जागरूकता और साहसिकता

September 1989

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शरीर बल के सहारे वे सभी काम सम्पन्न होते हैं जो श्रम के सहारे पूरे किए जाते हैं। शरीर दुर्बल हो, अशक्ति से घिरा हो तो वे काम भी नहीं बन पड़ते जिनमें थोड़ा सा ही परिश्रम लगता है और किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के लिए जो अति सरल होते हैं। दुर्बलता वह अभिशाप है जिसके रहते व्यक्ति जीवित रहते हुए भी मृतकों की गणना में गिना जाता है। उसे नित्य कर्मों तक के लिए दूसरों का आश्रय लेना पड़ता है। बीमारों को उठाने बिठाने में भी दूसरों की ही मदद की आवश्यकता पड़ती है। दूसरों की सहायता न मिले तो वह असहाय की तरह अनुभव करता है और सोचता है कि वह निरर्थक महत्वहीन बन कर रह गया।

शरीर बल से भी अधिक आवश्यक है मनोबल। शरीर का सूत्र संचालन मन ही करता है। काया के अवयव तो अपनी निजी गतिविधियों को गतिशील बनाने में ही लगे रहते हैं। दिल, गुर्दे, फेफड़े, जिगर, मूत्राशय, आमाशय, आँतें अपने निजी उत्तरदायित्व को ही सँभाल पाते हैं। शरीर से बाहर निकल कर कोई अतिरिक्त काम करना उनके बस-बूते की बात नहीं है। हाथ पैर सरीखी कर्मेन्द्रियाँ भी मन के आदेश पर अपने क्रिया कलाप सम्पन्न करती हैं। आँखें तभी देखती हैं जब मन दृश्य में एकाग्र हो अन्यथा घटना क्रम सामने होता रहे और ध्यान कहीं अन्यत्र हो तो देखा न देखे के समान हो जाता है। इसी प्रकार कान आदि के सम्बन्ध में भी है। मन किसी अन्य काम में व्यस्त हो तो शब्दों की ध्वनि कर्ण कुहरों में पहुँच कर भी मस्तिष्क को उसकी सूचना नहीं दे पाती कि किसने कहा और क्या कहा? यही बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है।

मन का शरीरगत कार्य संचालन ही एक मात्र गुण नहीं है। उसके अपने निजी भी कई प्रकार के स्वभाव हैं। यथा चिन्तारत एवं निश्चिन्त रहना। उदास बने रहना या उत्साह युक्त रहना। भयभीत रहना या साहस का प्रदर्शन करना। आलसी-प्रमादी प्रकृति का .... अथवा उत्साह का, साहस का, परिचय देना आदि। इन उपयुक्त-अनुपयुक्त विशेषताओं के कारण शरीर भी तदनुकूल बन जाता है। उसकी आकृति प्रकृति में इन्हीं आधारों के कारण भारी अन्तर उत्पन्न होते देखा गया है शरीर के स्वस्थ होने पर भी यदि मन व्यग्र, अस्तव्यस्त और असावधान हो तो प्रत्यक्षतः स्वस्थ दीख पड़ने पर भी मनुष्य ऐसी गति अपनाये रहता है मानो वह अशिक्षित अनगढ़ हो। उससे पग पग पर भूलें होती हैं। जो भी काम किये जाते हैं वे उपहासास्पद बन कर रह जाते हैं।

शरीर में स्वस्थता होने पर भी किया कुशलता के लिए स्फूर्ति की आवश्यकता होती है। स्फूर्ति के अभाव में दीर्घ सूत्रता छायी रहती है। आलस्य प्रमाद घेरे रहता है। समय का पालन नहीं हो पाता। क्रमबद्धता नहीं रहती। ज्यों त्यों करके काम निबटाने से असामान्य रूप से देरी लग जाती है। क्रिया विधि में तारतम्य न रहने से आगे का काम पीछे और पीछे का आगे होता है। फलतः जो किया गया है वह असंगत रहता है। उसमें कुरूपता पाई जाती है। समय भी उसकी तुलना में कहीं अधिक लगता है जितना कि सामान्य रीति में वह किया जा सकता है। स्फूर्ति के अभाव में कोई हृष्टपुष्ट व्यक्ति प्रतिद्वन्दिता में नहीं जीत सकता। पहलवान जैसी आकृति प्रकृति का व्यक्ति भी कुश्ती नहीं पछाड़ सकता।

