प्रार्थना जीवन का अविच्छिन्न अंग बने।

September 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानव जीवन में आने वाली समस्याओं का निराकरण विघ्न, बाधाओं का शमन करने के लिए बताए जाने वाले अनेकानेक उपायों में पूर्वार्त्य दर्शन में प्रार्थना को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। विश्व में फैले मानव समाज के हर भाग में किसी न किसी रूप में इस प्रक्रिया का प्रचलन पाया जाता है। रोजमर्रा के जीवन में अनेकों उदाहरण मिलते हैं जिससे प्रार्थना द्वारा होने वाली उत्क्रान्ति को जाना समझा जा सकता है।

इतने पर भी मानवीय विकास के चरण बुद्धिवाद के शिखर तक पहुँच जाने के कारण सहज बोध का स्थान संशय ने ले लिया है। यहाँ तक कि रेने देकार्ते के शब्दों में “मैं स्वयं पर भी सन्देह करता हूँ” की स्थिति आ पहुँची है। ऐसी दशा में प्रार्थना अथवा दैवी चेतना के आह्वान जैसी प्रक्रिया पर अविश्वास होने लगे, संशय का पाश इसके प्रभावों को बाँध ले, यह स्वाभाविक ही है।

क्या प्रार्थना सिर्फ धर्म का अनिवार्य अंग भर है अथवा इसमें कुछ मनोवैज्ञानिक आधार भी हैं। यदि इसमें मनोवैज्ञानिक तथ्य निहित हैं, तो उनका मानसिक चेतना पर क्या परिणाम होता है? आदि अनेकों प्रश्न हैं। आधुनिक मनोविज्ञान के गतिशील समाधान प्रस्तुत किया है।

मनोविद एरिक फ्राम का अपनी कृति “एनाटॉमी आफ ह्यूमन डिस्ट्रक्टिवनेस” में मानना है कि मानवीय समस्याओं की जड़ अनिश्चितता- असुरक्षा के रूप में उसके मन में समाई हुई है। परेशानियों का स्वरूप कोई भी हो उपजती इसी से है। यदि किसी तरह मन में निश्चय व सुरक्षा के प्रति विश्वास जगाया जा सके तो बहुत सारी परेशानियों को यों ही दूर किया जा सकता है।

विश्वास के बिना प्रार्थना सम्भव नहीं। किन्तु यहाँ पर यह मूढ़ता-अंधता का घोतक न होकर स्पष्टतया वैज्ञानिक एवं तर्क सम्मत है। इशप्रोग्राफ ने अपने ग्रन्थ “डेथ एण्ड रिबर्थ आफ साइकोलॉजी” में स्पष्ट किया है कि वैश्व चेतना के अनेकानेक स्तर हैं। निष्क्रिय निश्चेतन से लेकर सर्वत्र व्याप्त शुद्धतम चेतन। हमारी अन्तरतम चेतना इसी शुद्धतम स्तर से जुड़ी है। अपनी बहिर्मुखी प्रकृति के कारण हम इसके लाभों से वंचित हैं। अन्तर्मुखी हो वैश्व चेतना के इस स्वरूप पर विश्वास हमें सभी प्रकार की संशयग्रस्तता से मुक्त करता है।

संशयग्रस्तता से मुक्त चित्त से ही सच्चा आह्वान संभव है। इसे अभीप्सा भी कह सकते हैं। ऐसी अभीप्सा जो अनिमिष, अविराम, अविच्छिन्न हो।

किन्तु मात्र इस तरह की अभीप्सा से समष्टि चेतना की शक्ति तब तक हमें अनुप्राणित नहीं कर सकती जब तक हम खुद को क्षुद्रता संकीर्णता से मुक्त न कर सकें। इसी के लिए त्याग की आवश्यकता है। मन की सारी संकीर्ण वृत्तियों का त्याग इन सब का ऐसा परित्याग कि जिससे रिक्त मन में वास्तविक ज्ञानपोषक विचारों को निर्बंध स्थान मिले। प्राण प्रकृति की सारी वासना, कामना, लालसा, वेदना, आवेग, स्वार्थपरता, अहंकारिता, लोलुपता, क्षुब्धता ईर्ष्या आदि सभी वे तत्व जो समष्टि चेतना के शुद्धतम स्वरूप का विरोध करते हैं-सभी का त्याग। बहुधा लोग प्रार्थना के इस चरण को पूरा किये बिना प्रक्रिया की सफलता चाहते हैं। किन्तु प्रायः असफलता हाथ लगती है। श्रीअरविन्द इसका समाधान सुझाते हुए कहते हैं कि भागवत प्रसाद शक्ति केवल प्रकाश और सत्य की ही स्थितियों में कार्य करती है। असत्य और संकीर्ण मनोवृत्तियाँ उन पर जो अवस्थाएँ लाद देना चाहती हैं उन अवस्थाओं में उनका कार्य नहीं होता। कारण संकीर्ण मनोवृत्तियाँ जो कुछ चाहती हैं वह यदि उन्हें मंजूर हो जाय तो वह अपने व्रत से च्युत हो जायँ।

