार्शनिक ग्रंथ रच डाले गए। महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य, गोरखनाथ, चैतन्य आदि मनस्वियों ने समूचे जीवन तप करने के सामयिक समाधान प्रस्तुत किए। इस पहेली को हल करने के लिए तरह-तरह की साधना प्रणालियों का निर्माण किया। प्रयासोँ की इस निरंतरता के बावजूद पहेली अनबूझ बनी रही। कारण रहा शाश्वत जीवन दृष्टि का अभाव। सामयिक समाधानों ने समय के अनुरूप निदान तो प्रस्तुत किए, पर वर्तमान परिस्थितियों में उनकी छवि धूमिल पड़ गई। ऐसे में आह्वान उस युग ऋषि का हुआ, जो बदलते युग को नवीन जीवन दृष्टि दे। जीवन-साधना के नवीन सूत्रों की खोज करे।

ज्ञानमूर्ति गुरुदेव का तपोनिष्ठ जीवन, ऐसे ही युग ऋषि का जीवन है, जिन्होंने अस्तित्व की सूक्ष्मताओं और बदलती परिस्थितियों के मर्म को परखा व ऐसे समाधान प्रस्तुत किए जो सामयिक होते हुए भी शाश्वत हैं-चिर नवीन हैं। तथ्य का स्पष्टीकरण उन्हीं के शब्दों में करें तो-”युग परिवर्तन के साथ-साथ परिस्थितियाँ बदल जाती हैं। पृथ्वी सौर-मंडल के साथ अनन्त आकाश में भ्रमण करती रहती है। अपनी कक्षा में घूमते हुए भी वह सौर मंडल के साथ कहीं से कहीं चली जाती है। इस परिभ्रमण में ब्रह्मांड किरणों की न्यूनाधिकता से मानव शरीर और मन की सूक्ष्म स्थिति में भारी अंतर पड़ जाता है। साँसारिक परिस्थितियाँ और भौतिक हलचलें-सामाजिक विधि व्यवस्थाएं भी मानव जीवन की मूलभूत स्थिति में भारी परिवर्तन कर देती हैं। इस परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए ही युग साधना का स्वरूप समय-समय पर निर्धारित करना पड़ता है। प्राचीन काल की साधारण विधियाँ उस समय के अनुरूप थीं-परिवर्तन के साथ साधन क्रम भी बदलेंगे। यदि हेर-फेर न किया जाए तो प्राचीन काल में सफल होने वाली साधनाएं अब सर्वथा निरर्थक और निष्फल सिद्ध होती रहेंगी।”

निःसंदेह न पहले की परिस्थितियाँ हैं और न जीवन का पुराना सिलसिला ही बाकी है।लंगोटी लगाकर जंगल में रहने कंद मूल-फल खाने की बात सर्वसाधारण के लिए आज बड़ी बेतुकी है। शहरों की भीड़-भाड़ में न तो अब जंगल बचे हैं और न ही कंद-मूल-फल। फिर शारीरिक स्थिति भी बदल गई है। वर्तमान मानव शरीर में पहले जैसी कठोरताओं को सहने की क्षमता अब कहाँ से बची है। पुराने शास्त्रों में प्रतिपादित कृच्छ व्रतों की कठोरताओं को सामान्य मनुष्य शायद एक भी दिन न सह सके। यही क्यों मन में भी अब परिवर्तित स्थिति में है। पहले का सहज सरल भाव-प्रवण मन अब तार्किक, कूटनीतिक और प्रपंची हो गया है। श्रद्धा का स्थान अब तर्क ने ले लिया है, विश्वास की जगह संदेह ने घेर ली है।

बदली हुई परिस्थितियों में न केवल जीवन का स्वरूप बदला है, बल्कि उसकी व्यापकता भी बढ़ी है। अब जीवन का दायरा सिर्फ शरीर-प्राण और अल्पविकसित मन तक ही सिमटा-सिकुड़ा नहीं है। परिपक्व मन और विकसित बुद्धि की व्यापक क्षितिज भी इसमें समा चुकी है। ऐसे में प्राचीन साधना सूत्रों का औचित्यहीन और एकाँगी लगने-लगना स्वाभाविक है।