मानसिक स्फूर्ति को जागरूकता एवं साहसिकता कहते हैं। जागरूकता का तात्पर्य है कार्य के हर पक्ष पर समुचित ध्यान देना। ध्यान देने के साथ साथ उसके साथ जुड़ी हुई समस्याओं के समाधान करने के लिए समुचित प्रयास भी करना। यह तत्परता न हो तो समझना चाहिए कि कार्य की रूपरेखा मस्तिष्क में स्पष्ट न होगी और उसे समग्ररूप से करते धरते न बन पड़ेगा। आधा अधूरा ध्यान देने से उसका एक पक्ष ही ध्यान में आता है, दूसरे या अन्यान्य पक्षों का स्मरण ही नहीं आता। जो जितना सूझा था, उतना ही करते-धरते बन पड़ता है। एक अंश को पूरा किया जाय, अन्य अंशों की उपेक्षा की जाय तो जितना कुछ बन पड़ा है वह भी शेष रही अपूर्णताओं के कारण आधा-अधूरा, काना कुबड़ा या फूहड़ ही बन कर रह जाता है। इसलिए समग्र जागरूकता को कार्य की सफलता के लिए मन की विशिष्ट आवश्यकता माना गया है। शतरंज के खिलाड़ी अपनी चाल के अतिरिक्त यह भी ध्यान रखते हैं कि प्रतिपक्षी का क्या कदम उठ सकता है। उसकी काट का ध्यान रखने पर ही कोई खिलाड़ी बाजी जीत सकता है। कार्यों की सफलता में मानसिक स्फूर्ति की जागरूकता की ऐसी ही आवश्यकता पड़ती है।

जागरूकता की तरह ही साहसिकता का भी अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति में समुचित समावेश करना पड़ता है। कई व्यक्ति डरपोक प्रकृति के होते हैं। उन्हें काम के अधूरा रह जाने, बिगड़ जाने, व्यवधान आने पर रुक जाने की चिन्ता बनी रहती है। अपनी शक्ति को घटाकर आँकते हैं। सोचते हैं काम बड़ा है, साधन सीमित हैं और अपना अनुभव एवं पुरुषार्थ भी कम है। ऐसी दशा में इतना भार कैसे उठेगा? एक प्रकार की पश्त हिम्मती मन पर सवार होती है। हिम्मत टूट जाती है। करने की उमंग ही नहीं उठती। जिस पहलवान के मन में हारने का भय समाया हुआ हो वह बाजी जीत नहीं पाता। उसे हराने में वह मानसिक कमजोरी ही प्रधान कारण होती है जिसमें उसने अपने को दुर्बल मान लिया था।

संसार में बड़े बड़े काम हिम्मत के बलबूते सम्पन्न हुए हैं। साहसी बाजी मारता है। पराक्रम की चुनौती सामने खड़ी देखकर उसे अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा का स्मरण हो आता है। समूची तत्परता और तन्मयता के साथ वह काम करता है। ऐसी दशा में उसकी सामर्थ्य सामान्य की अपेक्षा कई गुनी बढ़ जाती है और असामान्य हो जाती है।

जिसका आत्म विश्वास बढ़ा चढ़ा है, जिसे अपनी क्षमता और कुशलता पर भरोसा है, वह अनुभव करता है कि उसकी कितनी ही प्रसुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो चलीं। कितनी ही नई सूझबूझ उजागर हुई और व्यवधानों की आशंकाओं को निरस्त कर दिया गया। समूचा मन लगा कर काम करने से सफलता की संभावना आशा से कहीं अधिक बढ़ जाती है।

साहस एक स्वभाव है जिसमें सामर्थ्य को कई गुना कर दिखाने की शक्ति का समावेश रहता है। कहते हैं नशा पीकर सैनिक आवेश ग्रस्त हो जाते हैं और कट कट कर लड़ते हैं साहस भी एक शक्ति भण्डार है जिसके सहारे व्यक्ति को अपनी योग्यता एवं सामर्थ्य कहीं अधिक प्रतीत होती है। यह मान्यता भ्रम मात्र नहीं होती वरन् समय पर सही सिद्ध होकर रहती है। शरीर बल की तुलना में मनोबल की समर्थता कहीं अधिक बढ़ी चढ़ी होती है। जो उसे बढ़ाते रहते हैं और समय समय पर अभ्यास में उतार कर परिपक्व करते रहते हैं। वे देखते हैं कि वे सामान्य से बढ़कर असामान्य बन गए। जो कर सकने की अपने में सामर्थ्य समझते थे उसकी तुलना में कहीं अधिक सफलता अर्जित कर सके।

डरपोक और असावधान अपनी सामान्य सामर्थ्य का एक बहुत स्वल्प अंश प्रयोग कर पाते हैं और दूसरों की तुलना में पिछड़े रह जाते हैं।


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