इस तरह के त्याग के बिना भी कभी कभी लौकिक सफलताएँ पाते देखा जाता है। माताजी इस स्थिति का स्पष्टीकरण करते हुए “मातृवाणी” खण्ड 4 में कहती हैं कि “इस स्थिति में मिलने वाली सहायताएँ दैवी चेतना की न होकर आसुरी शक्तियों की होती हैं। ऐसी ही सहायताएँ हिटलर, रासपुटिन आदि को प्राप्त हुई थीं। ये शक्तियाँ सहायता तो देती हैं किन्तु शीघ्र ही सहायता प्राप्त करने वाले को विनष्ट कर डालती हैं।

चतुर्थ चरण है ईश्वरीय चेतना से सामंजस्य स्थापना का प्रयत्न। प्रार्थना यहीं पर अपनी पूर्णता प्राप्त करती है। इस चरण का उद्देश्य है-हमारे चिन्तन की पद्धति में परिवर्तन ला देना। ईश्वरी चेतना तो सर्वदा और संपूर्णतः मंगलमय है। फिर हम मंगलमय से दूर क्यों? सिर्फ इसलिए कि हम अपने विचार जगत में शुभ के स्रोत और मंगल के निधान ईश्वर से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते।

विचार दो प्रकार के होते हैं पोषक और विरोधी। मैं प्रतिभावान हूँ कर्मठता अंग-अंग में समायी है। ऐसे विचार पोषक विचार हैं। पोषक विचार वे हैं जो हमारी आन्तरिक शक्तियों को जगाएँ, हमारी कार्य शक्ति का पोषण करें, निज के और लोक के हित का पोषण करें। हमारी और हमारे साथ पड़ोसियों की सब प्रकार की उन्नति में जो विचार सहायता करते हैं, वे विचार पोषक हैं। जो इस प्रकार के पोषण के वि....घातक हैं उन्हें विरोधी विचार कहते हैं। यह कार्य कैसे पूरा होगा? सामने बाधा ही बाधा खड़ी हैं। मैं ही ऐसा अभागा हूँ, जिसे कोई सहायता नहीं करता। ऐसे विचार वि....घातक विचार हैं।

विचारों के अनुरूप ही मानसिक चेतना का स्वरूप गठित होता तथा जीवन क्रम का नियोजन बन पड़ता है। इन्हीं के अनुरूप ईश्वरीय चेतना से सम्बन्ध का स्थापन अथवा विच्छेद होता है। पोषक विचार और पोषक शब्द हमारे शुभ की भूमिका हैं। वे आने वाले प्रभात की सुनहली रश्मियाँ हैं विधेयात्मक विचारों से जीवन एवं जगत में हमारे लिए शुभ विचारों का अवतरण निश्चित हो जाता है। इसके विपरीत विरोधी विचार शुभ की भूमिका को नष्ट करते हैं। इनका प्रवाह हमें अन्धकार की ओर ले जाता है। इनका जमघट हमारे जीवन में क्या भीतर क्या बाहर हर और दुःख का जमघट लगा देता है। इस प्रवाह से मानसिक चेतना पूर्णतया क्षुब्ध और अशान्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में आन्तरिक शक्तियों की अभिव्यक्ति की सारी सम्भावनाएँ समाप्त प्रायः हो जाती हैं।

विरोधी विचार “निर्वाण” हैं तो पोषक विचार “निर्माण” हैं। ईश्वर मंगलमय है “शिवत्व” से परिपूर्ण है। वह हमारे लिए मंगल का विधान करते हैं। हमारे पोषक विचार प्रार्थनाएँ ईश्वरीय चेतना से सामंजस्य का स्थापन करते हैं। परम चेतना के प्रवाह का पथ प्रशस्त कर देते हैं। पर ज्यों ही विरोधी विचार आते हैं, ईश्वर के मंगलमय विधान के अभिव्यक्त होने में बाधा उपस्थित करते हैं। वे राह में काँटे बिखेर देते हैं। अतएव चतुर्थ चरण की पूर्ति का तात्पर्य है पोषक विचारों का अविरल प्रवाह बना रहे।

इन चारों चरणों से युक्त प्रार्थना हमारे अपने जीवन क्रम को आमूल-चूल रूप से परिवर्तन करने वाली होती है। जब अवरोधों, परेशानियों, समस्याओं की जड़ ही समाप्त हो गई, तो जीवन प्रवाह का उन्नत एवं उच्चस्तरीय आयामों में पहुँचना स्वाभाविक ही है। यह परिवर्तन स्वयं के जीवन में घटे इसके लिए जरूरी है कि प्रार्थना को जीवन का अविच्छिन्न अंग बनाया जाय।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118