पहले के साधना सूत्रों पर विचार करें तो यही पाते हैं कि वर्तमान में इनका प्रयोग खंडित जीवन जीने का उपक्रम भर होगा। तत्कालीन समय में जिंदगी के छोटे दायरे में कसी-बंधी होने के कारण ये सूत्र जरूर अपना औचित्य सिद्ध करते रहे होंगे, पर आज की स्थिति में ये संभव नहीं। उदाहरण के लिए गोरखनाथ की हठ प्रयोग पद्धति को ही लें। शरीर और प्राण को सबल बनाने और उसको आधार बनाकर आत्म जागरण करने में निश्चित ही यह पद्धति समर्थ है। लेकिन आज की स्थिति में रहने वाले शहरी नागरिक इसे अपनी जीवन साधना की प्रणाली नहीं बना सकते। चित्र-विचित्र शारीरिक व्यायामों जटिल प्राणायामों को सहने लायक न तो उनका शरीर है और न ही समर्थ प्राण। ऐसे में इसकी सार्वभौमिक उपादेयता पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है।

यही दशा महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित जीवन सूत्रों की है। यदि संसार के सभी श्रेष्ठ पुरुष इस प्रणाली को अपनाकर वन, गुहा, कंदराओं में जाकर वैराग्य रूप धारण कर लें तब विश्व वसुधा का स्वरूप क्या होगा? क्या वह नंदन-कानन की जगह नरक का धधकता दावानल न बन जाएगी। यही बात वैष्णवों की भक्ति के संदर्भ में भी है। भावुकता और इसका विकास निश्चित ही श्रेष्ठ है। पर विचारहीन भावुकता आज के बुद्धिवादी युग में ठगी और शोषण का ही शिकार बनेगी।

ऐसा नहीं कि ये सभी साधना प्रणालियाँ निर्मूल्य और सारहीन हैं। आज के युग में भी इनके मूल्य और महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता है। इनमें से प्रत्येक में बेशकीमती और बहुमूल्य रत्न भंडार छुपे हैं। पर वर्तमान स्थिति में इनका उपयोग किस तरह से हो ये विचारणीय है। इ बिन्दु पर चिन्तन करने से यही मिलता है कि समस्त साधना प्रणालियाँ शरीर प्राण और मन में किसी न किसी एक पर आश्रित अवलंबित हैं। जो प्रणाली जिसको अपना आधार बनाकर चलती है, उसका विकास और उत्कर्ष तो पर्याप्त होता है लेकिन अस्तित्व के अन्य अंग अछूते रह जाते हैं। उदाहरण के स्वरूप हठयोग शरीर को विकसित करता है। तंत्र साधनाएं प्राण को सफल बनाती हैं। पतंजलि के योग सूत्र मन का विकास करते हैं।शंकराचार्य का वेदाँतिक सिद्धान्त बौद्धिकता को उत्कर्ष प्रदान करता है।पर परिणाम में स्थिति कुछ ऐसी रहती है कि जैसे किसी आदमी के पैर मोटे हो जाएं शेष अंग दुबले बने रहें। अथवा पेट फूलकर बाहर निकल आए-शेष अवयव दीन दुर्बल बने रहे।

इस बेडौल और भद्दी स्थिति से बचने का एक ही उपाय है कि समस्त साधना प्रणालियों के मणि-मुक्तकों को कलात्मक ढंग से पिरोकर एक समर्थ प्रणाली बनाई जाए। ऐसी प्रणाली जो युगानुरूप हो और सर्वजनीन भी। जिसे जीवन के हर क्षेत्र के, संसार के हर देश के लोग सरलतापूर्वक अपना सकें। थोड़े ही प्रयासों में लाभान्वित हो सकें, आत्मिक उत्कर्ष पा सकें।

युग ऋषि गुरुदेव के प्रयासों में यही सौंदर्य साकार हुआ है। उन्होंने साधना और जीवन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय माना। यों यह बात किसी को कहने-सुनने में साधारण लग सकती है। लेकिन जिन्होंने साधना पद्धतियों परिशोध की है साधकों के जीवन का बारीकी से अध्ययन अन्वेषण किया है। वे इस विरल सुयोग को पाकर सुखद आश्चर्य से भर जाएंगे।

