सविता का अनुदान प्राणशक्ति के रूप में

September 1989

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सामान्य प्राणी अपने जीवनक्रम को शरीरगत ऊर्जा और प्रकृति प्रदत्त तापमान से सामान्यतया चला लेते हैं। उन्हें अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता नहीं पड़ती। परन्तु विकसित मनुष्य पर यह बात लागू नहीं होती। स्तर बढ़ने के साथ-साथ साधनों की आवश्यकता बढ़ती हैं सर्व विदित है कि असामान्य उत्पादन के लिए असामान्य ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऊर्जा ही शक्ति है। शक्ति से ही पराक्रम संभव होता है। शरीर हो अथवा उपकरण, उसकी गतिशीलता शक्ति पर ही निर्भर है। यह शक्ति प्रकारान्तर से ऊर्जा की ही विविध रूपों में परिलक्षित होने वाली परिणति भर होती है, जिसका उद्गम स्थल सूर्य है।

दिव्यदर्शी मनीषियों ने भूतकाल से ही सूर्य शक्ति का उपयोग मनुष्य की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए कई उपाय-उपचारों के सहारे किया है। सूर्य चिकित्सा अपने आप में एक विज्ञान है। शरीर को रुग्ण करने वाले विषाणुओं का नाश नित्य प्रति के व्यवहार में तो धूप सेकने के सहारे होता ही है। विशेष रोगों की चिकित्सा भी रवि रश्मियों की ऊर्जा को विशिष्ट क्रम से ग्रहण करने से सहज संभव हो सकती है। सूर्योपस्थान, सूर्य नमस्कार, सूर्य साधना जैसे अनेकों अध्यात्म उपचार ऐसे हैं जो मानवी चेतना की विभिन्न आवश्यकताओं को, आत्मोत्कर्ष के विभिन्न आयामों को पूरा कर सकते हैं।

गायत्री महामंत्र की गरिमा सर्व विदित है। उसके चमत्कारी लाभों से सभी परिचित हैं। उसके अक्षरों का अर्थ तो ऋतम्भरा प्रज्ञा का सद्भावना एवं सद् विचारणा से संबंधित है। पर उसकी साधना से जिस चमत्कारी शक्ति सम्पदा की उपलब्धि होती है, उसका उद्गम केन्द्र-’सविता’ देवता है। गायत्री का अधिपति-’सविता’ है। उसी के विशिष्ट साधना विधानों की सहायता से दिव्य शक्तियों को आकर्षित किया जाता है और साधक को सर्व समर्थ बनने का अवसर मिलता है।

धरातल की प्राकृतिक हलचलें अधिकतर सूर्य के अनुदान पर ही अवलम्बित हैं। पृथ्वी की अपनी विशिष्टताएँ एवं सम्पदायें परोक्ष रूप से सूर्य की ही देन हैं। अन्तरिक्षीय अनुदानों के रूप में उसे जो कुछ प्राप्त होता है, उसमें सूर्य का भाग ही प्रमुख होता है। ऐसी दशा में वह मानवी आवश्यकताओं की बढ़ोत्तरी का समाधान कर सकने में भी समर्थ हो सकता है, यह बात सहज ही समझ में आने योग्य भी है।

उदाहरण के लिए सविता की स्वर्णिम आभा नित्य प्रति जो हम तक, पहुँचती हैं उसमें असंख्यों जीवनदायी दुर्लभ तत्व घुले होते हैं। मिस्र के काहिरा यूनिवर्सिटी के सुप्रसिद्ध भौतिकविद् नाफीद यूसुफ ने गहन अनुसंधान के पश्चात् निष्कर्ष निकाला है कि अरुणोदय काल में सुदूर क्षितिज से आती सूर्य किरणों में एक लाख खरब टन सोना बिखरा विद्यमान होता है। इतनी भारी मात्रा से लदी हुई इन रश्मियों को हम अपने शरीर पर प्रतिदिन झेलते रहते हैं। सूर्योदय के समय खुले बदन पर यदि कुछ समय के लिए प्रतिदिन इन्हें पड़ने दिया जाय तो स्वास्थ्य संवर्धन में यह अभूतपूर्व सत्परिणाम प्रस्तुत करती हैं।

