मृत्यु का विस्मरण एक असाधारण प्रमाद

September 1989

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बैंक से कर्ज जमानत पर मिलता है और उसे समयानुसार ब्याज समेत वापस लौटाना पड़ता है। मिली हुई राशि धरोहर है। उसे ठीक तरह लौटा देने और जितने दिन वह पास में रहे उससे कुछ उत्पादन कर के पूँजी बना लेना ही बुद्धिमत्ता है ताकि बार बार कर्ज लेने का झंझट न रहे। अपनी ही पूँजी में गुजारा होता रहे।

मूर्खता यह कि जिस तिस प्रकार तिकड़म भिड़ा कर बैंक से कर्ज तो प्राप्त कर लिया जाय पर उसे वापस चुकाना भी है यह स्मरण ही न रहे। जो पाया उसे शौक मौज में, दुर्व्यसनों में उड़ाया। ऐसे लोग कर्जे की राशि को जेब में आते समय तो बड़े प्रसन्न होते हैं और समझते हैं कि भाग्य खुला। मुट्ठी गरम होते ही उद्देश्य की याद नहीं रहती कि यह किस प्रयोजन का वचन देकर, किन की जमानतें दिला कर यह सम्पदा हस्तगत की गई थी। उस काम को भी करना है यह भुला दिया जाता है और उस से रंग रेलियाँ मनाई जाती हैं। फलतः कुछ ही समय से पूँजी निबट जाती है।

मनुष्य जीवन ऐसी ही एक धरोहर है-बैंक से लिया हुआ कर्ज। यह हर किसी को नहीं मिलता। प्राप्त वे ही कर पाते हैं जो देने वाले तन्त्र को यह दुहरा विश्वास दिला देते हैं कि उस का सदुपयोग करके अपना उद्यम खड़ा कर लिया जाएगा और साथ ही एक मुश्त अथवा किश्तों में अमानत को लौटाते रहा जायगा। उपलब्धि के उद्देश्य को भुला देने वाले अपनी पिछली सम्पदा को भी गँवा बैठते हैं और नए न चुकाने पर मिलने वाली प्रताड़ना को सहन करते हैं।

मनुष्य जीवन विशुद्ध धरोहर है, जिसे अभिभावकों, गुरुजनों की जमानत पर इस लिए दिया गया है कि इस धरोहर का दुरुपयोग नहीं होने दिया जाएगा और वापसी का प्रबन्ध ठीक समय पर बन पड़े इस के लिए नियन्त्रण रखा जायगा। किन्तु जमानतदार भी जब दुरुपयोग को टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं इतना ही नहीं उलटे मौज मजा करने की, उसे उड़ा देने की सलाह देते हैं तो फिर समझना चाहिए कि दुर्भाग्य भरी दुर्घटना होने जा रही है। वापसी का विस्मरण इतना बड़ा प्रमाद है कि उसका प्रतिफल चिरकाल तक जन्म जन्मान्तरों तक भुगतना पड़ता है।

जीवन का दुर्भाग्य भरा दुरुपयोग तब होता है जब मृत्यु को भुला दिया जाय। भगवान का स्मरण आवश्यक माना जाता है। उसके कितने ही लाभ गिनाये जाते हैं पर उससे भी आवश्यक यह है कि मृत्यु को हर घड़ी स्मरण रखा जाय। समझा जाय कि यह एक अग्नि परीक्षा का अवसर है। उसे बरबाद नहीं ही करना है अन्यथा उस विस्मरण का समय गुजर जाने पर इतना पश्चात्ताप होता है, इतना प्रायश्चित लदता है जिसकी याद करने भर से जी दहल जाय।

जीवन की घड़ियाँ देखते देखते निकलती हैं। पेट प्रजनन के दो शरीरगत कार्य ऐसे हैं जिनमें व्यस्त रहते हुए यह पता ही नहीं चलता कि 360 दिन वाले कितने वर्ष एक एक करके गुजर गए। बचपन, किशोरावस्था, तरुणाई, प्रौढ़ता के उपरान्त वृद्धावस्था आ धमकती है। यह मृत्यु का पूर्व स्वरूप है। वैभव तथा अधिकार सब तरुण उत्तराधिकारियों द्वारा इच्छा या अनिच्छा रहते छीन लिए जाते हैं। अपने शरीर का ठीक प्रकार संचालन अपने बलबूते नहीं हो पाता। इसके निमित्त भी दूसरों का आसरा तकना पड़ता है। शैशव में जिस प्रकार बड़ों के अनुग्रह से शरीर यात्रा चलती थी उसी प्रकार बुढ़ापे में छोटों की अनुकम्पा पर आश्रित रहना पड़ता है। देने वाले एहसान जताते हैं और लेने वाले को सिर नीचा रखना पड़ता है, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गिड़गिड़ाते रहना भी।