अब तक के आध्यात्मिक इतिहास में जीवन और साधना दो विरोधी ध्रुवों पर स्थित रहे हैं। अपने अस्तित्व की शुरुआत से ही मानव समाज यह धारणा संजोये रहा है कि-” जिसे साधना करनी हो उसे जीवन का त्याग करना पड़ेगा। जिसे जीवन का मोह है, उसे साधना का लाभ नहीं मिलेगा।” ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, पारसी, यहूदी, जैन सभी जगह इसी धारणा को बद्धमूल होते अनुभव किया जा सकता है कि जो साधक है उसे जीवन से क्या लेना-देना, उसे संन्यासी हो जाना चाहिए और जिसे जीवन से प्रेम है उसे साधना का क्या करना।

गुरुदेव न मानव इतिहास में पहली बार जीवन और साधना में एकात्म स्थापित किया। उन्होंने कहा-”क्या वस्तुतः जीवन ऐसा ही है जिसे रोते-खीझते पूरा किया जाना है? इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि अनाड़ी हाथों में पड़कर हीरा भी उपेक्षित होता है। तो बहुमूल्य मनुष्य भी क्यों न भार बनकर लदा रहेगा।.....यदि उसे कलाकार की प्रतिभा से संभाला, संजोया जाए तो निश्चय ही उसे स्वर्गीय परिस्थितियों से भरा पूरा किया जिया जा सकता है। साधना जीवन जीने की कला है।”

जिंदगी किस तरह जिएं?गुरुदेव के चिंतन कोश में इसका उत्तर है- जीवन जीने की कला सीखकर। दूसरे शब्दों में साधना करके। उन्होंने मनुष्यत्व का एक अर्थ साधना को माना है। हो भी क्यों न? पश्चिमी विचारक नीत्शे ने एक स्थान पर कहा है कि आदमी एक सेतु है-’मैन इज ए ब्रिज’ एक ओर पशुता दूसरी ओर देवत्व। या तो पशु हो जाए तो सूख पाले, क्षणिक इंद्रिय तृप्ति में स्वयं को गंवा डाले। अथवा परमात्मा हो जाए, तो आनन्द को पाले। परमात्मा हो जाने के लिए आनन्द को पाने के लिए अनिवार्य है साधना। यदि साधना की समर्थता नहीं होगी तो मनुष्यत्व भी बचा नहीं रहेगा। फिर तो पशु ता में गिरना अनिवार्य है।

यही कारण है कि साधन विहीन जीव न आसानी से पशुता की ओर खिंच जाता है। दुनिया में शराब और सेक्स का आकर्षण और किसी कारण नहीं है। शराब हमें पशु में पहुँचा देने की सुविधा बन जाती है। नशा करके हम वही हो जाते हैं जहाँ सभी पशु हैं। सेक्स से भी थोड़ा सुख मिलता है पशु में वापस में उतर आते हैं। यही कारण है कि दुनिया की किसी भी साधना प्रणाली में इन दोनों का विरोध किया गया है। विरोध का अर्थ है पशु होने की मनाही। परंतु विरोध व मनाही करने भर से काम नहीं चलेगा। आवश्यक है कि सर्वांगीण साधना पद्धति का निर्माण। जिसे मनुष्य मात्र बिना हिचकिचाहट के अपना सके और स्वयं के मनुष्यत्व को देवत्व में बदल सके।

पू. गुरुदेव ने इसके तत्वदर्शन को साधना-उपासना, आराधना की त्रिवेणी में संजोया है। कारण शरीर को विकसित करने के लिए उपासना, सूक्ष्म शरीर के विकास हेतु साधना और स्थूलशरीर की सबलता के लिए आराधना की तकनीक सुझाई है। इसे शरीर, प्राण और मन अर्थात् कर्म, भाव और चिंतन को परिष्कृत करने, विकसित करने की पद्धति भी कह सकते हैं। उपासना को भक्ति योग, साधना को ज्ञान योग और आराधना को कर्म योग की भी संज्ञा दी जा सकती है। इसे याँ भी कह सकते हैं आराधना व्यवहार के उत्कर्ष की प्रणाली है, साधना चिंतन के उत्कर्ष की विधि है और उपासना से चरित्र उदात्त बनता है।

