आनंद का उद्गम-आत्मभाव

September 1989

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प्रिय पदार्थों एवं प्राणियों को हर कोई अपने समीप देखना चाहता है। साथ ही अप्रियों से छुटकारा भी। प्रियता, प्रेम-भावना सभी को सुहाती लुभाती है। हर किसी को प्रिय पात्रों से घिरा रह कर प्रसन्नता प्राप्त करना चाहिए। घृणा अप्रियों से ही होती है। वे ही अखरते हैं। अपना बालक प्रिय लगता है, इसलिए उसके कुरूप, मूर्ख अथवा दुर्गुणी होने पर भी उसके साथ प्रीति रहती है। प्रीति के साथ प्रसन्नता जुड़ी हुई हैं। इस उपलब्धि के लिए हर कोई तरसता रहता है। उसके निकटवर्ती बनने के लिए प्रयत्न भी करता है।

उपनिषदकारों ने प्रेम को परमात्मा कहा है। महा प्रभु ईसा भी यही कहा करते थे। भक्तियोग में इसी को प्रभु मिलन का रस कहा है। सामान्य जीवन में भी यही बात है। मनुष्य प्रियजनों के साथ कठिन परिस्थितियों में भी रह लेता है। दुःख भी सह लेता। दुर्दिन भी गुजार लेता हे। कठिनाई तब पड़ती है जब अप्रिय अनिच्छित समुदाय के साथ की परिस्थितियों में रहना पड़े। इस संसार में आत्मा प्रेम की प्यासी रहती है। उसी को ढूँढ़ती है। यदि उस उपलब्धि का सुयोग हस्तगत करती है तो कृत कृत्य होकर रहती है।

वस्तुओं में व्यक्तियों में न कोई प्रिय है न अप्रिय है। मेले ठेलों में अनेकानेक वस्तुएँ प्रदर्शनार्थ सजधज कर रखी होती है पर उन पर उड़ती नजर डाल कर दर्शक आगे बढ़ जाते हैं। इसी प्रकार पर्व, समारोहों पर नर नारियों की भारी भीड़ रहती है। इनमें अनेकों सुन्दर भी होते हैं, अनेकों असुन्दर भी। पर उनसे निजी लगाव न होने से उस समूह के प्रति कोई लगाव नहीं होता है। वह भीड़ मात्र लगती है। उसे धकेल कर आगे बढ़ चलने को मन करता है। सड़कों, मुसाफिरखानों में सभा सम्मेलनों में अगणित नर मुँड दीखते हैं पर उन्हें देखने पर कौतूहल भर ही अनुभूति होती है। न कुछ आकर्षण होता है न उत्साह।

प्रियता का समावेश तब होता है जब साथ में आत्मीयता जुड़ती है। अपने मित्र परिजनों में गुण ही भरे दीखते हैं। उनके साथ रहने खर्च करने एवं सहयोग देने का जी करता है। यदि उन्हीं के साथ कुछ दिन बार शत्रुता हो जाय अथवा उपेक्षा बरतने की स्थिति आ जाय तो फिर समीप रहने पर भी वे दूरवर्ती लगने लगते हैं। शकल सूरत वही रहने पर भी सुहाते तक नहीं। उनका स्मरण आना, समीप रहना तो बन ही नहीं पड़ता। बच निकलने का ही विचार रहता है इस परिवर्तन का विश्लेषण करने पर यही तथ्य उभर कर आता है कि यहाँ न कोई प्रिय है न अप्रिय न सुन्दर है न कुरूप न सज्जन है न दुर्जन न उपयोगी है न अनुपयोगी। जिसके साथ अपनी आत्मीयता जुड़ जाती है वही सुहाने लगता है। उसमें गुण ही गुण भरे दीखते हैं।

