विकास के साथ साथ विनाश से जूझना भी आवश्यक

September 1989

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नव परिवर्तन के पुण्य परमार्थ में हर किसी को अपने-अपने स्तर पर सम्मिलित होना होगा। नियति के इस निर्धारण के विपरीत चलने के लिए हर किसी को अपना हठ छोड़ना पड़ेगा। प्रभात बेला में हर वनस्पति और प्राणी को अपने क्रियाकलाप में नया उत्साह सम्मिलित करना होता ही है। यहाँ तक कि निशाचर समुदाय को भी अपनी गतिविधियाँ रोक कर विश्राम के लिए बाधित होना पड़ता है।

पिछले दिनों दुश्चिन्तन का बोल बाला रहा है और उसी के प्रभाव से अनाचारों में बाढ़ आने से समूचा वातावरण प्रभावित हुआ है। इसकी रोकथाम आवश्यक है। अन्यथा नव सृजन के बीजाँकुर ऐसे ही बिना विकसित हुए अनुपयुक्त वातावरण के बीच नष्ट हो जायेंगे।

कपड़ा रंगने से पूर्व अच्छी तरह धोया जाता है। अन्यथा मैले कुचैले कपड़े पर कीमती रंग चढ़ाना भी बेकार हो जाता है। किसी को सभ्य बनाने से पूर्व उसके साथ जुड़े हुए असभ्यता के लक्षणों को समाप्त करना होता है। स्वच्छता पहली आवश्यकता है और सज्जा दूसरी। उर्वर भूमि में ही फसल उगती है, इसलिए कुशल किसान बीज बोने से पहले जमीन के कंकड़ पत्थर बीन कर समतल बना लेते हैं। कारखाना लगाने वाले चौकीदारों की व्यवस्था करते हैं, अन्यथा जो कमाया जा सका, वह चोर उचक्कों की जेब में ही चला जायगा। किसी को पहलवानी सिखाने से पूर्व उसे आयेदिन घेरे रहने वाले रोगों से छुटकारा दिलाने का प्रबंध करना पड़ता है।

हानि पहुँचाने में अवांछनियताएं ही अग्रणी रहती हैं। घुन लगने पर अच्छे खासे शहतीर पोले हो जाते हैं। शरीर में विषाणु प्रवेश पालें तो कुछ ही दिनों में भला चंगा शरीर रोग ग्रस्त होकर मृत्यु के मुँह में जा पहुँचे। किसी घड़े में पानी भरना हो तो पहले यह देखना पड़ता है कि इसके पैंदे में कहीं कोई छेद नहीं है। दोष दुर्गुणों को पहचानना और उन्हें बुहार कर बाहर करना पहला काम है। विकास के अन्यान्य कार्य इसके बाद ही बन पड़ते हैं।

कुटेवें बड़ी हठीली होती हैं। वे जिसका पल्ला पकड़ लेती हैं आसानी से पीछा नहीं छोड़तीं। नशेबाजी का आरंभ तो ऐसे ही हँसी दिल्लगी के बीच हो जाता है। देखते देखते उसका चस्का लग जाता है। पर आदत पक्की हो जाने पर उसे छुड़ा पाना मुश्किल होता है। कई बार तो शरीर, मस्तिष्क, सभ्यता, परिवार से लेकर अर्थ व्यवस्था तक खतरे में पड़ जाती है। आलसी, प्रमादी, ऐसे ही सुस्ती, मस्ती या आवारागर्दी में समय गुजारते रहते हैं। उस दुर्गुण से ग्रस्त हो जाने पर स्थिति अर्धमृतक या मूर्छित जैसी हो जाती है। समय पर कोई काम करते नहीं बन पड़ता। सुयोग्य होते हुए भी निठल्ले निकम्मों में उनकी गणना होती है। सदा घाटा ही उठाते रहते हैं और गई गुजरी स्थिति से ऊपर उठ ही नहीं पाते। चोर, उचक्के, आलसी, क्रोधी, उतावले, व्यक्ति अपना विश्वास खो बैठते हैं और सम्मान भी। उन्हें पास बिठाने या बात करने तक का किसी का मन नहीं होता।

विश्वामित्र के परामर्श से भगवान राम ने त्रेता से सतयुग वापस लौटाने वाले राम राज्य की विशद योजना बनाई थी, जिस पर असंख्यों का चिरकाल तक कल्याण होते रहना निर्भर हो। पर किया क्या जाय? असुरों का आतंक उस समूची परिधि का अहित किये हुए था सृजन का कोई काम उन परिस्थितियों में बन पड़ना संभव ही नहीं था। सोच विचार के बाद यह निष्कर्ष निकला कि पहले असुरों से निबट लिया जाय, यही हुआ भी। असुर वर्ग को ठिकाने लगा देने के उपरान्त ही यह संभव हुआ कि सतयुगी रामराज्य की आधार शिला रखी जाय और वह किया जाय जो मूलतः अभीष्ट था।