इन तीनों की चिंतन और अनुभूति में संसार की प्रत्येक साधना प्रणाली का सार-निष्कर्ष इसमें समावेशित दिखता है। यही क्यों षड्दर्शनों का सार-मर्म भी इन्हीं में छुपा हुआ है। साँख्य योग, वेदाँत, न्याय, वैशेषिक-मीमाँसा इन छः दर्शन के मर्म पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि साँख्य और योग एक-दूसरे के पूरक हैं। इन्हें उपासना की सुपरिचित पद्धति के रूप में जाना जाता है। वेदाँत और न्याय का पूरक युग्म चिंतन परिष्कृत करने की साधना है। वैशेषिक और मीमाँसा में आराधना का कर्म कौशल छुपा है।

उपासना कारतूस है, साधना बंदूक। अच्छी बंदूक होने पर ही कारतूस का चमत्कार देखा जा सकता है। बंदूक रहित अकेला कारतूस तो थोड़ी आवाज करके फट ही सकता है इससे सिंह, व्याघ्र का शिकार नहीं किया जा सकता। अनैतिक गतिविधियाँ और अवाँछनीय विचारधाराएं यदि भरी रहें तो कोई साधक आत्मिक प्रगति का वास्तविक और चिरस्थाई लाभ न ले सकेगा। आत्मबल से संबंधित सिद्धियाँ और आत्म कल्याण के साथ जुड़ी विभूतियाँ प्राप्त करने के लिए साधना अनिवार्य है। अपने गुण-कर्म-स्वभाव पर गहरी दृष्टि डालते हुए छिद्र हों उन्हें बंद करना चाहिए। फूटे हुए बर्तन में जल भरा नहीं रह सकता छेद वाली नाव तैर नहीं सकती, दुर्बुद्धि और दुश्चरित्र व्यक्ति इन छिद्रों से अपना सारा उपासनात्मक उपार्जन गंवा बैठता है और उसे छूँछ बनकर खाली हाथ रहना पड़ता है। उपासना और साधना का फलितार्थ आराधना में होता है। आराधना स्वयं को व्यापक बनाने, विराट पुरुष से स्वयं को एकात्म करने की कला है।

इन तीनों के योग के व्यावहारिक प्रयोग को युग ऋषि ने ‘प्रज्ञा योग’ नाम दिया है। इसके नित्य उपक्रम को चार भागों में बाँटा जा सकता है। (1) जप और ध्यान जैसे भावना प्रधान उपासनात्मक कृत्य जिन्हें परिमार्जन-प्रखरता के लिए नित्य करना अनिवार्य हैं। इस क्रम में पाँच प्रमुख कृत्य हैं-आत्मशोधन, देवपूजन, जप-ध्यान, विसर्जन-सूर्यार्घदान(2)आत्मबोध की प्रातःकालीन, साधना। जिसमें दिन भर क्या किया जाना है, इस सुरदुर्लभ मानव शरीर का सदुपयोग किस प्रकार होना है, इस पर चिंतन किया जाता है। आत्म-विश्लेषण व निरीक्षण की इस साधना को प्रज्ञायोग का प्राण कहा जा सकता है। (3)दैनिक कर्म की आराधना-कर्म भगवान की अर्चना है। इस भाव से दैनिकचर्या के साथ लोकमंगल के लिए समय व श्रम का नियोजन (4)तत्वबोध की रात्रि-कालीन साधना-जिसमें दिनभर का लेखा-जोखा लिया जाता है तथा पूरे दिन को एक पूरा जीवन मानकर मृत्यु की गोंद में जाने का चिंतन मानकर मृत्यु की गोद में जाने का चिंतन करते हुए प्रातः के पर्यवेक्षण की एक रिहर्सल की जाती है। इन चारों का समन्वय का नाम प्रज्ञायोग है। उपासना के प्रथम चरण में जहाँ कृत्यों के साथ जुड़े भावनात्मक संकल्पों की प्रधान भूमिका है। वहाँ आत्मबोध तत्वबोध की साधना में चिंतन-मनन का प्राधान्य है। आराधना में कर्म के माध्यम से विराट पुरुष से एकात्मकता का भाव है। इन तीनों उपक्रमों को समान महत्व देते हुए नियमित रूप से भावनापूर्वक सम्पन्न करने से उन विभूतियों का प्रत्यक्ष रसास्वादन होने लगता है जो साधना मार्ग पर सही रूप से संकल्प-पूर्वक चलने वाले को मिलना चाहिए।


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