युगसंधि की प्रथम किरण

September 1989

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महत्वपूर्ण परिवर्तनों के समय जो उथल पुथल होती है, उसमें से कुछ घटनाक्रम तो मंदगति से चलते रहते हैं, पर कुछ ऐसे होते हैं, जिनमें परिवर्तन की प्रक्रिया बढ़े-चढ़े रूप में होती है और हर किसी को दीख भी पड़ती है। तपते ग्रीष्म के बाद आने वाली .... वर्षा के बीच इतने प्रकार के परिवर्तन होते हैं, मानो सृष्टि का क्रम ही बदल रहा हो। पतझड़ के बाद आने वाला वसंत भी असाधारण उलट-पुलट का परिचायक होता है। बीज बोने और फसल काटने के दिनों में तैयारी तथा योजना ऐसी होती है, जिसके बीच संगति नहीं बैठती। प्रसव काल की पीड़ा और शिशु जन्म की प्रसन्नता के बीच में ऐसी ही विसंगतियाँ होती हैं। बड़े परिवर्तनों के बीच भी ऐसे ही लक्षण उभरते हैं। लंका दहन के तुरन्त बाद सतयुग की वापसी हेतु जमीन आसमान जैसे परिवर्तनों का उपक्रम चल पड़ा था।

युगसंधि सन् 1989 से आरंभ होकर सन् 2000 तक चलनी है। इन बारह वर्षों की अवधि में तूफानी हेरफेर का सिलसिला चलेगा और इक्कीसवीं सदी के आरंभ से ही स्थिति में संतुलन बनने लगेगा और नवसृजन की दिशा में अपने वातावरण के बड़े सृजनात्मक कदम उठने लगेंगे।

जनवरी सन् 89 से युगसंधि का विधिवत शुभारंभ हुआ। इस वर्ष के वसंत पर्व में उस शुभारंभ का दिव्य शिलान्यास चल पड़ा। अभी प्रथम वर्ष पूरा नहीं हो पाया कि परिवर्तन के स्वरूप दृष्टिगोचर होने लगे हैं, जो आज भले ही साधारण प्रतीत हों, पर कल उन अंकुरों को बड़े पौधों और विकसित वृक्षों के रूप में देखा जा सकेगा।

पिछले नौ महीनों में कुछ ऐसी फसलें बोई-उगाई हैं, वह संख्या में कम होते हुए भी निकट भविष्य में अपने छोटे प्रयास का आश्चर्यजनक विकास-परिणाम उत्पन्न करेंगी। विश्वसत्ता अपने नियोजन की छाप हर कहीं छोड़ती है। राजनीति भी उससे अछूती नहीं बच सकी। उसे भी ऐसे कदम उठाने पड़ते हैं, जिन्हें परिवर्तन की पूर्व भूमिका के रूप में निरूपित किया जाय तो कुछ भी अत्युक्ति नहीं है।

विश्व की आधी जनसंख्या महिलाओं के रूप में है। उसके पददलित, प्रतिबन्धित, अवशोषित, अशिक्षित स्थिति के बारे में बहुत कुछ कहा जाता रहा है। रोष प्रकट करने वाले स्थिति के विरुद्ध अपना तीखा आवेश भी व्यक्त करते रहे हैं। नारी मुक्ति आन्दोलन ने तो एक पक्षीय स्वतंत्रता घोषित करने की बगावत भी आरंभ कर दी। कानूनी और संविधान की धाराएँ सहानुभूति प्रकट करने लगीं। हीरालाल शास्त्री, महर्षि कर्वे, लक्ष्मी देवी जैसी आत्माओं ने छोटे रूप में ऐसे कार्य भी आरंभ कर दिये थे, जिनसे प्रतीत हो कि नारी की स्थिति में बदलाव की सुगबुगाहट तेजी से चल रही है। शारदा एक्ट से लेकर सती प्रथा विरोधी, दहेज विरोधी कानून ही हवा के रुख का परिचय दे रहे थे।

युगसंधि के प्रथम वर्ष में एक बड़ी घोषणा हुई है-नारी को एक तिहाई प्रतिनिधित्व मिलने की। बात भले ही पंचायत चुनावों से आरंभ हुई हो, पर वह यहीं रुकी नहीं रहेगी। कदम और भी बढ़ेगा। शासन सत्ता के अन्यान्य पक्षों में, लोक सभाओं, विधान सभाओं, म्युनिसिपल बोर्डों, अफसरों, अधिकारियों में भी यह शुभारंभ फलित होने लगें, तो उसमें आश्चर्य न मानने का मानस हमें अभी से बना लेना चाहिए। नारी अपनी वरिष्ठता और विशिष्टता अनेक क्षेत्रों में सिद्ध भी कर रही है। शुभारंभ हुआ, शंखनाद सुना गया। अब बड़े समारोह की भव्य झाँकी दीख पड़ने की भी प्रतीक्षा की जानी चाहिए।

