सौम्य, निरापद दक्षिणमार्गी साधना ही श्रेयस्कर

April 1994

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सावित्री महाशक्ति की साधना का भौतिक रूप, तंत्र कहलाता है। इसे वाम मार्ग भी कहते हैं। इसका उद्देश्य साँसारिक कामनाओं की पूर्ति कर सुखोपभोग करना है। इससे नाश भी संभव है और निर्माण भी, पर आत्मोपलब्धि का वह प्रयोजन अधूरा रह जाता है, जो मानव जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य है। संक्षेप में कहे, तो गायत्री का वह पक्ष, जो अपरा प्रकृति पर नियंत्रण करता है, गायत्री तंत्र है।

ताँत्रिक साधनाओं की कार्यपद्धति का आधार ही यह है कि दूसरे प्राणियों के शरीरों में निवास करने वाली शक्ति को हस्ताँतरित करके एक जगह इकट्ठा कर लिया जाये और फिर उस संचित शक्ति का मनमाना उपयोग किया जाये। तंत्र में बलि प्रथा का यही प्रयोजन है। उसमें किन्हीं पशुओं का वध करके उनके पाँच प्राणों का उपयोगी भाग खींच लिया जाता है। जैसे शिकारी लोग वराह के शरीर में से चर्बी को अलग से निकाल लेते हैं वैसे ही तंत्र साधक उस वध होते हुए पशु के दस प्राणों में से उपयोगी पाँच प्राणों को चूस जाते हैं और उससे अपनी शक्ति बढ़ लेते हैं। बकरे, भैंसे, मुर्गे आदि के बलिदानों का आधार यही है। मृत मनुष्यों के शरीर में एक सप्ताह तक कुछ उपचक्र एवं ग्रंथियों में चैतन्यता बनी रहती है। श्मशान भूमि में रहकर मुर्दों द्वारा शव-साधना करने वाले अघोरी उन मृतकों से भी शक्ति चूसते हैं। देखा जाता है कि कई अघोरी मृत बालकों की लाशों को जमीन में से खोद ले जाते हैं, मृतकों की खोपड़ी (महापात्र) लिए फिरते हैं चिताओं पर भोजन पकाते हैं। यह सब किन्हीं निहित उद्देश्यों के लिए किया जाता है। कुछ ताँत्रिक कोमल प्रकृति के वयस्क स्त्री-पुरुषों या छोटे बालकों के प्राण चूस जाते हैं। ऐसे अघोरी, कापालिक, रक्तबीज, वैतालिक, ब्रह्मराक्षस, प्रेत, पितर, वताँक पुरुष तथा डाकिनी, शाकिनी, हाकिनी, कपाल-कुँडला, सर्पसूत्रा, धूमावती आदि स्त्रियाँ अब भी गुप्त प्रकट रूप से जहाँ-तहाँ देखी जाती हैं। मंत्र विज्ञान का यह अभिचार पक्ष सर्वाधिक निंदनीय है।

इस प्रकार मनुष्य या पशु-पक्षियों के शरीर से खींची हुई शक्ति अधिक समय तक ठहरती नहीं, उसका तात्कालिक कार्य के लिए ही उपयोग हो सकता है। किसी पर मारण प्रयोग करना होता है, कृत्या, घात, चौकी या मूँठ चलानी होती है, तो उसके लिए किन्हीं प्राणियों का बलिदान आवश्यक हो जाता है। ताँत्रिकों का आधार ही दूसरों की शक्ति अपहरण करके अपना काम चलाना है। इसी प्रकार उनके जितने भी काम होते हैं, वे इसी तरह एक स्थान से शक्ति का अपहरण करके दूसरे पर फेंकने के आधार पर होते हैं।