कृष्ण की योजना बिखरे और अस्त व्यस्त भारत को सुव्यवस्थित, विशाल भारत में परिवर्तित करने की थी पर उसे कार्यान्वित करने में बाधक सामन्तों की भरमार थी। वे उपयोगी योजना को अपने स्वार्थ के विपरीत मानते थे और पग पग पर रोड़े अटकाते थे। इसलिए उपाय एक ही शेष रह गया कि मार्ग के रोड़ों को साफ करके तब राजमार्ग बनाया जाय। महाभारत युद्ध इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए योजित हुआ। परीक्षित और जन्मेजय ने कृष्ण की उस इच्छापूर्ति को तदुपरान्त ही सम्पन्न किया।

भगवान के अवतारों की गणना चौबीस या दस बताई जाती है। इन सभी के क्रियाकलापों पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि उनने अपने समय के अनाचारों से निबटने का काम पहले हाथ में लिया। उसकी पूर्ति हो जाने के उपरान्त ही धर्म स्थापना के वे कार्य बन पड़े जिनके लिए उनके अवतरण का प्रमुख उद्देश्य था। देश के विकास-कार्यों में जितनी जनशक्ति, धन शक्ति और बुद्धि लगानी पड़ती है उससे कहीं अधिक सुरक्षा व्यय की व्यवस्था करनी पड़ती है। अन्यथा बोई हुई फसल को वन जन्तु ही चरकर साफ कर दें। आक्रमणकारी, अनाचारी इस दुनिया में कम नहीं। उनकी दाल गलने लगे तो समझना चाहिए कि किसी सत्कर्म का शुभारम्भ तक न हो सकेगा। उस राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में ही समझनी चाहिए, जिसके पड़ोसी यह समझें कि अनाचार का प्रतिकार करने की व्यवस्था वहाँ कमजोर है।

उसे दबाने और उपेक्षा करने से दूसरों की दृष्टि में कमजोरी ही आँकी जाती है। भले ही अपने मन को बहकाने के लिए उसे दया, क्षमा आदि का आवरण ही क्यों न उठाना पड़ रहा हो? सज्जनों की दृष्टि में ही सज्जनता का मूल्य हो सकता है। वे ही उनका प्रभाव मानते हैं और सुधारने, हृदय बदलने जैसी प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाते हैं। अन्यथा आमतौर पर उसे कायरता और दुर्बलता को, उदारता के आवरण में छिपा कर रखा गय छद्मभर ही मानते हैं।

अब से दो ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में कई धर्माचार्यों ने अहिंसावाद का घनघोर प्रचार किया था और उस दर्शन को अतिवाद की सीमा तक पहुँचाया था। कहने सुनने में यह सचमुच ही उदारता की पक्षधर आदर्शवादिता ही समझी जाती थी, पर उसका प्रभाव इच्छा से विपरीत ही निकला। मध्य एशिया के डाकुओं के कानों तक यह भनक पहुँची तो उन्होंने डाकुओं के छोटे छोटे गिरोह बना लिये और आक्रमण पर आक्रमण का सिलसिला चला दिया, सैन्य बल की उपेक्षा होने लगी। संघर्ष को व्यर्थ माना गया। इसका परिणाम यह हुआ कि देश पर इतने अधिक आक्रमण हुए कि लम्बे समय तक लूट, पाट, अपहरण और दासता का शिकार बन कर देश को बहुत कुछ गँवाना पड़ा। पुराना शौर्य, साहस पराक्रम और दुष्टता से जूझने का संघर्षशील मानस यदि बना रहा होता तो कदाचित आक्रमणकारियों की हिम्मत ही न पड़ती।

अनाचार तभी बढ़ता है, जब उसके प्रतिरोध का वातावरण ढीला पड़ जाता है। आवश्यक नहीं कि अनौचित्य की रोकथाम के लिए शस्त्रों का प्रयोग ही एकमात्र विकल्प हो और भी कितने ही ऐसे उपाय हैं, जो उद्दंडता पर कहर ढा सकते हैं। बाढ़ के बढ़ते पानी को रोकने के लिए लोग मिल जुल कर इतनी मिट्टी जमा करते हैं जिससे उफान का जोश छटे और बढ़ता हुआ प्रवाह आगे बढ़ने से रुके। अग्निकाण्ड हो जाने पर आवश्यक नहीं कि उसके लिए धनुष बाण ही सम्हाली जाय। मिलजुल कर पानी या धूल डालने भर से अग्निकाण्ड पर काबू पाया जा सकता है। डाकुओं का खतरा सामने होने पर गाँव के लोग संगठित चौकीदारी की मजबूत व्यवस्था बनाले तो भी स्थिति ऐसी बन जाती है कि डाकुओं को खाली हाथ वापस लौटना पड़े। देखा गया है कि अनाचार उसी क्षेत्र में उन्हीं लोगों पर होता है जिनके बारे में कमजोरी या कायरता की मान्यता बन जाती है। इसकी शक्ति बनाये रहने के लिए शक्ति का प्रदर्शन आवश्यक माना जाता है भले ही उसके प्रयोग का अवसर कभी न आये।