अँधेरे में टार्च का प्रकाश फेंकने पर जितने दायरे में रोशनी पड़ती है उतनी ही जगह प्रकाशवान हो उठती है। उस परिधि में जो कुछ है सभी स्पष्ट हो जाता है। साफ दीखने लगता है। आत्मीयता एक टार्च है, उसका प्रकाश जिन वस्तुओं, प्राणियों या व्यक्तियों पर पड़ता है वे ही सुहावने लगते हैं। शेष सब तो कूड़ा, कचरा भर प्रतीत होता है। जब तक घर, वाहन, वस्त्र अपना था तब तक उसकी पूरी साज सँभाल रखी जाती है, पर जब वह बिक जाता है, दूसरे के कब्जे में चला जाता है तो फिर उसके टूटने फूटने पर से कोई चिन्ता नहीं होती। कुछ दिन पूर्व जो जब तक अपना रहा तब तक उसकी उपस्थिति सुहाती रही और साज सँभाल होती रही। पर जब परायेपन का भाव आया तो फिर उपेक्षा ही शेष रह जाती है। वह कहाँ, किस स्थिति में है इस की चिन्ता नहीं रहती। पड़ोसी के घर मृत्यु होने पर सहानुभूति का लोकाचार भर निबाहा जाता है, पर जब अपने घर में किसी प्रियजन की मृत्यु होती है तो शोक से चिन्त विह्वल हो उठता है। धैर्य बँधता ही नहीं। उस विछोह का कष्ट शूल की तरह चुभता रहता है। पड़ोसी से भी मिलना जुलना होता रहता था, पर आत्मीयता के अभाव में उसका मरना तक कौतूहल मात्र बन कर रह गया। जब अपने की मृत्यु हुई तब पता चला कि वियोग का घाव कितना गहरा होता है। मनुष्य सभी एक जैसे। मरण का दृश्य और अंत्येष्टि का स्वरूप भी एक जैसा। फिर एक में उपेक्षा और दूसरे में गहरी व्यथा होने का कारण तलाश करने पर वस्तु स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि जिसके साथ जितनी गहरी आत्मीयता होती है, उसके साथ उतनी ही गहरी मिलन की प्रसन्नता एवं वियोग की व्यथा जुड़ी होती है। अपनी वस्तुओं के टूटने खोने पर उद्विग्नता होती है। पालतू कुत्ते, बिल्ली, तोते तक के मरने पर वेदना होती है। यहाँ वस्तु या प्राणी के प्रति ममता का होना न होना ही प्रसन्नता एवं व्यथा का आधार भूत कारण सिद्ध होता है। वस्तुएँ तो आती जाती ही रहती हैं। प्राणी तो मरते जन्मते ही रहते हैं। उनके संबंध में विचार करने की फुरसत किसे? हर किसी को अपनी पड़ी है। जिसे अपना माना जाता है उसी में आकर्षण दीख पड़ता है। उसी में सद्गुण भरे प्रतीत होते हैं। उसी को साथ रखने या साथ रहने में आनंद मिलता है।

तथ्य इस प्रकार उभर कर आते हैं कि अपनापन आरोपित होने से ही कोई प्रिय लगने लगता है। यदि वह भाव बदल जाय तो कल जो प्राणप्रिय था वह आज उपेक्षा का पात्र बन जाता है। शत्रुता बन जाने पर तो उसकी गंध भी नहीं सुहाती। ऐसी दशा में किसी वस्तु या व्यक्ति को स्थायी रूप से सुन्दर या प्रिय पात्र नहीं कहा जा सकता है। आत्मभाव का ही चमत्कार है कि वह जिस किसी के साथ ही जुड़ता है उसी में बड़ी सुन्दरता दीख पड़ती है उसी में प्रिय पात्र होने के सभी लक्षण अनुभव होने लगते हैं। इसका निष्कर्ष यह भी निकलता है कि जिस किसी को भी प्रियवत् देखना है उसके साथ आत्मीयता जोड़ ली जाय। उसकी निकटता आनंद विभोर कर देने वाली बन जायगी।

विचारणीय यह है कि जिसके साथ संयोगवश आत्मीयता जुड़ गई है उसी को स्वाभाविक या पर्याप्त मान कर बैठ रहा जाय या आनंददायक परिधि का और भी अधिक विस्तार किया जाय। यदि ससीम को असीम बनाने का मन हो बूँद से मन न भरता हो और निर्झर में कलोल करने के लिए मन चलता हो तो वह भी नितान्त सरल है। करना इतना भर पड़ता है कि आत्मीयता को संकीर्ण क्षेत्र से उबार कर उसे अधिक व्यापक क्षेत्र तक पसारा जाय। शरीर, कुटुम्ब या उपलब्ध वैभव से आगे बढ़ कर अपनेपन के अंचल में सुविस्तृत क्षेत्र को समेटा जाय। इस विस्तार से घर की छोटी मान्यता समूचे मुहल्ले, गाँव प्रान्त, देश की फैल पड़ती है। सवेरे का सूर्य पेड़ों, टीलों के ऊपरी भाग पर चमकता है। पर जब वह मध्याह्नकाल तक पहुँचता है तो उसका प्रकाश सुविस्तृत भूमि पर फैल पड़ता है। व्यक्ति की आत्मीयता के सम्बन्ध में भी यही कहा जा सकता है। उसे सीमित परिधि में संकुचित भी रखा जा सकता है पर यदि इच्छा हो तो उस आलोक से सुविस्तृत क्षेत्र को आलोकित किया जा सकता है। विरानी समझी जाने वाली वस्तुओं को अपना माना और उनकी समीपता से भरपूर आनंद उठाया जा सकता है।

मान्यता के विस्तार में कहीं कोई अवरोध नहीं। अधिकार जमाने की चेष्टा की जाय तो विग्रह खड़ा हो सकता है। पर मानवता तो अपने मन की बात है उसे किसी पर भी कितने ही बड़े क्षेत्र पर भी आच्छादित किया जा सकता है।