किसान और डाकू में जो अंतर है, वही अंतर दक्षिण मार्गी योगी और वाममार्गी ताँत्रिक में है। किसान अपने खेत में बाहर से लाकर बीज, खाद और पानी डालता है। परिश्रमपूर्वक उसकी जुताई, निराई, गुड.ई, सिंचाई, कटाई करता है, तब फसल का लाभ उठाता है। डाकू इन सब झंझटों में नहीं पड़ता, वह किसी भी राह चलते को लूट लेता है। किसान की अपेक्षा डाकू अधिक नफे में रहता मालूम होता है। वह एक दिन में अमीर बन जाता है और रईसी शान के साथ दौलत खर्च करता है। किसान वैसा नहीं कर सकता। कारण यह है कि उसे धन कमाने में काफी समय, श्रम, धैर्य एवं सावधानी से काम लेना पड़ता है। अतः खर्चते समय पीड़ा होती है। डाकू की स्थिति दूसरी है, वह लूट कर लाता है, तो होली की तरह उसे फूँक भी सकता है। ताँत्रिक चमत्कारी सिद्धि युक्त होते हैं। थोड़े ही दिनों के प्रयत्न में वे प्रेत, पिशाच सिद्ध कर लेते हैं और उनके द्वारा अपना आतंक फैलाते हैं। किसान और डाकू की कोई तुलना नहीं। इसी प्रकार योगी और ताँत्रिक की भी कोई समता नहीं हो सकती है।

एक का आधार परा प्रकृति है, तो दूसरे का अपरा प्रकृति। एक का प्रयोजन यदि आत्मलाभ और ईश्वर-दर्शन है, तो दूसरे का स्वार्थ-साधन। एक सात्विक है, दूसरा तामसिक। एक इष्ट युक्त है, तो दूसरे में अनिष्ट की पग-पग पर संभावना होती है। एक अंतर्जगत का अनुसंधान करता है, तो दूसरा बहिर्जगत का शोषण-दोहन। एक के अंतस् में पंचकोश, पंच प्राण, चेतना चतुष्टय, षट्चक्र एवं उपचक्रों, मात्रिकाओं, ग्रंथियों, भ्रमरों, कमलों, उपत्यिकाओं को जाग्रत करके आनंददायिनी अलौकिक शक्तियों को हस्तगत करना मूलभूत हेतु होता है, जबकि दूसरे में प्राणियों की प्राण-चेतना का अपहरण कर सामर्थ्यवान बनना प्रमुख होता है। योग में स्वयं को परिष्कृत कर ईश्वरीय चेतना को आविर्भूत किया जाता है, तो तंत्र में क्रूर- कृत्यों द्वारा दूसरों की चेतना लूट ली जाती है। योग समत्व पैदा करता है, तो तंत्र का वाममार्गी पक्ष विभेद की दीवार खड़ी करता है। एक का कार्य रचनात्मक है, दूसरे का ध्वंसात्मक है। एक प्रकृति के अनुरूप चलना सिखाता है, तो दूसरा प्रकृति के विपरीत। एक में व्यवस्था की प्रेरणा है तो दूसरे में अव्यवस्था की भावना है। इस प्रकार विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखा जाये तो दोनों की राह दो विपरीत दिशाओं में जाती दिखाई पड़ती है। योग यदि व्यक्ति और समाज के लिए उपयोगी और मंगलकारी है, तो अभिचार प्रयोग अमंगल की ही संभावनाओं से भरा हुआ है। इसीलिए तंत्र को सर्वसाधारण और अनाधिकारी पुरुषों के अनुपयुक्त ठहराया गया है।

गायत्री द्वारा यह दोनों ही प्रयोग संभव है। उससे योग की दक्षिण मार्गी साधना भी होती है और तंत्र का वाममार्गी अनुष्ठान भी हो सकता है। संसार के अन्य किसी मंत्र से जो कार्य होते हैं, वे सब गायत्री से भी हो सकते हैं। तंत्र साधना भी हो सकती है, पर जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है तंत्र मार्ग कंटकाकीर्ण है। उसमें पग-पग पर हानि की संभावना रहती है। कई बार तो चूक होने पर जान के भी लाले पड़ जाते है। इसलिए उसका अनुष्ठान चाहे जब, जहाँ, जिस किसी के लिए निषिद्ध माना गया है।

