बौद्धिक उतार-चढ़ाव, तर्क-वितर्क हमारे क्रियाकलापों को अधिक लाभदायक और सुरक्षा-युक्त बनाने में सहायता करते हैं ; पर प्रायः जीवन को वे कोई दिशा या प्रेरणा नहीं देते। किसी विचार से सहमत होने पर आवश्यक नहीं कि उसे कार्यान्वित करने का उत्साह उभरे ही। जो किया जाता है, उसका आनंद सामान्यतया तब मिलता है, जबकि सफलता मिलती है। असफलता प्राप्त हो, तो दुःख होगा। यह बौद्धिक अनुभूति हुई। आन्तरिक आस्थाओं का प्रभाव इससे ज्यादा गहरा है। उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठावान रहने भर की मान्यता दृढ़ रहे तो इतने भर से कोई व्यक्ति अपनी उत्कृष्टता पर गर्व कर सकता है। यह आस्थाओं का चमत्कार है, जो बिना सफलताओं के भी मात्र अपनी आँतरिक उपस्थिति भर से अंतःकरण को उत्फुल्लता से भरे रहती है।
आस्थाएं प्रेरणा उभारती हैं ; बढ़ने के लिए गति और सोचने के लिए प्रकाश प्रस्तुत करतीं हैं। उदात्त की दिशा में बढ़ सकना आस्थाओं की विद्यमानता के बिना हो ही नहीं सकता। निष्ठा से संकल्प उठता है और संकल्प से साहस और पराक्रम उभरते हैं। तन्मयता तथा तत्परता इसी अंतःस्थिति में से किसी प्रयास से नियोजित होती है और मन एवं कर्म का ऐसा स्तर बन पड़ने पर ही महत्वपूर्ण प्रगति संभव होती है। सोचने से पता चलता है कि बुद्धि की अपनी उपयोगिता होते हुए भी श्रद्धा की शक्ति असीम है। इसलिए शास्त्रों में श्रद्धा को ही जीवन कहा गया है। व्यक्तित्व और कुछ नहीं- श्रद्धा का प्रतिबिंब-परिचय भर है। गीताकार की यह उक्ति उसी सत्य की पुष्टि करती है-” श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छृद्वः
स एव सः “ अर्थात् “ यह व्यक्ति श्रद्धा का कुँज है। जिसकी जैसी श्रद्धा है, वह वैसा ही है।” यथार्थता यही है।शरीर की बनावट और मस्तिष्कीय कुशलता का महत्व होते हुए भी उनका व्यक्तित्व के स्तर का निर्माण करने में कोई विशेष योगदान नहीं है। मनुष्य के व्यक्तित्व की ढलाई श्रद्धा की भट्टी के सान्निध्य में होती है। इस श्रद्धा तत्व की गरिमा को यदि स्वीकार किया जा सके तो, यह भी मानना पड़ेगा कि उसे विकसित, परिष्कृत एवं परिपक्व करने के लिए ईश्वर-मान्यता का अवलंबन लेना आवश्यक है। ईश्वर के अस्तित्व की आस्था और उसके साथ तादात्म्य बिठाने के प्रयास में इतना लाभ प्रत्यक्ष मिलता है कि मनुष्य की आदर्शवादी निष्ठाएं परिपक्व होती हैं और उसके सहारे व्यक्ति ऐसी बनता है, जिसमें आत्मसत्ता के अस्तित्व का परिचय भीतरी और बाहरी दोनों क्षेत्रों से प्राप्त किया जा सके।
