भ्रान्तियों से उबरें, प्रगति पथ प्रशस्त करें

September 1989

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मनुष्य में प्रतिभा, क्षमता, योग्यता बीज रूप में पूरी तरह विद्यमान हैं। इन सबके विकास की अनेकानेक सम्भावनाएँ भी समाई हैं। यही कारण है कि मानव समुदाय में से विश्व को चमत्कृत कर देने वाले व्यक्तित्व उपजाते आए हैं। शारीरिक स्तर पर इन क्षमताओं के जागरण से कुशल जिम्नास्टिक, एथिलीट, पहलवान बनते देखे जाते हैं। मानसिक स्तर पर कल्पनाशीलता का जागरण व्यक्तित्व को कालिदास, गेटे, टेनीसन, बड्सवर्थ, आइन्स्टीन, काण्ट, इब्नेसिना, जैसे दर्शनशास्त्री व वैज्ञानिक के रूप में गढ़ने वाला होता है। भावनात्मक स्तर पर जाग्रत प्रतिभा व योग्यता व्यक्ति को महात्मा गाँधी, तिलक, विवेकानन्द, जैसा सन्त, समाज सेवी बनाने वाली होती है।

प्रत्येक में प्रतिभा के इन बीजों के बावजूद कल्पना हीन कुण्ठित बुद्धि, भावनाहीन संकीर्ण स्वार्थरत मनुष्यों की भरमार ही चारों ओर दिखाई देती है। जो मनुष्य अपने विकास की सम्भावनाओं को पहचान कर उन्हें उपयोग में लाकर न केवल स्वयं समर्थ और सशक्त बन सकता था, वरन् दूसरों का आश्रय दाता सिद्ध हो सकता था। आज दुःखी पीड़ित, उदास, निराश, हैरान परेशान की स्थिति में जिस-तिस तरह की जिन्दगी गुजार रहा है, सेवा सहायता की बात तो दूर अपना जीवन ही उससे ढोते नहीं बनता।

आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने मानव की वर्तमान स्थिति का गहराई से अध्ययन करने का प्रयास किया है। उनके अध्ययन का केन्द्र बिन्दु यही रहा है, क्षमता के बीजों के रहते अक्षम रहने का कारण क्या है? मनोविद बी.एम.फाँस ने अपनी कृति “न्यू हाँरिजन्स आफ साइकोलॉजी” में इस कारण को स्पष्ट करने की चेष्टा की है उनका कहना है कि वर्तमान की सारी दुर्बलताओं, परेशानियों का कारण मानवी मन की स्वयं को स्वरूप के बारे में भ्रमात्मक धारणा है अधिकाँशतया लोग या तो आत्महीनता से पीड़ित हैं अथवा उद्धत अहंकार को लादे हुए हैं। आत्महीनता से ग्रसित व्यक्ति अपने को निरा दीन हीन समझता है। उसे हमेशा यही भान होता रहता है कि मेरी उन्नति सम्भव नहीं, जबकि अहंकारी अपने की पूर्णतया विकसित मानता है। दोनों ही दशाओं में विकास की सम्भावनाओं के द्वार बन्द हो जाते हैं।

अमेरिकन मनोवैज्ञानिक डा. मैक्सवेल माल्ट्ज अपने अध्ययन “द मैजिक पावर ऑफ सेल्फ इमेज साइकोलॉजी” में स्पष्ट करते हैं कि खुद के बारे में दृष्टिकोण को सुधारा जा सके तो योग्य सक्षम बन सकना असम्भव नहीं है। इसके लिए न तो कोई छोटा है और न बड़ा। सभी समान रूप से नूतन, रचनात्मक, सृजनशील सफल जीवन की लक्ष्य प्राप्ति के इस प्रयोग में संलग्न हो सकते हैं।

माल्ट्ज अपनी इसी कृति में बताते हैं कि मनोविज्ञान के क्षेत्र में कुछ दशक पूर्व यह माना जाता था कि पॉजेटिव थिंकिंग अथवा पोषक विचारों के द्वारा स्वयं की योग्यताएँ उभारी जा सकती हैं। किन्तु नूतन शोध अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि यदि अपने बारे में धारणाएँ भ्रामक बनी रहें तो पोषक विचार पूर्व प्रभावी नहीं होते हैं। यदि अपने बारे में हेय और निकृष्ट होने की मान्यता जड़ जमाए बैठी है तो बाह्य परिस्थितियों के बारे में पोषक विचारों को स्थान दे पाना सम्भव नहीं बन पड़ता है।