सूर्य, चंद्र, तारक बादल, वन, पर्वत, नदी, निर्झर, धरती, समुद्र, पवन आदि को अपना माना जाय तो इस मानवता को चुनौती कौन देगा? दृष्टिगोचर होने वाले पुरुषों को पिता, भाई, भतीजे की और नारियों को माता, भगिनी, पुत्री की दृष्टि से देखते रहा जाय तो इस पर रोक लगाने का साहस कोई नहीं कर सकता। स्वामी राम तीर्थ अपने को राम बादशाह मानते थे। समस्त विश्व को अपनी प्रजा कहते थे। उनके कथन पर किसी ने कानूनी कार्यवाही नहीं की। झंझट तब खड़ा होता है जब किसी पर एकाधिकार जमाया जाता है। एक ही नारी किसी की पत्नी, किसी की माता, किसी की बहिन, किसी की पुत्री, किसी की भतीजी, किसी की भांजी आदि हो सकती है। उस पर सभी अपना अपना सीमित अधिकार मानते हैं, पर इनमें से कोई भी यह दावा नहीं करता कि उसके अतिरिक्त और किसी का किसी प्रकार का कोई रिश्ता वास्ता नहीं है। इसी प्रकार अपनी मान्यताओं को कितने ही विस्तृत क्षेत्र पर भली प्रकार आरोपित कर सकते हैं। शर्त एक ही है कि उस पर एकाधिकार न जतायें दूसरों के अधिकार को अस्वीकार न करें।

वस्तुतः इस संसार की किसी भी वस्तु पर किसी का पूरा अधिकार नहीं। यहाँ तक कि अपने शरीर पर भी नहीं। उसके भीतर भी अनेक जीवाणु विषाणु पलते रहते हैं। भूमि जिस पर अपना कब्जा जमाये हुए थे वह भी सृष्टि के आदि से लेकर अब तक लाखों करोड़ों के कब्जे में रह चुकी है। पवन साझे का सागर है। जितना खा पहिन लेते हैं उतना ही अपना है। शेष तो तिजोरियों में कोठी संदूकों में बन्द रहता है। उस पर समूचे परिवार का उत्तराधिकारियों का हक जुड़ा रहता है। ऐसी दशा में अपना पूरा अधिकार किस पर है, यह सोचने पर अकेली आत्मा ही अपनी रह जाती है।

अधिकार न जमाया जाय। इतनी सतर्कता बरतने पर आत्मीयता का कितना ही गहरा आरोपण किसी पर भी किया जा सकता है। आवश्यक नहीं कि दूसरे भी हमारी मान्यता के अनुरूप ही प्रत्युत्तर दें। एक पक्षीय प्यार बिना किसी कठिनाई के पलता रह सकता है। देव प्रतिमाओं के प्रति भक्तजन एक पक्षीय श्रद्धा का ही आरोपण करते हैं। देवता उसका कोई प्रत्युत्तर नहीं देते। उसकी पाषाण या धातु से बनी प्रतिमा बदले में भी किसी प्रकार की भाव संवेदना या हलचल प्रकट नहीं करती है। इसी प्रकार बिना प्रत्युत्तर प्रतिक्रिया की अपेक्षा किये हम हर वस्तु पर सुव्यवस्था और हर व्यक्ति पर सद्भावना का आरोपण करते रह सकते हैं।

गेंद जिस कोण में जितने जोर से जमीन पर मारी जाती है वह उसी वेग से उसी कोण में फेंकने वालों के पास वापस लौट आती है गुम्बजों में बोली हुई आवाज की प्रतिध्वनि गूँजती है। दर्पण में ज्यों का त्यों प्रतिबिम्ब दीखता है। छाया की आकृति वस्तु जैसी ही होती है। हमारी आत्मीयता आरोपित वस्तु से टकरा कर शब्दबेधी बाण की तरह अपने पास ही वापस लौट आती है। आत्मभाव का आरोपण अपनी प्रतिक्रिया इस रूप में प्रकट करता है, मानो सारा संसार ही बदले में आत्मीयता हमारे ऊपर उड़ेल रहा हो।

आनन्द की उपलब्धि केवल एक ही स्थान से होती है वह है आत्मभाव। उसे इच्छानुसार किसी पर भी कितनी ही सघनता के साथ आरोपित किया जा सकता है। यदि यह विश्वास रखा जा सकता है कि अपनी मान्यता विश्व ब्रह्मांड में टकरा कर अपने ही पास वापस लौट आयेगी। आत्मीयता ही प्रसन्नता, प्रफुल्लता और पुलकन है। उसका अभीष्ट मात्रा में निरन्तर उपलब्ध करते रहना पूर्णतया अपने हाथ की बात है। शर्त इतनी ही है कि अपना आरोपण सच्चा, निस्वार्थ और गहरा है।


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