ईश्वरीय सत्ता के विकृत स्वरूप का ही इन दिनों बोलबाला है। उनके तथाकथित भक्त उसे हर प्रकार से बहलाने- फुसलाने के कौतुक करते देखे जाते हैं और उन टंट-घंटों से अपने मनोरथ पूरा करने के सुख-स्वप्न देखते रहते हैं। जब तक इनसे लाभान्वित होने की आशा बनी रहती है, तब तक आधा अधूरा उत्साह भी रहता है ; किंतु जैसे ही लाभ संदिग्ध दिखता है, वैसे ही भक्ति भाप बनकर आसमान में उड़ जाती है। कुछ दिनों पूर्व जो ईश्वर-विश्वास उपजा था, अब वही बेकार-बकवाद लगने लगता है और नास्तिकता जैसा मानस बनने लगता है ; संसार ईश्वर-विहीन प्रतीत होता है। बात इस प्रकार की भ्राँति और उथली मनोभूमि की नहीं, सच्ची आस्तिकता की चल रही है। उसका वास्तविक लाभ श्रद्धा का सृजन करना है। यह उच्चस्तरीय आस्था के बिना संभव नहीं। यह आस्था जब प्रगाढ़ होती है, तब श्रद्धा कहलाती हैं। श्रद्धा ही महानता पैदा करती है और जीवन को इस रूप में विकसित करती है, जिसकी सर्वत्र प्रशंसा होती है। जहाँ इसका अभाव होता है, वहीं महामानव बनना तो दूर जीवन में पग-पग पर दुःखों का, कष्टों का सामना करना और संकट झेलना पड़ता है। श्रद्धा और आस्तिकता का एक-दूसरे के साथ अटूट सम्बंध है। किसी को ईश्वर का प्रथम अनुदान मिलता है तो, वह श्रद्धा के रूप में ही मिलता है। फिर जैसे-जैसे इस तत्व की उपलब्धि गहनतम होती जाती है, वैसे-वैसे जीवन के अभिनंदनीय बनने की संभावना उसी अनुपात से परिपुष्ट होती चलती है। सिद्ध साधकों में जो अद्भुत सिद्धियाँ दिखाई पड़ती हैं उनकी जननी इस स्थिति को कहा जा सकता है। यह आस्तिकता का परोक्ष लाभ हुआ जिसमें संदेह करने की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। पूजा का प्रत्यक्ष प्रतिफल मिलने में शंका की गुँजाइश होने पर इस श्रद्धा के वरदान को असाधारण वरदान की ही संज्ञा दी जा सकती है।
जीवन में भले-बुरे प्रसंग घटते रहते हैं, सफलताएं भी मिलती हैं ; पर असफलताओं, हानियों, विछोहों और दुर्घटनाओं की भी कमी नहीं। प्रतिकूलता आने से आदमी टूटने लगता है। कई बार तो वह इतना किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है कि क्या करना और क्या सोचना चाहिए यह सामान्य-समझ भी नहीं रह जाती, फलतः जो हानि सामने आती है, उसकी भयंकरता असाधारण होती है। टूटा व्यक्ति अपने ऊपर से आस्था-आत्मविश्वास खो बैठता है और प्रकाश की ज्योति खो बैठने से अंधकार में भटकता है। इस स्थिति में मनुष्य जीवित तो रह सकता है ; पर उज्ज्वल भविष्य की आशाएं एक प्रकार से गुम हो जाती हैं। यह अवस्था प्रत्यक्ष दुर्घटनाओं से भी अधिक भयावह है। यद्यपि यह दीखती नहीं ; पर दुष्परिणामों की दृष्टि से उसकी विभीषिका कम नहीं होती। ऐसी विपन्नता से बचने का एक ही सशक्त उपाय है ईश्वर-विश्वास।
ईश्वर-विश्वास यदि वास्तविक हो तो इस प्रकार के दुहरे प्रहार से बच सकना संभव हो सकता है। बाहरी कठिनाइयों की बढ़ी-चढ़ी विभीषिका के बावजूद आँतरिक साहस और संतुलन की स्थिति बनी रहे, तो वे सहज ही सरल हो सकती है। यह आत्मज्योति श्रद्धा का तेल पाकर ही जलती है। आस्तिक जन यह अनुभव करते हैं कि कोई दिव्य शक्ति उसके साथ है। स्वजन-संबंधियों, परिचितों-मित्रों का सहयोग छूट जाने पर भी वह सहारा देगी। दूसरे साथ छोड़ सकते हैं ; पर माता का दुलार कुपुत्र के प्रति भी यथावत् बना रहता है- यही उद्गार किसी कवि ने निम्न प्रकार से प्रकट किये हैं.....
