व्यावहारिक जीवन का ध्यान योग

September 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

खोई हुई वस्तु को ढूँढ़ने का एक ही तरीका है-ध्यान। जेब में सबेरे चले थे तब पचास रुपये थे। रात को जेब पर हाथ गया तो देखा कि जेब खाली है। चिन्ता हुई और हो हल्ला मचा। किसने रुपये निकाले? किसने चोरी की? उत्तेजित और अशान्त मन किसी पर दोषारोपण करने के अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं सकता।

पर जब चित्त शान्त हुआ तब याद किया कि सबेरे से लेकर किन-किन से भेंट हुई और कब, कहाँ रुपयों की आवश्यकता पड़ी। सबेरे से शाम तक का तारतम्य मिलाया तो याद आया कि मकान मालिक रास्ते में मिला था। उसने किराया माँगा सो जेब में रखे पचास रुपये निकाल कर उसे दे दिये थे। चिन्ता का समाधान हो गया।

छाता लेकर चलना था। देखा तो वह खूँटी पर नहीं था। चिन्ता हुई। सभी से पूछा। बच्चों को डाँटा। पर चिन्ता शाँत होने पर सोचा कि कल कहाँ कहाँ गये थे और कहाँ तक छाता साथ रहा। कहीं छूट तो नहीं गया। याद आया कि दोस्त के घर गये थे वहाँ किवाड़ पर छाता टाँगा था। पीछे चले तो शाम हो गयी। छाते की जरूरत नहीं रही सो याद भी भूल गयी। सम्भवतः वहीं रह गया। दोस्त के यहाँ पहुँचे तो उसने जाते ही कहा-”कल छाता तो यहाँ छोड़ गये थे। जूता और टोपी तो किसी के घर नहीं छोड़ गये। बड़े भुलक्कड़ हैं।” छाता मिल गया और सबेरे घर पर जो समस्या हैरान कर रही थी उसका समाधान हो गया।

इसे कहते हैं अन्तर्मुखी होना। मन की-आँखों की बनावट ऐसी है जिसमें बाहर की वस्तुएँ ही दीखती हैं। बाहर से भी सिकुड़ कर वे सामने ही केन्द्रित रह जाती हैं। जो चीजें सामने नहीं हैं, वह ध्यान में ही नहीं रहतीं। फोड़ा उठता है तो दीखता है। अपच में क्या हानि हो सकती है यह समझ में नहीं आता क्योंकि पेट का भारीपन प्रत्यक्ष नहीं है। सच बात यह है कि प्रत्यक्ष की उत्पत्ति परोक्ष में होती है। जो भीतर है वही उबलकर बाहर आता है और जब उस उफान का स्वरूप सामने आता है तब प्रतीत होता है कि समय से पहले ध्यान देने की बात याद ही नहीं रही। नशेबाजों से लेकर आलसी प्रमादी तक अनगढ़ लोग ऐसी ही भूलें करते रहते हैं ताला खुला छोड़ देने पर जब वस्तुएँ गायब हो जाती हैं तब अफसोस होता है।

होना यह चाहिए कि हम सर्वथा बहिर्मुखी न रहें। प्रत्यक्ष भर को देखने वाले नर पशु कहलाते हैं। परोक्ष को देखने के लिए अन्तर्मुखी होना चाहिए और ज्ञान चक्षुओं में यह भीतर का परोक्ष निरीक्षण-परीक्षण सतत् करना चाहिए। शरीर के भीतर क्या व्यथा है? इसे चिकित्सक बतायें, इससे पूर्व अंग अवयवों की स्थिति पर ध्यान देकर स्वयं अधिक अच्छी तरह जाना जा सकता है और जिस भूल के कारण संकट उत्पन्न होने जा रहा था उसे समय रहते रोका सुधारा जा सकता है। यही बात स्वभाव के बारे में है। अपना स्वभाव क्रोधी, कटुभाषण करने का है, इस बात को दूसरे लोग कहें तो बुरा लगेगा किन्तु वह विद्वेष तो बढ़ता ही रहेगा जो आवेशग्रस्तता के कारण उत्पन्न होता ही रहता है। आये दिन की इस कठिनाई से बचने का एक ही तरीका है कि आत्म निरीक्षण किया जाय और जो बुरी आदत पड़ गयी है उसे छुड़ाया जाय पर यह हो तभी सकता है जब अन्तर्मुखी होना सीखा जाय। ध्यानयोग की साधना अन्तर्मुखी होने से आरम्भ होती है।

