सुगंधों से मन को प्रफुल्लित करें, प्रसुप्त को जगायें

September 1989

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सुगंध का प्रभाव सर्वविदित हैं सुगंधित वातावरण में उठने-बैठने, खाने-पीने की सभी की इच्छा होती है, जबकि दुर्गन्ध से लोग दूर भागते हैं। मन्दिरों और उपासना-गृहों में भक्त देर तक बैठे रहकर साधना-आराधना इसलिए करते रह पाते हैं कि वे खुशबूदार और उत्फुल्लतादायक स्थान होते हैं। प्रकृति का सान्निध्य आनन्ददायक माना जाता है, क्योंकि वहाँ का वातावरण वृक्ष-वनस्पतियों और फूलों के सुवास से ओत-प्रोत रहता है। यह खुशबू के प्रभाव-परिणाम हैं, पर यह सिर्फ मन तक ही सीमित होता है, ऐसी बात नहीं है। शरीर पर भी इसका असर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसकी इसी सामर्थ्य को देखते हुए अब चिकित्सा विज्ञान की एक अभिनव शाखा (गंध चिकित्सा) के रूप में इसे विकसित किया जा रहा है।

प्रख्यात अँग्रेज तंत्रिका विज्ञान वाई, जेड. यंग के अनुसार गंध ही एक मात्र ऐसी तन्मात्रा है, जिसे ग्रहण तो मस्तिष्क के कोश करते हैं, पर उसका प्रभाव-परिणाम स्वास और रक्त के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर को मिलता है। इसी सिद्धान्त पर यह चिकित्सा पद्धति आधारित है। आधुनिक गंध चिकित्सा की जननी फ्राँस की मारग्युवेराइट मौरी मानी जाती है। इस क्षेत्र में दीर्घकालीन अध्ययन अनुसंधान के उपरान्त उन्होंने एक पुस्तक लिखी है-” दि सीक्रेट ऑफ लाइफ एण्ड यूथ” इस पुस्तक में वे लिखती हैं कि गंध चिकित्सा के माध्यम से स्वास्थ्य और यौवन को उसी प्रकार सुरक्षित रखा जा सकता है, जिस प्रकार अन्य कारगर चिकित्सा पद्धतियों द्वारा संभव होता है। वे कहती हैं कि विशेष कर ढलती आयु के साथ जब माँसपेशियों की ऊतकें कड़ी पड़ने लगती हैं और त्वचा में झुर्रियाँ आने लगती हैं, वैसी अवस्था को टालने में यह उपचार प्रक्रिया विशेष रूप से सफल साबित हुई है। उनके अनुसार ऐसा इसलिए संभव हो पाता है, क्योंकि इसमें कड़े ऊतकों में लोच उत्पन्न करने और त्वचा कोशाओं के पुनरुत्पादन की अद्भुत सामर्थ्य है। “एनसाइक्लोपीडिया ऑफ अल्टरनेटिव मेडिसिन एण्ड सेल्प हेल्प” में कहा गया है कि सुगंधित सत्व न सिर्फ शरीर को प्रभावित करते हैं, वरन् स्वभाव और भावनाओं को भी प्रभावित करने की सामर्थ्य रखते हैं। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि उक्त चिकित्सा से न सिर्फ त्वचा संबंधी शिकायतों को दूर किया जा सकता है, अपितु अनेकानेक प्रकार के शारीरिक मानसिक रोगों का इलाज भी संभव है।

अब इस क्षेत्र में ऐसे विशिष्ट कार्ड भी विकसित कर लिए गये हैं, जो रोगियों के संपर्क में आकर उनकी गंध को अपने में धारण कर लेते हैं। तत्पश्चात् इन कांडों को सूँघ कर विशेषज्ञ रोग का निदान करते हैं। इस विद्या के विकास से अब रोगियों को दूरस्थ डॉक्टरों के पास जाने का कष्ट नहीं उठाना पड़ता और घर बैठे उनका इलाज हो जाता है। पश्चिम के कई देशों में इस प्रक्रिया से सफलतापूर्वक उपचार किया जा रहा है। इससे जिन बीमारियों का निदान और उपचार अब तक संभव हुआ है, वे हैं-टाइफाइड, टी.बी., मधुमेह, स्कर्वी, डिप्थीरिया, गुर्दे, यकृत व फेफड़े संबंधी रोग।

इस दिशा में कार्यरत अमेरिकी आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान की ग्रन्थि और हारमोन विशेषज्ञ श्रीमती बिनीप्रेड कटलर अपने गहन अनुसंधान के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँची हैं कि पुरुष शरीर से निकलने वाली गंध का नारी शरीर का अनुकूल व उत्तम प्रभाव पड़ता है। ज्ञातव्य है कि मनुष्यों में इसका आधार भी “फेरोमोन” नाम रसायन ही है। इस तथ्य के प्रकाश में आते ही पश्चिमी देशों की सौंदर्य- प्रसाधन निर्मात्री कम्पनियों ने अब ऐसे क्रीम, पाउडर व इत्रों का निर्माण आरंभ किया है, जिनमें पुरुषों की खुशबू समाविष्ट होती है इन कंपनियों का दावा है कि इनके प्रयोग से महिलाएँ वही लाभ ले सकेंगी, जो पुरुषों के प्रत्यक्ष सान्निध्य में रहकर लिया जा सकता है।

