वारी तेरे नाऊं पर, जित देखूँ तित तू

April 1994

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मेरे जीवन का अर्थ क्या है, इति क्या है, हे प्रभु! मैं यह तो नहीं जानता। मुझे तो ऐसा लगता है, तुम्हारे जीवन का ही एक अंश लेकर प्रादुर्भूत हुआ, प्राणी मैं केवल तुम्हारा ही हूँ। तुम्हीं मेरे भीतर और बाहर भी तुम्हीं हो। तुम्हीं मेरे सर्वस्व हो। मेरे सर्वस्व तुम्हीं तो हो। प्रेम और प्यार के साँसारिक रिश्ते-नाते मेरे लिए क्या हैं? में संसार के लिए क्या हूँ? हाड़-माँस का पुतला। उसे लोग कितना चाहते हैं। मैं सब कुछ देकर भी तो संसार की इच्छाएं पूर्ण नहीं कर सकता। मेरे अंतरमन में जो शुद्ध प्रेम की धार बह निकली है, उसे तुम्हारे अतिरिक्त और कौन समझेगा?मेरे प्रियतम! मेरे लिए तुम्हीं सबसे प्रिय हो। सबसे प्रिय संसार में तुम्हीं मेरे लिए हो।

मछली को मैंने जल से बाहर आकर तड़पते देखा। माँ का अगाध वात्सल्य से रिक्त होते हुए बालक का करुण-क्रन्दन मैंने देखा, वर्षों हो गए वनवासी प्रियतम नहीं आये, उनके प्रेम की पीर में विकल विरहणी की पीड़ा को मैंने देखा। प्रभु! तुमसे पृथक् होकर मैं भी तो पीड़ाओं के सागर में गिर गया हूँ। मेरी सुनने वाला कोई नहीं रह गया, देवेष! मुझे तो अपनी इस पृथकता को देर तक बनाए रखना दूभर हो गया है, करुणाकर! मुझे अपने अंतस्तल में खींच लो। मुझे आत्मसात कर लो प्रभु।

मेरे मन, मेरी बुद्धि मेरी चेतना में अब एक तुम्हारा ही ध्यान शेष है कहने को श्वास चल रही है, किन्तु यह मुझे ऊपर उठाए लिए जा रही है। नीलम आकाश में जहाँ हे दिव्य! केवल तुम्हारा ही प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा है-वहाँ केवल तुम्हीं अपने अनहद नाद से विश्व भुवन में मधुर गीत आलोड़ित कर रहे हो। अब यह श्वास जो तुम्हारी दिव्य छवि-दिव्य ध्वनि में अटक गई है, पीछे नहीं लौटाना चाहती सर्वेश्वर! अब इसे पीछे न लौटने दो, महाभाग! कौन जाने फिर तुम्हारी कृपा की किरण मिले या न मिले।

चार मंथन की प्रक्रिया में कष्ट उठाए बहुत दिन हो गये प्रभु! एक दिन मुझे ऐसा लगा था, संसार में केवल तुम्हीं सत्य हो। उस दिन मेरे जीवन की चंद श्वासें तुम्हें ही समर्पित हो गई थीं। उस दिन से तुम्हारा दिया ही खाया जो तुमने पिलाया-पिया। अमृत भी विष भी। कामनाएं कभी मिटीं कभी भड़कीं। तुमने कई बार बहुत समीप आकर मुझ व्यथित को संभाला। कई बार पुकार लगाई, पर तुम मेरे द्वार तक भी न आए। कभी एक क्षण के लिए भी आ जाते तो ऐसा लगता, जीवन परिपूर्ण हो गया। एक पल की अनुभूति से ही हृदय कमल खिल उठता था। सुख की खोज के लिए पतंग की तरह उड़ते मन की डोर टूट जाती और लगता मुझमें तुममें कोई अंतर नहीं रह गया। जो तुम सो मैं। किन्तु अगले ही क्षण कौन सा पर्दा डाल देते हो, जो तुम एक तरफ और मैं दूसरी तरफ खड़ा ताकता रह जाता हूँ। अतीत की सुधियों में खोए मन को विश्राम दो प्रभु! अब मुझमें और अधिक प्रतीक्षा की शक्ति शेष नहीं रही। तुम्हारे चिर मिलन की बाट जोहते आँखें थक गई हैं। मेरी आँखें तुम्हें अपलक ढूंढ़ते-ढूंढ़ते थक गई हैं।

