नारी का अद्भुत अन्तराल

September 1989

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सृजन से पूर्व सफाई की आवश्यकता होती है। खेत बोने से पहले उसकी जुताई करनी पड़ती है ताकि काँटे कंकड़ पत्थर खरपतवार उस भूमि में से उखड़ जायँ। इसके बिना न बोये बीज की जड़ें ही नीचे चल सकेगी और न बोये पौधों को खुराक मिल सकेगी।

अपना समाज एक खेत है जिसमें सत्प्रवृत्तियों का खेत बोना और उद्यान लगाना है। इससे पूर्व शोधन कार्य आवश्यक है। राम राज्य की स्थापना से पूर्व लंका दहन करना पड़ा था। महाभारत भी इसीलिए रचा गया था।

प्रज्ञा युग के आगमन से पूर्व अनीति का अनर्थकारी वातावरण सुधारना पड़ेगा। सृजन के स्वप्नों को साकार करने से पूर्व मार्ग के अवरोधों से जूझने की योजना बनानी पड़ेगी। गहरी नींव खोदने के उपरान्त ही अन्य भवनों की आधारशिला रखी जाती है।

अपने समय की प्रचलित बुराइयों में अग्रणी है-’नारी की अवमानना’। उनकी गई गुजरी स्थिति में रहते परिवार संस्था का विकास न हो सकेगा। स्पष्ट है कि समाज और व्यक्ति के मध्यवर्ती परिवार हैं। उसी खदान में से नर रत्न निकलते हैं। परिवारों की कड़ियों से मिलकर समाज की श्रृंखला बनती है। परिवारों की सुसंस्कारिता से ही धरती पर स्वर्ग का अवतरण घर परिवारों के देवालय में ही संभव होता है।

समाज और व्यक्ति के उत्कर्ष की बात तो बार बार कही जाती रही है पर परिवार को कूड़े करकट की तरह उपेक्षा के गर्त में ही पड़ा रखा गया है। उसे खाना बनाने खिलाने की सराय जैसा दर्जा प्राप्त है। ऐसी दशा में उसमें से न नर रत्नों की फसल उग सकती है और न ही हर सदस्य को निरन्तर सुसंस्कारिता अपनाने का नियमित प्रशिक्षण और अभ्यास संभव हो सकता है।

परिवार की अधिष्ठात्री नारी है। उसी को गृह स्वामिनी या गृहिणी कहते हैं। गृहलक्ष्मी भी वही है। पीड़ितों का उत्कर्ष एवं अपकर्ष उसी के आँचल तले होता है। गरीबी के रहते भी उसी की सुव्यवस्था घर को “आनंद निकेतन” बना सकती है। कभी यहाँ नारी को सर्वोपरि सम्मान प्राप्त था। उसके नाम के साथ ‘देवी’ शब्द जुड़ा रहता था। पुरुषों में से देव कोई बिरले ही होते हैं पर नारियों में से अधिकाँश को अभी भी देवी पाया जाता है। वे सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा के रूप में अदृश्य रहती हैं। पर माता, भगिनी और पुत्री के रूप में उन्हें घर घर में पवित्रता के रूप में प्रतिष्ठित देखा जाता है। मनु का कथन असत्य नहीं है कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवताओं का निवास रहता है।

धर्म पत्नी के रूप में वह जीवन संगिनी की वैसी ही भूमिका निभाती है, जैसी कि दो पहियों के सहारे गाड़ी चलती है। नाव को सही रास्ते पर ले जाने के लिए दोनों हाथों से डाँड सँभालने पड़ते हैं। मंजिल पार करने में दोनों ही पैरों का समान योगदान रहता है। ताली दोनों हाथों से बजती है। नारी की गरिमा बनाये रहने के लिए उसके सहयोग समर्थन के लिए सभी को कृतज्ञ रहना चाहिए। उसके सम्मान में किसी प्रकार की कमी नहीं आने देनी चाहिए।

नारी का एक गर्हित रूप भी है जिसे रमणी, कामिनी कहते हैं। उसी को सर्पिणी भी कहा गया है। जब हम उसे श्रद्धा भरे उच्च स्तर से कीचड़ में पटक कर ‘भोग्या’ के रूप में कुदृष्टि से देखते हैं तो परकाया तो क्या स्वकाया भी फुसकारने और उसके जैसा बरताव करने लगती है। यही है नारी अवज्ञा और अवमानना, जिसके कारण आज घरों में अस्वस्थता, दरिद्रता और विग्रह की जड़ें जमती हैं। इन विष वृक्षों के फलने फूलने पर घर ही नरक बन जाता है। उसे किसी अन्य लोक में ढूँढ़ने के लिए नहीं जाना पड़ता।