राष्ट्र के बहुसंख्य ग्रामीण परिकर में भी असाधारण परिवर्तन की संभावनाएँ नजर आ रही हैं। ग्राम स्वराज्य की जो रूप रेखा बन रही है, उसके हजम होने में देर लग सकती है। बलिष्ठों और दुर्बलों का भेद इस नियोजन को भी सहज सफल न होने देगा। फिर भी नियति निश्चित है। जिस प्रकार देहात की जनता शहरों की ओर पलायन करती और झुग्गी झोपड़ियों में रहती है, उसी प्रकार विज्ञजन गंदगी और दुर्व्यसनों से संत्रस्त शहरी जीवन को छोड़ गाँवों की ओर भागने लगें तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। प्रदूषण जन्म रुग्णता से जिन्हें अपने प्राण बचाने हैं, वे अब शहरों से गाँवों की ओर लौटेंगे और अधिक पैसा तथा अधिक सुविधा के आकर्षण को छोड़कर जीवन और सन्तोष के प्यासे लोग अब स्वेच्छा से देहातों में बसेंगे। इस प्रवाह के उलटने में कुछ समय लग सकता है, पर भवितव्यता निश्चित है। युगसंधि के इस प्रथम वर्ष में ही इसका ब्रह्ममुहूर्त में उदय हो रहा है। मुर्गे की बाँग लग रही है कि शहरों के सघनता वाले अँधेरे के जीवन के अब कुछ ही समय बाकी हैं। उषाकाल आने और अरुणोदय होने में विलंब नहीं हैं

यह वे संभावनाएँ हैं जो अखबारों के, पत्रिकाओं के आये दिन की सुर्खियों में छपती हैं। विनाश भी हारे जुआरी की तरह दूने जोश से बढ़ चढ़ कर दाँव लगा रहा है। मरणासन्न की सांसें जोर-जोर से चल रहीं हैं।

एक ओर जहाँ अनिश्चितता पहले की अपेक्षा इन दिनों और अधिक बत्तीसी दिखा रही है, वहाँ दूसरी ओर एक नई बात भी ठीक इन्हीं दिनों प्रकाश में आ रही है। वह है हर क्षेत्र में शालीनता की पक्षधर प्रतिभाओं का उद्भव और उदय के दिनों से ही प्रतिभा का प्रदर्शन। स्वराज्य आन्दोलन के आरंभिक दिनों में भारतमाता ने विभिन्न प्राँतों और क्षेत्रों में मात्र कुछ प्रतिभाएँ ही ऐसी उद्भूत की थीं जिनमें नल, नील, अंगद, हनुमान, और भीम, अर्जुन जैसी भूमिकाएँ निबाहने की क्षमता थीं। आज सामूहिकता का युग है। अब लाठी के सहारे गोवर्धन उठेगा। रीछ-बानरों की सहायता से समुद्र सेतु बँधेगा। श्रावकों और परिव्राजकों द्वारा धर्म चक्र प्रवर्तन का क्रम चलेगा। निहत्थे सत्याग्रहियों द्वारा दुर्धर्ष सत्ता के विपरीत प्रतिरोध खड़ा किया जायगा। इसी को कहते हैं-प्रतिभाओं का उभार परिष्कार।

यह प्रक्रिया भी अछूती नहीं है। शान्तिकुँज की एक छोटी सी खदान को खोदने वाले असंख्यों हीरा पन्ना निकलते देखेंगे। कभी भगीरथ अकेले ही गंगा को स्वर्ग से धरती पर ले आये थे। अब वह श्रेय किसी एक को तो नहीं मिलेगा, पर एक तूफान उठते, आग उगलते जैसा दृश्य देखा जा सकेगा जो उलटी दिशा में बहने वाली अवाँछनीयता को अपने ही भुजदंडों से उलट कर सीधा करदे।

गंगा गोमुख से निकलती है और जमुना जमुनोत्री से। नर्मदा का अवतरण अमरकंटक के एक छोटे से कुण्ड से होता है। मान सरोवर से ब्रह्मपुत्र निकलती है और पंजाब की ओर जाने वाली पाँच नदियाँ भी वहीं से निकलती हैं। शांतिकुंज ऐसे अनेकों प्रवाहों को प्रवाहित कर रहा है जिनका प्रभाव न केवल भारत को वरन् समूचे विश्व को एक नई दिशा में घसीटता हुआ ले चले।

यह आश्चर्य युगसंधि के प्रथम वर्ष के आरंभ के दिनों का है। अभी नवनिर्माण में बहुत समय बाकी है। युगसंधि के शेष ग्यारह वर्ष भी अभीष्ट प्रयोजन की अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे। उन्हें सुविकसित होने के लिए इक्कीसवीं सदी के सौ वर्ष मिल जायेंगे और इसी अवधि में मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की कल्पना अधिक स्पष्ट, अधिक समर्थ और प्रचंड प्रखरता के साथ जाज्वल्यमान दिखने लगेगी।


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