कहते हैं कि एक विषधर सर्प ने नारद से दया पालने की दीक्षा ली। उसने काटना बन्द कर दिया। जंगल के लड़कों ने समझ लिया कि साँप बूढ़ा या अपंग हो गया है। उनकी बन आई। जब भी अवसर मिलता उस साँप से छेड़ खानी करने जा पहुँचते। चोटें लगते रहने से साँप का बुरा हाल हो गया। दूसरे वर्ष नारद जी उधर से फिर निकले। थोड़े रुककर अपने शिष्य साँप से कुशल समाचार पूछे। उसने एक वर्ष में हुई दुर्गति का हाल बताया और अपने शरीर की चोटें बताई। नारदजी ने अपने उपदेश में सुधार किया कि उद्दंडों को काटा भले ही न जाय, पर उनकी हरकतें देखने पर फन फैलाकर फुफकार तो लगानी ही चाहिए। सर्प ने अपनी नीति में आवश्यक सुधार कर लिया फलतः उसे दुर्गति से छुटकारा मिल गया जो गत वर्ष उसे आये दिन हैरान करती रही थी।

अगले दिनों हमें सुधार, विकास एवं उत्कर्ष की दिशा में बढ़ना है। इस प्रयोजन के लिए निष्ठावान रहते हुए भी देखना यह भी होगा कि इस मार्ग पर चलना आरंभ करने से पहले उस मार्ग को ऊबड़ खाबड़, पथरीली तथा खाई खड्डों भरा बना न रहने देकर समतल बना लिया जाय। ऐसा करने से न केवल प्रारंभिक यात्रियों को आसानी होगी, वरन् बाद में उसी मार्ग पर आने वालों को भी रास्ता साफ मिलेगा और आसानी से मंजिल पार कर सकेंगे। इसीलिए विचारशील लोग रास्ते की मरम्मत करना, उन पर उगे झाड़ झंखाड़ों को हटाना आवश्यक समझते हैं और उसकी कटाई छँटाई को भी पुण्य कार्य मानते हैं। किसान और माली यही करते रहते हैं। उन्हें पौधों में खाद पानी देने की जितनी चिन्ता रहती है उतनी ही खरपतवार उखाड़ने तथा वन्य पशुओं से रखवाली की व्यवस्था भी बनानी पड़ती है। यदि उनका कार्य एकाँगी हो तो वे मात्र खाद पानी भर की व्यवस्था करें। गड़बड़ियों को न रोकें तो कितना ही परिश्रम करने पर भी अच्छी फसल घन न ला सकेंगे।

इक्कीसवीं सदी में जिस उज्ज्वल भविष्य की मान्यता परिपक्व की जा रही है, उसका शुभारंभ करते हुए सर्वप्रथम यह देखना होगा कि सत्प्रयोजनों के पनपने का माहौल बन गया या नहीं?

सज्जनता का प्रचार करना आवश्यक है। पर उतना ही अभीष्ट यह भी है कि दुर्जनता के कारण होने वाले दुष्परिणामों को भी ध्यान में रखा जाय। यदि उन्मूलन का ध्यान न रखकर मात्र संवर्धन का ही ध्यान रखा गया तो संसार भर में कुछ ही काल के भीतर मक्खी, मच्छर, खटमल, जूँ जैसे कृमि कीटकों से लेकर सर्प, बिच्छू बर्र, जैसे विषैले जंतुओं की तेजी से होने वाली अभिवृद्धि संसार को इस योग्य बना देगी कि उसमें रहना कठिन हो जायेगा। यदि दुष्ट दुराचारियों को छूट मिले उनके काम में कोई अवरोध उत्पन्न न करे तो देखते देखते वही स्थिति बन जायगी जिसमें किसी के लिए भी चैन से दिन गुजारना संभव न होगा। विरोध, अवरोध की शंका न रहने पर छोटे चोर उचक्के भी दिनोंदिन प्रोत्साहित, सर्व समर्थ होते जायेंगे और ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देंगे कि भले मानसों का जीना भी दूभर हो जायगा। दानवों की शक्ति अधिक होती है, इस तथ्य को देवासुर संग्राम की कथाओं में अनेक बार सिद्ध किया जा चुका है, इसीलिए देवपूजन के बाद दैत्य समुदाय से बचाव का उपाय करना भी आवश्यक माना गया है। युग संधि महापुरश्चरण उसी कड़ी का एक अंग है।


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