स्वयं के नवीन व उत्कृष्ट स्वरूप गढ़ने की आवश्यकता पर बल देते हुए प्रेस्काट लेकी ने अपनी रचना “सेल्प कन्सिसटेन्सी एथ्योरी आफ पर्सनालिटी” में तकनीकी को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार व्यक्तित्व को ढालने के लिए एक ऐसा साँचा आवश्यक है जो अपने में आदर्शों योग्यताओं एवं क्षमताओं का समुच्चय हो। साथ ही मानव के मूलतः दिव्य होने की मान्यता को सार्वभौमिक स्थान दिया जाय। लेकी के अनुसार इन दोनों आस्थाओं को जगाकर जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन सम्भव है। जब खुद के मूलतः दिव्य होने पर विश्वास जमता है तो निकृष्टता, हीनता, विजातीय, समझ में अपने लगती है। इससे जैसे-तैसे पीछा छुड़ाने में ही भलाई सूझती है। इसके साथ ही जब जीवन में आदर्श स्वरूप का ऐसा साँचा सामने होता है जो क्षमताओं एवं आदर्शों का समुच्चय हो तो स्वयं को वैसा ही गठित करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

प्रेस्काँट द्वारा बताए गए उपरोक्त मनोवैज्ञानिक तथ्य की स्थापना भारतीय चिन्तन में स्पष्ट रूप से मिलती है। उपनिषद् साफ शब्दों में मानव मात्र को “अमृतस्य पुत्रा” का सम्बोधन देते हैं, जो मनुष्य को मूलतः दिव्य सिद्ध करता है। इसके साथ ईश्वर सम्बन्धी मान्यता के पीछे उपरोक्त मनोवैज्ञानिक रहस्य झाँकता है। इस मान्यता के द्वारा जीवन को तदनुरूप आदर्शयुक्त सुयोग्य व सक्षम गठित करने का ही भाव है। इस भाव को ठीक-ठीक समझ लेने पर वर्तमान पूरी तरह रूपांतरित होने लगता है।

मनःशास्त्री एनी रो ने साँइटिफिक अमेरिकन के वाल्यूम 87 में प्रकाशित शोध निबन्ध “ए साइकोलाजिस्ट एग्जामिन्स सिक्सटी फोर इमिनेंन्ट पर्सन्स” में उपरोक्त तथ्यों का समर्थन किया है। उनका यह शोध पत्र चौसठ विशिष्ट प्रतिभा शालियों के मनोविश्लेषण की रिपोर्ट है। रो लिखती हैं कि प्रखर प्रतिभावानों के मन, बुद्धि, व्यक्तित्व किसी विशेष तत्व से गठित नहीं होते। जन्म से प्रतिभावान होना अपवाद है, नियम नहीं। सभी प्रतिभाशाली लोगों में विशेष तत्व एक ही है कि वह अपने में निहित सम्भावनाओं को पहचानते हैं और उन्हें विकसित करने का प्रयास करते हैं।

रो के अनुसार अपने को मूलतः दिव्य समझते हुए आवश्यक है स्वयं का सम्यक निरीक्षण किया जाय। इस सम्यक निरीक्षण के द्वारा यह पता चलता है कि किस स्तर पर कौन सी योग्यताएँ निखर सकती हैं। हर व्यक्ति की अपनी मौलिक विशेषताएँ होती हैं। उदाहरण के लिए मार्क ट्वेन की मौलिक विशेषता एक साहित्यकार की थी। इसको न समझ पाने के कारण जब वह व्यवसाय के क्षेत्र में उतरे तो पूरी तरह असफल हुए। बाद में भूल सुधार लेने पर उनकी गणना चोटी के साहित्यकारों में होने लगी। अतएव अपनी मौलिक विशेषता को जाना जाय।

इसके साथ यह भी जरूरी है कि अपनी कमियों व दोषों को पूरी तरह विजातीय माना जाय। ऐसी धारणा इनसे सहज छुटकारा दिला देती है। प्रतिभा सम्वर्धन में एक अन्य अवरोध है, बिना जाँचे परखे खुद को सर्वोत्कृष्ट मान लेना। ऐसी दशा में अहं की इतनी मोटी दीवार खड़ी हो जाती है कि विकास का द्वार ही अवरुद्ध हो जाता है। अतएव जरूरी है कि स्थिति का सही-सही आकलन किया जाय।

स्थिति के आकलन के पश्चात् अगला चरण है प्रयास। प्रयास का तात्पर्य है साँचे के अनुसार अपने को ढालना। आदर्शों के समुच्चय के अनुरूप अपने मूलतः दिव्य जीवन को शनैः शनैः विकसित करना। अपने स्वरूप को मूलतः दिव्य मानने तथा आदर्शों की स्पष्ट धारणा होने पर जीवन में चमत्कारी रूप से परिवर्तन होने लगता है। इस तरह मानवी अन्तराल में समाए कालिदास, गेटे, गाँधी, तिलक, काण्ट, शंकराचार्य एक एक करके प्रकट होने लगते हैं। आवश्यक है कि प्रतिभा सम्वर्धन के इस रहस्य को समझ कर प्रयत्नशील हुआ जाय।


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