हमें अपनी अनेकानेक अव्यवस्थाओं में से ध्यान तो सभी का रखना चाहिए पर लक्ष्य एक को ही मानना चाहिए। नारी के पुत्री, भागिनी और माता के रूप में चित्र छपे। सीता, सावित्री, सुकन्या जैसी धर्म-पत्नियों के रूप में भी। वे अरुन्धती और अनुसुइया भी तो थी। पर उनके चित्र ढूँढ़े नहीं मिलती, जिस दुकान पर देखें वहाँ रमणी, कामिनी के ऐसे उत्तेजक मुद्रा वाले चित्र मिलेंगे, जिन्हें ध्यानपूर्वक अवलोकन करने वाले की पशु प्रवृत्ति ही भड़के। उच्चकोटि की भावना किसी के मन में हो तो उस भौंड़े प्रदर्शन से कालिख पुत जाय।

देवताओं में से एक भी देवता ऐसा नहीं मिलेगा जो अपनी ‘शक्ति’ को प्राथमिकता न देता हो। लक्ष्मी नारायण उमा-महेश, सीताराम-राधेश्याम, शची-पुरन्दर, आदि के रूप में उनकी स्थापनाएँ हैं। इन सब युग्मों में नारी का नाम प्रथम और नर का द्वितीय है। नारी से ही नर उपजा है। नर से नारी नहीं। इसलिए उन्हें श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा आदि के रूप में आध्यात्म क्षेत्र की अधिष्ठात्री कहा गया है।

नारी को इन दिनों रसोईदारिन, चौकीदारिन, सफाई वाली, बच्चे जनने वाली के रूप में विभूषित कर पुरुषों की तुलना में हेय समझा जाता है। वैसा ही व्यवहार उसे मिलता है। फलस्वरूप पिता के यहाँ से जिस प्रकार व्यक्तित्व लेकर आई थी उसे एक दो वर्ष में गँवा देती है। भावुकता की मात्रा जिनमें अधिक होती है, उन्हें अपने प्राण गँवाने या परित्यक्ता बनने का अवसर आ जाता है। अधिकाँश ऐसी हैं जो परिस्थितियों में अपने आपको कुचल लेती हैं और जीवित लाश की तरह जिस तिस प्रकार मौत के दिन पूरे करती रहती हैं या दहेज की बलिवेदी पर चढ़ जाती हैं।

सबसे बड़ा अवरोध है-उपेक्षा। इसे कलह से भी बुरी किस्म का दुर्व्यवहार माना गया है। लड़ाई के पीछे अधिकार का भाव होता है। पर उपेक्षा के पीछे तो तिरस्कार की मान्यता बोलती है। उसके साथ भर्त्सना भी छिपी रहती है। समझा जाता है कि यह बेकार का कूड़ा करकट शिर पर लदा हुआ है। कोई काम कराना हुआ तो नौकर की तरह इशारा कर दिया, अन्यथा हर समय गुम-सुम। न अपनी बात कहना, न दूसरे की सुनना। इस स्थिति को उपेक्षा कहते हैं। देखने में तो यह चुप्पी प्रतीत होती है और लगता है कि शान्तिप्रिय एकान्तप्रिय स्वभाव है, किन्तु वस्तुतः वैसा होता नहीं। अवहेलना बुरी किस्म की भर्त्सना है। लड़ाई बरदाश्त हो सकती है। कटु वचन भी सुने जा सकते हैं, क्योंकि इनके पीछे आपसी संबंध तो जुड़े रहते हैं। वे आज कडुए हैं तो कल सुधारे संभाले भी जा सकते हैं। किन्तु जहाँ उपेक्षा का, अवहेलना का परायेपन का भाव टपकता है, वहाँ भावनाशील नारी के लिए स्थिति असह्य हो जाती है।

पिता का घर छोड़कर नारी एक स्वप्न साथ में लेकर आती है। उसे स्वप्न भी कह सकते हैं और स्वर्ग भी। उसे प्रेम लोक भी कहा जा सकता है। इसी के संबंध में वह विवाह से पूर्व रंग बिरंगे सपने देखती रहती है। घर छोड़ते समय स्वजनों के विछोह और परायों के साथ निभ पाने का भय जहाँ त्रास देता है, वहाँ एक नई मान्यता के ऊपर वह जीवित रहती है कि नई जगह जाकर उसे अलौकिक प्रकार का प्यार, सौजन्य, सम्मान मिलेगा, पर जब वस्तु स्थिति उससे ठीक उलटी दीखती है, उसका हृदय टूट जाता है। आवश्यकता है कि नारी के अन्तराल को समझा जाय, उसे उचित सम्मान दिया जाय।


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