स्फूर्ति व मस्ती पाने की सही विधि!

September 1989

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आन्तरिक क्षेत्र की दो कामनायें प्रमुख हैं। एक स्फूर्ति दूसरे मस्ती। उन्हें पाने के लिए हर किसी में लालसा बनी रहती है। जिस प्रकार शरीर को अपनी शारीरिक और मानसिक भूखे बुझाने के लिए प्रयत्न करने के लिए जी करता है, मन चलता है उसी प्रकार आत्मा भी अपने स्वाभाविक गुण स्फूर्ति और मस्ती के अवसर प्राप्त करने के लिए लालायित रहती है। भले ही व्यावहारिक जीवन में वैसे अवसर न मिले और अन्तरात्मा को उस अभाव के कारण उदास असन्तुष्ट रहना पड़े। आलस्य और प्रमाद से बचकर सामने प्रस्तुत कर्त्तव्य कर्मों को ईश्वर की पूजा मान कर उनमें तत्परता एवं तन्मयता के साथ लगने पर स्फूर्ति की स्थिति सदा बनी रह सकती है। ऐसा लगता रहता है कि किसी महत्वपूर्ण कार्य में लगने और उसमें सफलता मिलने जैसा उत्साह मिल रहा। यदि दिनचर्या को पुण्य परमार्थ में, सेवा साधना में नियोजित रखा जा सके तो उसके बदले उत्साह में अनायास ही स्फूर्ति बनी रह सकती है। आलस्य प्रमाद का बोझिल अभिशाप सिर से उतरते ही बहते प्रवाह में तैरने वाली लकड़ी की तरह अपने आप को प्रगतिशीलता के पथ पर चलने की अनुभूति होती है।

इन सद्गुणों की मात्रा बढ़ने पर स्फूर्ति ही मस्ती के रूप में विकसित होने लगती है। स्फूर्ति शारीरिक समझी जाती है पर उसके पीछे भी मानसिक प्रसन्नता छिपी रहती है। मात्र शारीरिक स्फूर्ति तो खिलाड़ियों को खेल के मैदान में भी मिल जाती है पर जब वह सफलता के समीप पहुँचने पर बढ़े हुए उत्साह के रूप में विकसित होती है तो उसमें मन उछलने लगता है और गतिशीलता के साथ घुली हुई प्रसन्नता की भी अभिवृद्धि होती है। स्फूर्ति का विकसित स्वरूप यही है।

मस्ती तब आती है जब मनुष्य भ्रम जंजाल से निकलकर श्रेय पथ पर सुनिश्चित संकल्पों के साथ आगे बढ़ता है। सदाशीलता की तुलना सोमरस से की जाती रही है उसे “अमृत” नाम भी दिया जाता है। विवेक की आँख खुलने पर अपना स्वरूप, लक्ष्य और कर्तव्य स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगता है। शंका कुशंकाओं से निवृत्त होने पर जब भ्रान्तियों से छुटकारा पाकर जीवन मुक्ति जैसी स्थिति मिलती है तो विचारणा ही नहीं क्रियाशीलता भी सत्प्रयोजनों में निरत रहने लगती है। इच्छा के अनुरूप अवसर मिलने पर जो गहरी प्रसन्नता मिलती है पुलकन और सिहरन उठती है उसे मस्ती कहते हैं। मस्ती यों असाधारण लाभ, यश एवं वासनात्मक तृप्ति के अवसर मिलने पर भी आती है पर वह टिकती नहीं। समय क्रम के अनुसार स्थिति में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। ऐसी दशा में शरीरगत सफलताओं के मिलने पर जो मस्ती आती है वह भी निवृत्ति के अगले ही क्षणों में समाप्त हो जाती है। सुखद स्मृतियों की घटनायें जब आँखों के आगे से गुजरती हैं और उन के फिर से पा सकने का अवसर चला गया होता है तो कसक भरा पश्चाताप ही शेष रह जाता है किन्तु आत्मिक मस्ती का भी कभी अन्त नहीं होता। वह सुनिश्चित संकल्पों के साथ आदर्शवाद की ऐसी दिशा में बढ़ती है जिसमें अनन्त काल तक प्रगति ही प्रगति है। जब तक सदाशयता की दिशा में भाव उमड़ते रहेंगे और प्रयत्न चलते रहेंगे तब तक मस्ती में कभी कमी नहीं पड़ने वाली है। निर्धारण अपना है, संकल्प अपना है, प्रयास अपना है इसलिए मस्ती का आनन्द भी अपना है। न उसके घटने की आशंका है और न व्यवधान पड़ने की। यही है जीवन का आनन्द जो शरीर क्षेत्र में स्फूर्ति के रूप में और मनःक्षेत्र में मस्ती के रूप में सतत् अनुभव किया जा सकता है। उस सरसता का निरन्तर रसास्वादन किया जा सकता है। जीवन को कृतकृत्य हुआ प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है असल की नकल बनाने में मनुष्य बहुत चतुर है। मिट्टी के हाथी, घोड़े, शेर, रीछ जैसी अनुकृतियाँ बनाने में उसे देर नहीं लगती। रेल मोटर भी वह रद्दी टीन को तोड़ मरोड़ कर तनिक सा रंग लगने भर से बना, कर तैयार कर लेता है। बच्चे के खिलौनों में एक से एक बढ़ी चढ़ी चीजों के नमूने होते हैं। चिड़िया से लेकर मछली तितली इत्यादि संभवतः उसने मनो-विनोद के लिए ही बनाये। मस्ती पाना ही उसका मूल प्रयोजन था। लगता है किसी मन चले ने इसी नकल प्रयोजन के लिए नशेबाजी क तरीका खोज निकाला होगा। नशों में तात्कालिक रूप से ऐसी ही क्षणिक अनुभूति करा देने की विशेषता होती है। हल्के सस्ते नशे उस प्रयोजन को थोड़ी मात्रा में पूरा करते हैं और जो उनमें महंगे गहरे हैं वे बढ़ चढ़ कर अपना कौतुक कौतूहल दिखाते हैं। उन सब से किसी न किसी मात्रा में फुर्ती और मस्ती का अनुभव होता है। इसी लालच में लोग नशेबाजी के शिकार बनते हैं और फिर उस कुचक्र में मछली के जाल में फँसने की तरह इस तरह जकड़ जाते हैं कि आरम्भिक कौतुक अन्ततः जानलेवा बनता है, मछली और चिड़ियाँ आरम्भ में देखने वाले चारे को ही बड़ा लाभ समझती हैं पर कुछ ही देर में उनको यथार्थता विदित हो जाती है। जब प्राणों पर आ बनती है तब पछताने से भी कुछ काम नहीं चलता।