बचपन और बुढ़ापा दोनों ही अपंगावस्था से हैं। किशोर आयु में जोश तो बहुत रहता है पर होश नहीं। मात्र तरुणाई और प्रौढ़ता ही ऐसी अवधि है जिसमें दूरदर्शिता सजग सक्षम रखी जा सकती है। शेष आयुष्य तो खिलवाड़ में ही चली जाती है। रहा बचा समय यार दोस्त, लोभ, मोह, अहंकार प्रदर्शन खा जाते हैं। महत्वाकाँक्षाओं की ललक इतनी बढ़ी चढ़ी रहती है कि मात्र यही सूझता है कि बड़प्पन जितना अधिक बटोरा जा सके बटोर लिया जाय। दर्प-अहंकार प्रदर्शन जितना भी सँजोया जा सके उसे सँजो कर लोगों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न किया जाय, किन्तु वास्तविकता यह है कि हर व्यक्ति अपनी निज की समस्याओं में उलझा है कि उसे किसी दूसरे के सौंदर्य, बल, वैभव, उत्थान पतन से किसी प्रकार का सरोकार नहीं है, न रस, न गंभीरता। अधिक शोर मचाने पर विवशता की स्थिति में आँख उठा कर देख लेने और उस हुड़दंग पर मुस्करा भरा देना पर्याप्त समझा जाता है। इस से अधिक किसी को किसी के सम्बन्ध में ध्यान देने, प्रभावित होने, यश गाने की फुरसत ही नहीं मितली। जब कि इसी वहम में लोग निरर्थक उछल कूद करते हुए अपनी बहुमूल्य जीवन सम्पदा को चिथड़े बना कर बेकार करते और फेंकते रहते हैं।

जीवन में वास्तविक ज्ञान प्रदान करने का समय वह है जिसमें जीवात्मा शरीर को त्याग कर ईश्वर के दरबार में पेश होने के लिए प्रयाण करती है। कमाया हुआ वैभव और यश शरीर के साथ जुड़ा था। जब शरीर ही धूल चाटने वाला है तो फिर उसके साथ जुड़े हुए वैभव को साथ क्या चलना? खाली हाथ विदाई लेते समय रहस्यमयी परतें खुलती हैं। प्रतीत होता है कि लोभ की ललक ने जितनी अभिरुचि कमाने में उत्पन्न की वह आवेश बन कर छाई रही और निरन्तर अनीति ही बन पड़ती रही। सम्पदा निष्ठुरता धारण किए बिना अधिक मात्रा में कमाई ही नहीं जा सकती। उसके लिए छल-प्रपंच और अपराधों के अस्त्र शस्त्र सँजोने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरा मोह जाल है जो भ्रम होते हुए भी वास्तविकता जैसा प्रतीत होता है। स्वजन, परिजन, सम्बन्धी, कुटुम्बी, परिचित-अपरिचित समुदाय के साथ मोह जुड़ जाता है। उसके वशीभूत होकर अपने पराये का भेदभाव उपजता है। अपनों को प्रसन्न रखने के लिए उनकी मर्जी पर चलना पड़ता है। मर्जी की कोई सीमा नहीं। वह क्रमशः बढ़ती ही रहती है।

और व्यक्ति उसकी प्रसन्नता के लिए अपनी शान्ति, सद्गति और जिम्मेदारी प्रायः पूरी तरह खो बैठता है। इतने पर भी इन्हें छोड़ कर रोते रुलाते अन्त समय अकेले ही चलना पड़ता है जन्म लेते समय तो शरीर तब भी साथ था पर मरण की बेला में वह भी साथ छोड़ देता है और आत्मा को अकेले ही जाना पड़ता है।

और व्यक्ति उसकी प्रसन्नता के लिए अपनी शान्ति, सद्गति और जिम्मेदारी प्रायः पूरी तरह खो बैठता है। इतने पर भी इन्हें छोड़ कर रोते रुलाते अन्त समय अकेले ही चलना पड़ता है जन्म लेते समय तो शरीर तब भी साथ था पर मरण की बेला में वह भी साथ छोड़ देता है और आत्मा को अकेले ही जाना पड़ता है।


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