राग-रागनियां आँदोलित करती है शरीर व मन को

September 1989

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संगीत में शरीर और मन को उत्तेजित- आन्दोलित करने तथा उसे स्वस्थता और शक्ति प्रदान करने वाले तत्वों का बाहुल्य है। प्राचीन भारतीय आचार्यों ने इसी कारण संगीतशास्त्र के विकास में अधिक रुचि दिखाई थी। भारतीय संगीत उस समय विकास की किन ऊँचाइयों को छू चुका था, इस अनुमान उसकी विभिन्न राग-रागिनियों की अद्भुत सामर्थ्य को देखकर लगाया जा सकता है।

इनके निर्माण के पीछे मात्र मनोरंजन प्रदान करना जैसा स्थूल दृष्टिकोण नहीं था, वरन् इसके द्वारा मानवी अन्तराल में सन्निहित सूक्ष्म भावनाओं और विशिष्टताओं को उभारना, हृदयतंत्र को झंकृत करना ही प्रधान लक्ष्य था। विविध मनोदशाओं की घोतक राग-रागनियां मनुष्य में रसानुभूति का संचार तो करती ही हैं, अनेकानेक शारीरिक-मानसिक-व्याधियों से भी छुटकारा दिलाती हैं संगीत ध्वनि विज्ञान की एक शाखा है जिसमें भिन्न-भिन्न राग-रागिनियों के माध्यम से मानवी चिन्तन और व्यवहार तथा वातावरण को प्रभावित किया जाता है संगीत में अनेकों राग-रागनियां हैं, पर वे सभी सात स्वरों से ही बने होते हैं। किन्हीं-किन्हीं में मात्र पाँच स्वरों का प्रयोग होता है। वाद्य यंत्रों के साथ रागों में स्वरों और आलापों में परिवर्तन के आधार पर उत्पन्न प्रकंपन शरीर और मन को अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करते हैं।

संगीत शास्त्रों में कितनी ही राग- रागिनियों का वर्णन है और उन सबके पृथक्- पृथक् प्रभाव बताये गये हैं। ‘संगीत मकरंद’ के संगीताध्याय के चतुर्थ पाद के सूत्र 80-83 में देवर्षि नारद ने कहा है कि सम्पूर्ण रागों के गायन से आयु, धर्म, यश, बुद्धि, धन-धान्य आदि की अभिवृद्धि होती है। संतानें सद्गुणी बनती हैं। इसी ग्रंथ में बताया गया है कि ‘षाडव’ रागों के गायन-वादन से शोक-संताप दूर होते हैं और रूप लावण्य बढ़ता है। ‘पूर्ण’ राग के गायन से आयुष्य और बुद्धि की अभिवृद्धि बतायी गई है। जबकि ‘औडव” से शारीरिक-मानसिक व्याधियों का शमन होता है। ‘मालकौष’ सद्भावना उत्पन्न करता है, तो जैजैवन्ती, राग से प्राण ऊर्जा का अभिवर्धन होता है। इसी प्रकार कई राग ऐसे हैं जिनके शरीर और मन पर तीव्र स्तर के प्रभाव पड़ते हैं। ‘दीपक’ राग गर्मी उत्पन्न करता है तो ‘कालिंगड़ा राग’ गाने-बजाने से गायक एवं श्रोताओं के दिल की धड़कने बढ़ने लगती हैं। इस तरह “पीलू राग” के प्रभाव से कई व्यक्तियों को रोने की तीव्र इच्छा होने लगती है और कइयों की आंखों से आँसू भी बहने लगते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि संगीत की विभिन्न राग-रागनियां इन्फ्रा और अल्ट्रासोनिक स्तर की ध्वनियाँ हैं जो अपने में समाहित तीव्रता, मधुरता और कर्कशता के कारण अलग-अलग प्रकार के परिणाम प्रस्तुत करती हैं। इस संदर्भ में वैज्ञानिकों ने विविध प्रयोग परीक्षण भी किये हैं। वैज्ञानिक द्वय चार्ल्स कील एवं आँगेलिकी ने विभिन्न स्वर माधुर्य वाले संगीत के प्रभाव को मानसिक रोगियों पर जाँचा परखा है। रोगियों को दो वर्गों में बाँटकर उन्होंने एक समूह को विदेशी संगीत जैसे-पाप म्यूजिक सुनाया और दूसरे समूह को भारतीय संगीत के राग आदि। इस प्रयोग में उत्साह वर्धक और प्रफुल्लता दायक राग चुने गये थे। परिणामतः उनने पाया कि भावोत्पादक भारतीय संगीत के प्रभाव से 80 प्रतिशत मनोरोगी स्वस्थ हो गये, जबकि विदेशी संगीत का असर ठीक उसके विपरीत रहा है। इस तरह के कई प्रयोग-परीक्षणों का विवरण उनने अपनी पुस्तक ‘द म्यूजिकल मीनिंग’ में प्रकाशित भी किया है। “म्यूजिक थैरेपी” नामक पुस्तक में मूर्धन्य चिकित्सा विज्ञानी जूलियट एल्विन ने अपना अनुसंधान निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए बताया है कि संगीत हमारे मन मस्तिष्क, संवेगों एवं शरीर पर अच्छा प्रभाव डालती है।

