मनुष्य है, जीता-जागता एक बिजलीघर

April 1994

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मनुष्य ब्रह्मांड का ही प्रतीक-प्रतिनिधि है। उसके अंदर वह समस्त शक्तियाँ विद्यमान हैं, जो हमें इस विराट विश्व में दिखाई पड़ती हैं। इसी विशेषता के कारण ऋषियों ने मानवी काया को “माइक्रो काँस्म” कहकर अभिहित किया है। यदि प्रयास-पूर्वक इस सूक्ष्म ब्रह्मांड को अपने अंदर प्रकट किया जा सके, तो मनुष्य सचमुच देवता के समतुल्य अलौकिक और असाधारण बन जाय। यदा-कदा उसकी यही असाधारणता अद्भुत विद्युत शक्ति के रूप में प्रकट और प्रत्यक्ष होती रहती है।

घटना सन् 1846 की है। नोरमैंडी, फ्राँस की एक 14 वर्षीय लड़की एंगेलिक कोटिन एक दिन अपनी फैक्टरी में काम कर रही थी कि अकस्मात् उसने देखा कि उसके संसर्ग में आने वाली वस्तुएं उछल-उछलकर दूर छिटक जाती हैं। उसे इस पर आश्चर्य तो हुआ, पर सहसा विश्वास न हो सका कि ऐसा उसके स्पर्श के कारण ही हो रहा है। पुष्टि के लिए दस्ताने सिलने वाली मेज के ऊपर रखी एक कील को उसने छूने का प्रयास किया। उसकी उंगलियाँ ज्यों ही उसके निकट पहुँची, कील उसकी पकड़ से दूर छिटक गई। दस सप्ताह तक यह सिलसिला जारी रहा, उसके बाद ही सबकुछ सामान्य हुआ। इस बीच कोटिन एकदम असहाय बनी हुई थी। उसका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। वह जिस भी चीज के नजदीक पहुँचती अथवा स्पर्श करती, उसमें विचित्र हलचल होने लगती। कुर्सी में बैठने का उपक्रम करते ही वह खिसककर आगे बढ़ जाती, बिस्तर बुरी तरह काँपने लगते, रसोईघर में प्रवेश करते ही बरतन खनकने लगते और समीप पहुँचते ही इधर-उधर उछलकर गिरने लगते। पुस्तक, भोजन, वस्त्र आदि हर वस्तु के साथ यह विचित्रता दिखाई पड़ती।बाद में पेरिस के “अकादमी ऑफ साइंस” के विशेषज्ञों द्वारा सूक्ष्मता से उस लड़की का अध्ययन किया गया, पर विशेषज्ञ दल यह बताने में बिलकुल असमर्थ रहे कि ऐसा क्यों कर होता है। उनने इस बात से भी इन्कार किया कि यह विद्युत चुँबकीयता से संबंधित कोई घटना है। उनका तर्क था कि इसमें वस्तुएं व्यक्ति से चिपकती हैं, विकर्षित नहीं होतीं। उनके अनुसार यह शरीर-शक्ति का ही कोई परिवर्तित रूप था।

दूसरी घटना 1890 की है और इसकी प्रकृति पहली से कुछ भिन्न है। मामला तब प्रकाश में आया, जब लुईस हैम्बरगर नामक एक युवक एक दिन अपने वर्कशाप में काम करने गया। उसने देखा कि उसकी उपस्थिति से घात्विक पुर्जों में कुछ अनूठी हलचल हो रही है। अब उनमें से एक पुर्जे को उठाने की कोशिश की, तो पकड़ने से पूर्व ही वह उसकी उंगलियों में आ चिपका। जब उसके सामने आलपिनों से भरा एक डिब्बा रखा गया, तो पिन डिब्बे से कूद-कूदकर उसकी खुली हथेली से चिपकने लगीं। बाद में परस्पर चिपकती हुई पिनों की एक लंबी शृंखला बन गई। यह कौतुक “ मेरीलैंड कॉलेज ऑफ फार्मेसी, बाल्टीमोर” के वैज्ञानिकों के सम्मुख हो रहा था, जो बाल्टीमोर के इस अद्भुत युवक की जाँच करने के विचार से उपस्थित हुए थे। लंबी पड़ताल के पश्चात् निष्कर्ष के रूप में वे इतना ही कहते पाये गये कि घटना की व्याख्या विज्ञान द्वारा संभव नहीं, कदाचित् यह कोई रहस्यमय प्रसंग है, जिसमें शरीर की सूक्ष्म शक्ति किसी कारणवश अकस्मात् फूट पड़ती हो। इसकी भलीभाँति व्याख्या रहस्यवाद करने में सक्षम है।