गायत्री का तंत्र पक्ष उग्र साधना प्रणाली युक्त है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत जो साधना की जाती है, उससे प्रकृति के अंतराल में बड़े प्रबल कंपन उत्पन्न होते हैं, जिनके कारण ताप और विक्षोभ की मात्रा बढ़ती है।

मनुष्य के बाह्य एवं आँतरिक वातावरण में एक प्रकार की सूक्ष्म आँधी चलने लगती है, जिसकी प्रचंडता के झकझोरे लगते हैं। यह झकझोरे मस्तिष्क की कल्पना-तंतुओं से जब संघर्ष करते हैं, तो अनेकों प्रकार की भयंकर प्रतिमूर्तियाँ दृष्टिगोचर होने लगती हैं। ऐसे अवसर पर डरावने भूत, प्रेत, पिशाच, देव, दानव जैसी आकृतियाँ दीख सकती हैं। दृष्टि-दोष उत्पन्न होने से कुछ न कुछ दिखाई दे सकता है। अनेकों प्रकार के शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शों का अनुभव हो सकता है। यदि साधक निर्भयतापूर्वक इन स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं को देखकर मुस्कराता न रहे, तो उसका साहस नष्ट हो जाता है और उन भयंकरताओं से यदि वह भयभीत हो जाय, तो वह भय उसके लिए जानलेवा संकट बन सकता है।

वाममार्गी तंत्र का शक्तिस्रोत दैवी, ईश्वरीय शक्ति नहीं वरन् भौतिक शक्ति हैं। प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु अपनी धुरी पर द्रुतगति से भ्रमण करते हैं। उनके घर्षण से ऊष्मा पैदा होती है। तंत्र शास्त्र में इसी शक्ति को काली, दुर्गा, बगला, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डा, कालरात्रि, त्रिपुरा जैसे नामों से पुकारा जाता है। इस ऊष्मा को प्राप्त करने के लिए अस्वाभाविक, उल्टा प्रतिगामी मार्ग ग्रहण करना पड़ता है। जल के बहाव को रोका जाय, तो उस प्रतिरोध से एक शक्ति का उद्भव होता है। जो ताँत्रिक वाममार्ग पर चलते हैं, वे काली शक्ति का प्रतिरोध करके अपने को एक तामसिक, पंचभौतिक बल से सम्पन्न कर लेते हैं। उलटा आहार, उलटा विहार, उल्टी दिनचर्या, उल्टी गतिविधि सभी कुछ उनका उल्टा होता है।

द्रुत गति से एक नियत दिशा में दौड़ती हुई रेल, मोटर, नदी, वायु आदि के आगे आकर उसकी गति को रोकना और उस प्रतिरोध से शक्ति प्राप्त करना- यह खतरनाक खेल है। हर कोई इसे कर भी नहीं सकता, क्योंकि प्रतिरोध के समय झटका लगता है। प्रतिरोध जितना ही कड़ा होगा, झटका भी उतना ही जबरदस्त लगेगा। तंत्र साधक जानते हैं कि जन कोलाहल से दूर एकाँत खंडहरों, श्मशानों में निविड़ अर्धरात्रि के समय जब उनकी साधना का मध्यकाल आता है, तब कितने रोमाँचकारी भय सामने आ उपस्थित होते हैं, इसे भुक्तभोगी ही जानते हैं। उनसे न तो डरना, न विचलित होना साधारण काम नहीं है। साहस के अभाव में यदि इस प्रतिरोधी प्रतिक्रिया के साधक भयभीत हो जायें, तो वह पागल, बीमार, गूँगा-बहरा, अंधा हो सकता है। साहसी और निर्भीक प्रकृति के मनुष्य इस मार्ग में सफलता प्राप्त करते देखे जाते हैं।