संगीत से कठोर मन भी द्रवित हो जाता है। इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण त्रावणकोर के स्वातितिरु नालु राजा के प्रसिद्ध दरबारी संगीतकार वडिवेलु के जीवन का है। घटना उन दिनों की है जब राजा ने किसी कारणवश नाराज होकर उन्हें अपने राज्य से निष्कासित कर दिया था। वह अपना सामान और एक पुराना वायलिन लिए जंगल से गुजर रहे थे, तभी कुछ डाकुओं ने उन्हें आ घेरा। उनका सारा सामान छीन लिया और साथ में वाद्ययंत्र भी। वडिवेलु उच्चकोटि के वायलिनवादक थे। उन्हें अपने इस पुराने वाद्ययंत्र से बहुत प्यार था, अतः किसी प्रकार अनुनय-विनय कर उसे लेने में वे सफल हो गये और वहीं बैठ कर बजाने लगे। उससे निनादित स्वर लहरी का लुटेरों पर ऐसा आश्चर्यजनक प्रभाव हुआ कि उनने न केवल सारा सामान लौटा दिया, वरन् उन्हें पुरस्कृत भी किया और सुरक्षित स्थान तक पहुँचा दिया।

संगीत में अपनी एक विशिष्ट शक्ति है जिसे अब विज्ञानवेत्ता भी स्वीकारते हैं। इसकी इस क्षमता का उल्लेख करते हुए अमेरिका के सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक आस्टिन एम. डे लारियर्स ने “व्हाट इज थैरेपी इन म्यूजिक थैरेपी” में कहा है कि संगीत अपनी विशिष्ट और सूक्ष्म आन्तरिक संरचना के माध्यम से उन महत्वपूर्ण तत्वों को उपस्थित करता है, जिन्हें मानसोपचार के लिए किसी भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति में आवश्यक माना जाता है।

इसमें भावनाओं को उद्दीप्त करने की अद्भुत क्षमता है। इससे उत्पन्न शरीर के विभिन्न कायिकीय परिवर्तनों-जैसे रक्तचाप, नाड़ी गति, श्वसनदर, मस्कुलर एनर्जी आदि को वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से मापा जा सकता है। कुछ ध्वनियाँ मनुष्य एवं अन्य जीव−जंतुओं के लिए सत्परिणामदायक होती हैं, तो कुछ इसके विपरीत। इस आधार पर संगीत के प्रभाव परिणाम भी दोनों प्रकार के होते हैं। विभिन्न रोगों पर अलग-अलग रागों की प्रभाव प्रतिक्रिया भी अलग-अलग होती है। इस संबंध में अमेरिका के प्रख्यात शरीर विज्ञान डा. कीथ वैलेस ने अपने सहयोगियों के साथ गहन खोजें की हैं और पाया है कि रुग्ण व्यक्ति विभिन्न रागों के प्रति अपनी अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करता है। यह भी देखा गया है कि यदि वह व्यक्ति संगीत के प्रति संवेदनशील नहीं हुआ तो रोग के ठीक होने की संभावना भी न्यून ही रहती है।

यूरोप और अमेरिका के चिकित्सा विज्ञानी संगीत द्वारा रोगोपचार में अब गहरी अभिरुचि दिखा रहे हैं। मधुर स्वर लहरियों को कैसेटों में बंद करके व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से रोगियों को सुनाया जाता है। पूर्वी जर्मनी के डा. जोहोंस, अमेरिका के डा. पोडोलास्की तथा डा. दर्चिसन ने इस क्षेत्र में काफी ख्याति अर्जित की है। चीन के शंघाई कन्जरवेटरी आफ म्यूजिक के चिकित्सकों ने “इलेक्ट्रो म्यूजिक थैरेपी” नामक एक प्रभावशाली उपचार पद्धति विकसित की है जिसमें भिन्न-भिन्न बीमारियों के लिए पृथक्-पृथक् संगीत ध्वनियाँ प्रयुक्त की जाती हैं।

इस क्षेत्र में विकास की अनन्त संभावनाएँ हैं। इतिहास में बैजूबावरा, तानसेन, बाजबहादुर जैसी अनगिनत हस्तियों के नाम देखने को मिलते हैं जिनने जड़ व चेतन दोनों ही जगत को संगीत से प्रभावित कर इस कला को शिखर तक पहुँचा दिया था। आज इस पर विज्ञान सम्मत शोध की आवश्यकता है। आँसीलोस्कोप, हारमोनी एनालायजर, डेसीबल मीटर, वायोफीड बैक एवं पाँलीग्राफ का संयुक्त प्रयोगकर ध्वनि तरंगों का स्वरूप व उनके प्रभाव को जाँचा मापा जा सकता है। इन प्रयोगों का एक छोटा सा संस्करण ब्रह्मवर्चस शान्तिकुँज में भी देखा जा सकता है।


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