एक प्रसंग 1938 का है। न्यूयार्क की “यूनिवर्सल काउंसिल फोर साइकिक रिसर्च” नामक संस्था ने एक पुरस्कार की घोषणा करते हुए कहा था कि जो कोई वस्तुओं को अपनी मानसिक शक्ति द्वारा आकर्षित अथवा विकर्षित करने का कौशल प्रदर्शित कर अपनी दक्षता सिद्ध करेगा, उसे 10000 डालर इनाम दिया जायेगा। इसके उपराँत न्यूयार्क की एक महिला एंट्वायन टिमर आगे आयी और चुनौती स्वीकार की। एक प्रदर्शन के दौरान लोगों ने देखा कि रसोईघर के बर्तन उसके हाथों से इस बुरी तरह चिपक गये कि मुश्किल से ही उन्हें अलग किया जा सका।

कई बार इस क्रम में लोगों के जमीन से चिपकने का भी प्रकरण सामने आते देखा गया है। ऐसा ही एक मामला जोपलिन, मिसूरी में तब देखने में आया, जब फ्रैंक मैककिन्स्ट्री नामक एक युवक प्रातः भ्रमण के लिए निकला। कुछ दूर चलने के पश्चात् रास्ते में उसका मित्र जान ड्यूक मिल गया। वह मित्र से बातें करने लगा। जब पुनः चलना चाहा, तो उसने अनुभव किया कि किसी शक्ति ने उसके पैरों को जमीन से जकड़ रखा है। बहुत कोशिश के पश्चात् भी वह आगे बढ़ने में सफल न हो सका, तो अंततः आगे बढ़ गये दोस्त को आवाज दी। ड्यूक ने बलपूर्वक उसे उस स्थिति से मुक्त किया। फिर जब कभी फ्रैंक को इस दशा का आभास मिलता, वह चलते हुए बाहर कभी नहीं रुकता।

यदा-कदा इस प्रकार की विद्युत चुँबकीय सक्रियता अस्वस्थता की स्थिति में देखी जाती है। घटना जनवरी 1837 की है। ऑक्सफोर्ड, न्यूहेम्पशायर की एक महिला जेनी बीमार पड़ी तो उसकी उंगलियों से करीब डेढ़ इंच लंबी विद्युत किरणें निकलने लगीं। डॉक्टरों को इसका कारण किसी प्रकार समझ में न आया। कई प्रकार के उपचार इन्हें रोकने के लिए किये गये, पर सब निष्फल साबित हुए। अंत में छः सप्ताह बाद वह स्वयं रुक गई। ऐसा ही एक प्रकरण उस समय सामने आया, जब 1879 की गर्मियों में ओंटेरियो, लंदन की एक 19 वर्षीय लड़की कैरोलीन क्लेयर संघातिक तंत्रिका रोग से मुक्त हो रही थी। उसने देखा कि धात्विक वस्तुओं के समीप पहुँचते ही वह उछल-उछलकर उसके हाथ-पैरों से चिपकने लगती हैं। चिपकाव इतना मजबूत होता कि प्रयासपूर्वक ही उसे समाप्त कर पाना शक्य होता। कुछ दिनों के बाद वह सामान्य बन गई।

सन् 1920 में न्यूयार्क की एक जेल में विषाक्त भोजन की एक घटना के उपराँत इसी तरह का मामला घटित हुआ। जिन लोगों ने इस भोजन को ग्रहण किया, उनमें से आधे से अधिक लोगों में विद्युत चुँबकीयता दिखाई पड़ी। कागज के टुकड़े, आलपिन, हेयरपिन आदि उनकी ओर स्वतः आकर्षित होते देखे गये। वे कंपास की सुई को भी हाथ में घुमा सकते थे।