अन्तर्मुखी होने के लिए यह आवश्यक है कि मन का फैलाव जो बाहर बिखरा पड़ा है उसे समेटा जाय। यदि दृष्टि बाहर ही घूमती रही तो जलवायु को, खाद्य पदार्थों को, स्वास्थ्य संकट को कारण मानते रहने के अतिरिक्त और कोई बात न सूझेगी। पर जब अन्तर्मुखी हुआ जायगा तब चोर पकड़ा जा सकेगा कि असंयम बरतने के कारण अस्वस्थता है। यदि जलवायु कारण रही होती तो उस क्षेत्र में रहने वाले सभी को बीमार हो जाना चाहिए था। उपचार चिकित्सकों के हाथ नहीं, अपने हाथ है। नई परिस्थितियों के अनुरूप अपना रहन सहन नये ढंग से बदल लिया जाय तो बिगड़ी बात बनने में देर न लगे पर यह सूझ बूझ उत्पन्न तभी होगी, जब आत्म निरीक्षण किया जाय और परिस्थितियों के साथ तालमेल न बिठा पाने के अपने दोष को समझा एवं सुधारा जाय।

अध्यात्म प्रयोजनों में लोग अक्सर बाहरी क्षेत्र में ढूँढ़ खोज करते हैं। ईश्वर का अनुग्रह पाना है, देवताओं से वरदान लेना है, समर्थ गुरु ढूँढ़ना है, किसी साधन सम्पन्न का सहयोग लेना है तो उसी की खुशामद की जाती है और काम नहीं बनता तो उन्हीं की निष्ठुरता बतायी जाती है। अन्तर्मुखी होकर यह नहीं देखा जाता कि इन सब उपलब्धियों के लिए जिस पात्रता की आवश्यकता थी वह अपने भीतर है या नहीं है। यदि नहीं है तो फिर उसे ठीक किया जाय। यदि ईश्वर निष्ठुर होता, देवता स्वार्थी होते तो उनका व्यवहार सभी के साथ वैसा होना चाहिए था। जब दूसरों पर अनुकम्पा होती है तो अपने उच्चस्तर के अनुरूप उन्हें हमारे ऊपर भी कृपा करनी चाहिए थी। यदि उनके व्यवहार में अन्तर है तो देखा जाना चाहिए कि अपने व्यक्तित्व में ही ऐसे दोष दुर्गुण तो नहीं घुसे हुए हैं, जो उन्हें पीछे हटने और असहयोग करने के लिए बाधित करते हों। यह आत्म निरीक्षण तभी हो सकता है जब व्यक्ति अन्तर्मुखी हो।

ऋद्धि सिद्धियाँ किन्हीं देवी देवताओं के पास हैं और वे किसी पूजा पाठ से प्रसन्न होकर उड़ेलते रहते हैं, इस प्रकार का बहिर्मुखी दृष्टिकोण हमें भटकाता ही रहेगा। वास्तविकता से कोसों दूर रखेगा। पर जब अपना दृष्टिकोण बदलकर परिस्थितियों के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराने की अपेक्षा अपनी कमियों को खोजना और उन्हें पूरा करना आरम्भ किया जायगा तो विकट दीखने वाली समस्या नितान्त सरल हो जायगी।

ध्यान लगने का प्रथम उपाय यह है कि उतने समय के लिए बाहर की वस्तुओं और व्यक्तियों, परिस्थितियों से ध्यान हटाकर हम अपने भीतर केन्द्रित हों और सुधार क्रम की आवश्यकता समझें, व्यवस्था बनायें।

ध्यान लगने का प्रथम उपाय यह है कि उतने समय के लिए बाहर की वस्तुओं और व्यक्तियों, परिस्थितियों से ध्यान हटाकर हम अपने भीतर केन्द्रित हों और सुधार क्रम की आवश्यकता समझें, व्यवस्था बनायें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118