आरम्भिक प्रलोभन को देख कर ही लोग पाप कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। इसमें उन्हें पहला हाथ छोड़ते ही नफा प्रतीत होता है पर वस्तुस्थिति प्रकट होते ही उस ओर कदम बढ़ाने वाले का विश्वास चला जाता है। अपयश फैलता है। सहयोग, स्नेह और सम्मान मिलना समाप्त हो जाता है तब प्रतीत होता है कि आरंभिक उतावली में जो लाभ कमाया गया था वह बहुत महँगा पड़ा। नशेबाजी के सम्बन्ध में भी यही घटना घटित होती है।

बाल बुद्धि की अदूरदर्शिता और समझदारी की दूरदर्शिता का अन्तर समझा जाना चाहिए और जिनका मानसिक विकास उस स्तर का हो चुका है उन्हें समझ बूझ कर ही कदम उठाने चाहिए। छोटे बच्चे साँप को, बिच्छू को, आग को खिलौना समझ कर पकड़ सकते हैं कील, सिक्का या दूसरी चीज लुभावनी देखकर उसे निगल सकते हैं। उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता कि इस नासमझी का परिणाम उन्हें जान गँवाने जैसा भी भुगतना पड़ता है। चूहेदानी में लगी रोटी का टुकड़ा देखकर वे नादान जीव भी आतुर होकर पिंजड़े में दौड़ पड़ते हैं और अन्ततः उसका दुष्परिणाम ही भोगते हैं। नशेबाजी भी जान बूझ कर बुलाई गई प्राणघातक बीमारी है जो आदत में सम्मिलित हो जाती है पर पीछे उससे पीछा छुड़ाना कदाचित ही किसी साहसी से संभव हो पाता है।

नशे जीवनी शक्ति को चूसते हैं। आयु को घटाते हैं। दुर्बलता और रुग्णता का अभ्यस्त को शिकार बनाते हैं। सर्वेक्षण से जाना गया है कि नशे मनुष्य की आधी आयु का हरण का लेते हैं और व्यक्ति की शारीरिक मानसिक क्षमता को बुरी तरह बरबाद करते हैं। आर्थिक दृष्टि से, सामाजिक सम्मान की दृष्टि से भी वह बुरी तरह पिछड़ जाता है।

नशेबाजी की बुराइयों को समझते हुए भी उसकी ओर प्रवृत्ति का भावनात्मक कारण है-फुरती और मस्ती की अभिलाषा। इसकी पूर्ति उचित रीति से ही की जानी चाहिए। चूँकि आकाँक्षा आध्यात्मिक है, उसकी पूर्ति भी उसी क्षेत्र में हो सकती है। नशे के सहारे नहीं। जीवन में उन तत्वों का समावेश किया जाना चाहिए जिसके आधार पर कि स्थायी आनन्द मिले और प्रगति की संभावना बढ़े।


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