सन् 1960 के दशक में लंदन, इंग्लैंड में विद्युत चुँबकीयता की एक बड़ी ही अजीबोगरीब घटना देखने को मिली। ग्रेस चार्ल्सवर्थ अपने लंदन स्थित मकान में वित्त चालीस वर्षों से रह रही थी। सब कुछ सामान्य था, पर पिछले दो वर्षों से उसे एक विचित्र अनुभूति हो रही थी। चार्ल्सवर्थ जब भी अपने कमरे की कोई वस्तु छूती, उसे गहरा विद्युतीय आघात अनुभव होता, बिस्तर पर पड़ते ही तीव्र कंपन महसूस करने लगती, कभी-कभी उसे दीवारों पर विद्युत चिंगारियाँ चमकती दिखाई पड़तीं। जब वैज्ञानिकों ने उसके मकान की जाँच की, तो वहाँ कुछ भी असामान्यता नजर नहीं आई। विशेषज्ञों का कहना था कि जो झटके चार्ल्सवर्थ अनुभव करती है वह कहीं बाहर के न होकर स्वयं उसके शरीर के हैं।

शरीर विद्युत के हाल की घटनाओं में सबसे प्रमुख दो हैं। दोनों ही इंग्लैंड की हैं। प्रथम घटना 1973 की है। लंदन की सोफिया नामक महिला को तब कुछ आश्चर्य हुआ, जब वह चालू टेलीविजन के निकट आयी और उसके आते ही टेलीविजन गड़बड़ा गया। उस समय उसने इसे संयोग मात्र मान लिया, पर कुछ घंटे उपराँत जब वह बजते रेडियो के नजदीक आई, तो अकस्मात् उसमें भी खराबी आ गई। इसी समय उसे टेलीविजन की बात याद आयी। वह रेडियो को यथावत् छोड़कर थोड़ा पीछे खिसक गई। ट्राँजिस्टर फिर से बजने लगा। अब उसे इसका रहस्य समझ में आया कि ऐसा उसके स्वयं के कारण होता है। पुष्टि के लिये उसने एक बार टेलीविजन फिर से खोला। टी.वी.किसी खराबी का संकेत दे रहा था। वह पाँच-छः फुट पीछे आ गई। उसके पीछे हटते ही टी.वी.सामान्य हो गया और उसमें कार्यक्रम आने लगा। इस प्रकार कई बार आगे-पीछे होकर उसने यह सुनिश्चित कर लिया कि यंत्र में सामयिक खराबी की निमित्त वह स्वयं है। दूसरी घटना जैकलीन प्रीस्टमैन नामक मैनचेस्टर, इंग्लैंड की एक नारी से संबंधित है। जब जैकलीन अपने वैक्यूम क्लीनर, स्वचालित टिकट मशीन, टी.वी.सेट, रेडियो सेट के पास पहुँचती तो वे अनायास चल पड़ते। उसके वहाँ से दूर जाते ही यंत्र पुनः पूर्ववत् हो जाते। महिला की जाँच करने पर उसमें उच्च वोल् टेज की काय-विद्युत पायी गई।

प्रस्तुत प्रकरणों से यही निष्कर्ष सामने आता है कि मनुष्य एक चलता-फिरता चुँबक एवं बिजलीघर है और उसमें वैसी ही विद्युत विद्यमान है, जो याँत्रिक प्रक्रिया द्वारा उपलब्ध होती है। किसी आँतरिक गड़बड़ी के कारण जब वह बाहर आती है, तो वैसा ही प्रमाण-परिचय देने लगती है, जैसा बाह्य विद्युत। पर यह उस विशाल शक्ति-भंडार की अगणित विभूतियों का एक प्रमाण मात्र हुआ। यदि उस भंडागार को संपूर्ण रूप से जाग्रत किया जा सके, तो इस प्रकार की अनेकानेक शक्तिधाराओं को हस्तगत किया जा सकता है। तब मनुष्य साधारण न रहकर असाधारण शक्तिसम्पन्न देवमानव-महामानव बन सकता है। हम सबको इसी दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास-अभ्यास करना चाहिए।


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