तंत्र के चमत्कारी प्रलोभन निश्चित रूपेण असाधारण हैं। दूसरों पर आक्रमण करना तो उसके द्वारा बहुत ही सरल है। किसी को बीमारी, पागलपन, बुद्धि भ्रम, उच्चाटन उत्पन्न कर देना, प्राणघातक संकट में डाल देना आसान है। सूक्ष्म जगत में भ्रमण करती हुई किसी “चेतना-ग्रंथि” को प्राणवान बनाकर उसे प्रेत, पिशाच, बैताल, भैरव, कर्ण पिशाचिनी, छाया पुरुष आदि के रूप में सेवक की तरह काम लेना, सुदूर देशों से अजनबी चीजें मंगा देना, जेब की वस्तुएं या अज्ञात व्यक्तियों के नाम पते बता देना ताँत्रिकों के लिए संभव है। घुमावती विद्या के माध्यम से वेष बदल लेना या किसी वस्तु का रूप बदल देना भी उनके लिए असंभव नहीं। ऐसी कितनी ही विलक्षणताएं उनमें देखी जाती हैं, परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि इन शक्तियों का स्रोत परमाणुगत ऊष्मा ही है, जो परिवर्तनशील है। यदि थोड़े दिनों साधना बंद रखी गई, त्रुटि बरती गई या छोड़ दी गयी तो, उस शक्ति का घट जाना एवं स्वयं का अहित हो जाना अवश्यंभावी है।

ऐसे में अभिचार प्रयोगों की उपयोगिता सीमित हो जाती है और तात्कालिक प्रयोजनों तक ही सीमाबद्ध होकर वह रह जाती है, किंतु एक स्वतंत्र विज्ञान होने के नाते उसका लाभ तो लिया ही जा सकता है। लिया जाना चाहिए पर आशंका

एक ही है, विज्ञान के सदुपयोग की तुलना में दुरुपयोग होने की संभावना अधिक बनी रहती है, इसके अतिरिक्त इसका आधार गलत और खतरनाक है। शक्ति प्राप्त करने के उद्गम स्रोत अनैतिक और अवाँछनीय हैं, साथ ही प्राप्त सिद्धियाँ भी अस्थायी हैं। इस दृष्टि से जितना परिश्रम एक ताँत्रिक करता है, उसकी तुलना में वह घाटे में रहता है। यह समय, श्रम यदि आत्मकल्याण के लिए नियोजित होता, तो उसका अपना भी कल्याण होता और संसार व समाज का भी, किंतु तंत्र में कम समय में उपलब्धि एवं चमत्कारी आकर्षण ही प्रलोभन का मुख्य कारण है, जिसका खामियाजा प्रयोक्ता को भुगतना पड़ता है। इसीलिए अद्भुत होते हुए भी इस मार्ग को निषिद्ध एवं गोपनीय ठहराया गया है। अन्य समस्त तंत्र साधनाओं की अपेक्षा गायत्री का वाममार्गी प्रयोग अधिक शक्तिशाली है यह सच है और यह भी सत्य है कि अन्य सभी विधियों की अपेक्षा इस विधि से मार्ग ही निरापद और ग्रहण योग्य है, उसी का अवलंबन लिया जाना चाहिए।

पड़ता है। इसीलिए अद्भुत होते हुए भी इस मार्ग को निषिद्ध एवं गोपनीय ठहराया गया है। अन्य समस्त तंत्र साधनाओं की अपेक्षा गायत्री का वाममार्गी प्रयोग अधिक शक्तिशाली है यह सच है और यह भी सत्य है कि अन्य सभी विधियों की अपेक्षा इस विधि से मार्ग ही निरापद और ग्रहण योग्य है, उसी का अवलंबन लिया जाना चाहिए।


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