अब यह तथ्य भी सुस्पष्ट हो चुका है कि शल्यक्रिया की वास्तविक सफलता के पीछे गंध-विज्ञान की महती भूमिका है। क्लोरोफार्म, हैलोथेन, ईथर जैसे रसायनों की गंध मस्तिष्क कोशाओं को तुरंत प्रभावित कर शरीर को अचेतावस्था में ले जाती हैं। इसी के बाद रोगग्रस्त अंग-अवयवों की चीरफाड़ संभव हो पाती है। यदि इस विज्ञान का विकास न हुआ होता, तो आज शल्यक्रिया की सफलता संदिग्ध ही बनी रहती।

कनाडा के तंत्रिका तंत्र विशेषज्ञ डा. पेनफील्ड का कहना है कि मानवी मस्तिष्क में घ्राण केन्द्र और स्मृति केंद्र का बड़ा घनिष्ट संबंध है। वे कहते हैं कि सिर्फ घ्राणशक्ति के माध्यम से मस्तिष्क की गहरी परत में दबी-छुपी, भूली-बिसरी स्मृतियों को उखाड़ा उभारा जा सकता है। इसी प्रकार गंध और स्वाद केन्द्रों का भी निकट का संबंध है। उनके अनुसार जिस प्रकार श्रवण तंत्र की खराबी वाले लोग स्थायी रूप से गूँगे होते हैं, उसी प्रकार जिनकी गन्ध ग्रहण की सामर्थ्य चली जाती है, उनकी स्वादेन्द्रियाँ भी प्रभावित होती हैं। सामान्यतः गंध, स्वाद की तुलना में 10 हजार गुणी अधिक संवेदनशील होती है, पर जब इससे संबंधित अवयव में स्थायी अथवा अस्थायी रूप से खराबी आती है, तब हमें स्वाद में परिवर्तन का आभास होता है सर्दी-जुकाम एवं बुखार की स्थिति में जब हमारा घ्राण तंत्र प्रभावित होता है, तो अन्तर अधिक स्पष्ट हो जाता है।

अपनी पुस्तक “ग्लैण्ड रेग्युलेटिंग पर्सनालिटी” में येल विश्वविद्यालय के तंत्रिका शास्त्री गोर्डन शैपर्ड घ्राण चिकित्सा की प्रक्रिया समझाते हुए कहते हैं कि विभिन्न प्रकार की खुशबूओं के अणु इतने हल्के होते हैं कि वे हवा में इधर-उधर उड़ते-फिरते रहते हैं। इनमें से जब कोई अणु हमारी नाक के संपर्क में आता है, तो घ्राण प्रक्रिया के दौरान ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से यह मस्तिष्क की सबसे भीतरी परत (रेप्टीलियन ब्रेन) में स्थित घ्राण केन्द्र में पहुँचता है। यह परत अपनी ऊपरी मस्तिष्कीय परत (लिम्बिक सिस्टम) से स्नायु तंतुओं के माध्यम से परस्पर अन्योन्याश्रित रूप से संबद्ध होती है, जिससे सुगन्धियों का प्रभाव परिणाम सिर्फ घ्राण केन्द्र तक ही सीमित होकर नहीं रहता, वरन् अपनी ऊपरी परत (लिम्बिकलोब) को भी कुछ हद तक प्रभावित करता है। इस परत में स्थित लिम्बिक सिस्टम का नियंत्रण मस्तिष्क के उस क्षेत्र पर होता है, जहाँ अंतःस्रावी तंत्र को संचालित नियंत्रित करने वाला मास्टर स्विच (हाइपोथैलमस) होता है। इस प्रकार सुगंधि गन्ध केन्द्र के साथ-साथ शरीर की समस्त हारमोन ग्रन्थियों को भी प्रभावित-उत्तेजित करने में समर्थ हो जाती है।

संभव है, सुगंधियों के लाभों को देखते हुए ही भारतीय संस्कृति में अग्निहोत्र, यज्ञ विधान और पूजा उपचारों में वातावरण को सुगंधित बनाये रखने का सामान्य प्रचलन चलाया गया हो, ताकि मुख्य उपचार के साथ-साथ खुशबूओं के संपर्क में रहकर गंध-चिकित्सा का लाभ भी अनायास लिया जा सके। गंध चिकित्सा, एरोमा थेरेपी पूर्णतः विज्ञान सम्मत है, यह अब प्रमाणित हो चुका है। यह भी तथ्य सम्मत है कि अप्राकृतिक, संश्लेषित सुगंध से बचना भी उतना ही जरूरी है जितना कि दुर्गन्ध या प्रदूषित वायु से। हितकारी, मन को आह्लादित, प्रफुल्लित करने वाली सुगंधों से लाभ उठाकर मस्तिष्क के प्रसुप्त केन्द्रों को निश्चित ही जाग्रत किया जा सकता है।


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