इतना ही नहीं सूर्य जीवनी शक्ति, प्राण का केन्द्र है। अध्यात्मवेत्ता ऋषि-मनीषियों ने सविता को प्राण पुंज और बुद्धि चेतना को प्रेरणा दे सकने योग्य बताया है और “प्राणः प्रजानाँ उदयति एवं सूर्यः” कह कर प्रार्थना की है। उनके अनुसार इसके बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। उससे निःसृत प्रकाश, ताप और प्राण ऊर्जा जीवन निर्वाह और सृष्टि व्यवस्था दोनों के लिए आवश्यक हैं। वैज्ञानिकों का भी कहना है कि सूर्य की सत्ता ही जीवन सम्पदा का रूप धरती है। रोग निवारण एवं स्वास्थ्य संवर्धन में निरंतर काम आने वाली ‘जीवनी शक्ति’ शरीर का अपना उपार्जन नहीं वरन् सूर्य का दिया हुआ अनुदान ही है। यही वनस्पतियों का प्राण एवं प्राणियों की जीवनी शक्ति का केन्द्र है। सूर्य प्रकाश के अभाव में चारों ओर जीवन प्रवाह मंद हो जाता है। इसी कारण गर्मी व सर्दी में जन्मने वाले तथा उष्ण एवं शीत प्रधान देशों में रहने वाले व्यक्तियों की प्रकृति, रुचि और मान्यताओं में अंतर देखा जाता है। वातावरण की भिन्नता के पीछे पृथ्वी के विभिन्न स्थानों के साथ होने वाला सूर्य संयोग ही मुख्य है।

अग्नि का अस्तित्व तो पहले भी था, पर मनुष्य ने उसे काफी समय बाद पहचाना। कालान्तर में विकसित होती विधियों से विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा इस शक्ति से लाभ उठाना संभव होता गया। सूर्य की गर्मी अपनी प्राकृतिक सम्पदा तो सबको समान रूप से बाँटती रहती है, पर उसका सर्वाधिक लाभ जानकार लोग ही उठा पाते हैं। उसमें सन्निहित, प्राणशक्ति को अध्यात्मवेत्ता ही जानते हैं और उसके संपर्क सान्निध्य से अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। जिस तरह भौतिक जगत में आज के वैज्ञानिक विभिन्न कार्यों के सम्पादन के लिए ऊर्जा का एक मात्र सशक्त एवं स्थायी विकल्प सूर्य ऊर्जा को ही मान रहे हैं और उसके दोहन के लिए विविध विधि सरंजाम खड़े कर रहे हैं। ठीक उसी तरह शारीरिक, मानसिक रोगों के निवारण और स्वस्थ दीर्घायुष्य जीवन से लेकर अध्यात्मोपचार तक की प्रक्रिया में सविता की प्राणशक्ति का तारतम्य बिठाया जा सकता है। यह सबके लिए सहज साध्य है। इसके लिए किसी वैज्ञानिक उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती। अपना मन और अन्तःकरण ही इसके लिए फोटोवोल्टिक बैटरी और स्टोर हाउस का काम करते हैं। ध्यान-धारणा के सहारे आदित्य मंडल के प्राण भण्डार को आकर्षित किया और अपने को उससे परिपूरित किया जाता है। वैदिक ऋचाएँ इसी तथ्य का प्रतिपादन करती हैं कि सूर्य शक्ति को महत्व भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से दिया जाना चाहिए।

पाश्चात्य जगत के ख्याति लब्ध खगोलज्ञ सर जॉन हर्शल की भी मान्यता है कि सविता के ‘एब्सेकंडिटो’ नामक क्षेत्र में प्राण शक्ति का विशाल स्रोत भरा पड़ा है। विश्व ब्रह्माण्ड की आपूर्ति इसी से होती है। उनके अनुसार शरीर में जिस तरह हृदय कार्यरत रहता है, लगभग वैसा ही काम सूर्य का है। इसकी लय भी उसी तरह गतिशील रहती है। ‘वाइटल फ्लूइड’ अर्थात् जीवनतत्व का संचरण उसी से होता है। यौगिक अभ्यासों-साधना उपचारों के माध्यम से साधक उसी प्राण शक्ति को आकर्षित करके अपने को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से सशक्त एवं प्रखर बनाते हैं।

भौतिक जगत पर सौर ऊर्जा का अजस्र अनुदान बरसता है और आत्मिक क्षेत्र पर उसका अभिवर्षण प्राण के रूप में होता है। प्राण को सविता का अनुदान माना गया है। प्राण प्रधान होने से ही जीवधारियों को प्राणी कहा गया है। जो जितना प्राणवान है उतना ही समर्थ, विकसित एवं समुन्नत है। मनुष्य को दूरदर्शिता, साहसिकता, श्रमशीलता एवं सद्भावना के रूप में जो विशिष्टताएँ उपलब्ध हुई हैं वे प्रकारांतर से प्राणशक्ति के अनुदान हैं। साधनों की दृष्टि से ऊर्जा की और उत्कृष्टता की दृष्टि से मनुष्य को प्राणशक्ति की प्रचुरता अभीष्ट है। इसके लिए सूर्यताप और सविता अनुग्रह का उभय पक्षीय अनुदान आवश्यक है। इसके लिए पूर्णतया सूर्य साधना पर ही निर्भर रहना होगा। अच्छा हो उस प्रयास पर पूरी तरह ध्यान केन्द्रित किया जाय और शारीरिक बलिष्ठता, मानसिक पवित्रता-प्रखरता एवं आत्मिक प्रचंडता जैसी उपलब्धियों के लिए योजनाबद्ध साहसिक कदम उठाया जाय।


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