अपने लिए अलग क्या हूँ?मैं तो तुमसे अलग हूँ भी नहीं। मुझमें तुम्हीं तो सुनते हो। मैंने देखा ही कब, यह तुम्हीं तो मेरी आँखों के भीतर बस कर देखते हो। मुझे क्यों दोष देते हो प्रभुवर! मैंने इच्छा ही क्या की?तुम मेरे भीतर बैठकर नाना प्रकार की इच्छाएं न जगाते तो मुझे क्या आवश्यकता थी, जो मैं संसार में भटकता। जो कुछ भी है अच्छा या बुरा तुम्हारा ही है। अब मुझे इस प्रपंच में पड़कर रहा नहीं जाता, मेरे सर्वस्व! जो कुछ भी है तुम्हारा है, सो तुम ले लो। अपना दिया हुआ सब वापस कर लो।

पीड़ाओं के सागर से निकलकर यों ही मैं एक दिन ध्यानावस्थित होकर प्रभु से अनवरत पुकार किए जा रहा था। वहाँ मेरे अतिरिक्त दूर दूर तक सिर्फ एक निर्जन पृथ्वी थी और उसे अंक में भरता हुआ शुभ्र नीलाकाश। समस्त बहिर्मुखी चित-वृत्तियों को मैंने समेटकर अपने भीतर भर लिया था। यों कहें कि मैं अपने हृदय की गुफा में आ बैठा था और उसमें बैठा-बैठा उस परम ज्योति के दर्शन कर रहा था, जो इतने समीप थी-जितना मेरा हृदय और इतनी दूर कि उसे अनंत आकाश की विशाल बाहों से भी स्पर्श करना मेरे लिए कठिन हो रहा था। मैं निरंतर उस परम ज्योति परमात्मा का भजन कर रहा था। उनके भजन में, मैं संसार की सुध-बुध खो बैठा था।

हे प्रभु, मुझे क्या पता तुम दोष रहित हो, गुणाकर हो या सर्वथा निर्गुण। तुम प्रकृति हो या पुरुष, निर्मल हो या मलीन-मुझे तो एक दृष्टि में तुम ही तुम दिखाई दे रहे हो। तुम्हारी ही सत्ता सारे जग में समा रही है। तुम्हीं फूलों में हंस रहे हो, पत्तों में डोल रहे हो। वनस्पतियों का रस और हरीतिमा भी तुम्हीं हो। सूर्य-चन्द्र और नक्षत्रों की चमक तुम्हीं हो। सूर्य-चन्द्र और नक्षत्रों की गति सब कुछ तुम्हीं हो। यह संसार तुम्हीं में समा रहा है या तुम्हीं संसार में समा रहे हो।

तुमसे बढ़कर सुंदरतम, रूप राशि वाला मैंने कहीं और नहीं देखा। तुमसे महान और नहीं पाया। पृथ्वी से भी अधिक क्षमाशील और जनता से भी बढ़कर वात्सल्य का प्रवाह भेजने वाले प्रियतम! तुम्हारे अतिरिक्त और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा। यदि मैं किसी और का गुणगान करूं, किसी और को देखूँ, किसी और को सुनूँ तो मेरे जीवन!मेरी आँखें न रहें, कान न रहें, जिह्वा न रहै। प्रभु! तुम्हारे प्रेम की चाह लेकर तुम्हारे द्वार पर पड़ा हूँ। मेरे सर्वस्व! ठुकरा दो अथवा प्यार करो अब मेरे लिए कोई और भी तो नहीं है।

हे प्रभु! मेरा जीवन तुम्हें समर्पित हैं। अब मैं कहीं भी रहूँ, कैसे भी रहूँ। दुःख मिले या सुख तेरा प्रेम तो निबाहूँगा ही। मेरे मन में अब साँसारिकता की चाह नहीं रही। स्वर्ग मिले या मुक्ति, नरक मिले या स्वर्ग मुझे उसकी भी चिंता नहीं है, प्रभु तुम्हें पाकर अब मुझे और कुछ पाने की कामना शेष नहीं रही। हे प्रभु! तुम्हारा ही प्यार, तुम्हारा ही नाम, तुम्हारा ही भजन मेरे शरीर मन और आत्मा में छाया रहै। हे मेरे जीवन आधार! मुझ पर तुम्हारा पूर्ण अधिकार रहे, तुम मुझपर पूर्ण अधिकार रखना।


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