माता न कुमाता हो सकती, हो पुत्र कुपुत्र भले कठोर। सब देव-देवियाँ एक ओर, ऐ माँ ! मेरी तू एक ओर।
मातृ स्नेह और ईश्वरीय करुणा एक ही बात है। इस संदर्भ में इन दोनों का वात्सल्य बेटे के प्रति निरंतर उमगता रहता है, भले ही बेटा कितना ही पतित क्यों न हो। ईश्वर की कृपा पतित पर- पथभ्रष्ट पर भी बरसती है और डरावनी विभीषिकाओं के बीच भी अपने आँचल में आश्रय देती है। जो उस आश्रय पर विश्वास करते हैं, उन्हें उज्ज्वल भविष्य की ज्योति घोर अंधकार की घड़ियों में भी दीख पड़ती हैं और उतना भर सहारा मिलने से मनुष्य डूबने से बच जाता है, फिर से उठ खड. होने का अवलम्बन प्राप्त कर लेता है।
जो भावनाशील और जाग्रत होती है, वैसी आत्माएं ही भगवद् अनुकंपा प्राप्त कर पाती हैं। इस संदर्भ में सूफी कवि हफीज ने अपने संस्मरण में लिखा है- एक रात उसके गुरु ने आवाज देकर किसी शिष्य को बुलाया। सब सो रहे थे ; अकेला हफीज ही जाग रहा था, सो वह उठ कर आया। गुरु ने उसे बहुत सारी महत्वपूर्ण बातें बतायी। इसके बाद फिर गुरु ने आवाज देकर किसी शिष्य को आने के लिए कहा। अब भी हफीज को छोड़सभी सो रहें थे, सो वह फिर जा पहुँचा और इस बार भी वह लाभदायक ज्ञान नोट करके लाया। उस रात इसी प्रकार पाँच बार पुकार हुई और हर बार हफीज ही पहुँचता और ज्ञान पाता रहा। कवि ने लिखा है कि गुरु के इस विशेष अनुग्रह और शिष्य के लाभान्वित होने के सौभाग्य के पीछे जगना ही कारण था। अन्य छात्रों की तरह यदि वह भी सो रहा होता तो उस लाभ से वंचित ही रहना पड़ता।, जो केवल उसे ही मिल सका।
महर्षि अरविंद कहते थे-” ईश्वर-दर्शन के लिए आत्मा की ज्योति का आलोक रहना आवश्यक है, अन्यथा अंधकार में समीप रहते हुए भी अन्य पदार्थों की तरह ईश्वर को भी नहीं देखा जा सकेगा। आत्मा की ज्योति तीन धाराओं में बहती है- जागरुकता, सतर्कता और चैतन्यता। जिसका अंतःकरण जाग्रत है ; जिसका विवेक सतर्क है और जिसकी क्रियाशीलता में चैतन्यता का समावेश है, वह हर क्षेत्र में सफल होता है। इन्हीं सफलताओं में से एक ईश्वर का साक्षात्कार भी है।”
जी. एल. गोल्डस्मिथ कहते थे- “ भगवान मनुष्य की अंतरात्मा और वह सदा सत्य की ओर उन्मुख रहती है। कोई अपनी उस अंतरात्मा से विमुख नहीं हो सकता, जो विश्वात्मा का ही एक अंग है। ऐसी दशा में किसी का भी सच्चे अर्थों में नास्तिक बन सकना संभव नहीं। यह बात दूसरी है कि ईश्वर संबंधी किन्हीं मान्यताओं से चिढ़ कर कोई उस समूची सत्ता से ही इन्कार करने का आक्रोश व्यक्त करने लगे।
मनुष्य एक ऐसी चेतना से सम्पन्न है, जो ऊँचा बैठना, श्रेष्ठ बनना और शाँति पाना चाहती है। इसी चेतना को आत्मा कहा गया है, जो हर किसी के भीतर विद्यमान है। लक्ष्य-निर्णय करने
में ही लोग भटकते हैं। आकाँक्षा सर्वत्र एक ही रहती है। असफलता एवं विपन्नता से जब मन उद्विग्न हो रहा हो, तो उसे केवल आत्मा के आँचल में ही शाँति मिल सकती है। वैभव और वर्चस्व आत्मा में निहित है। कष्टग्रस्त तो शरीर होता है। आत्मा को पहचानने पर अपनी सुसम्पन्नता और सुखद भवितव्यता पर विश्वास बना रहता है। जहाँ इस प्रकार की आस्था रहेगी, वहाँ विपन्नताओं से न तो असह्य उद्विग्नता होगी और न निराशा का भार ही वहन करना पड़ेगा।
कोई ईश्वर से विमुख होने की बात कर सकता है ; पर सत्य से विमुख होने का साहस नहीं कर सकता। झूठ बोलने वाले भी सत्य का प्रतिपादन करते हैं और अपने प्रति दूसरों से सत्य व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं। दुष्टता से खिन्नता और सज्जनता में प्रसन्नता आत्मा की प्रकृति है। उसे अपने व्यवहार में कोई चाहे भले ही उपेक्षित करता रहे, फिर भी दूसरों के व्यवहार-दर्पण में उसे देखने की आकाँक्षा बनी रहती है। दूसरों के साथ-साथ स्वयं को भी तभी संतोष मिलता है, जब कुछ उदार सद्व्यवहार बन पड़ता है। यही है आत्मा का अस्तित्व, जिससे इन्कार कर सकना न नास्तिक के लिए संभव है और न आस्तिक के लिए। हम इस आत्मा को झुठलाने का प्रयत्न कर सकते हैं ; पर इसमें सफलता किसी को भी मिल नहीं सकती। अपने अस्तित्व में अपनी मूल प्रकृति में समाये हुए सत्य, श्रेष्ठ और संतोष के प्रति आस्था रखे बिना किसी का भी काम नहीं चल सकता। इसलिए आत्मा के अस्तित्व से इन्कार करने वाला भी आत्म-विश्वास का परित्याग कर सकने में समर्थ व सफल नहीं हो सकता।