चेतना को अन्तर्मुखी बनाऐं

September 1989

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व्यक्तित्व गठन का तात्पर्य है अपने समूचे जीवन क्रम को संवारना। यह तभी सम्भव है जब जिन्दगी के प्रत्येक हिस्से को ध्यान से देखा जाय। कहाँ पर कौन कमी है-इस पर गौर किया जाय। तभी इन कमियों को दूर कर पाना सम्भव बन पड़ेगा।

सामान्यतः हमें अपने दोष दिखाई नहीं पड़ते। हमें अपने चिन्तन के सामने मार्क्स गाँधी फीके लगते हैं। स्वयं की चरित्र निष्ठा विवेकानन्द दयानन्द से बढ़कर आँकी जाती है। व्यावहारिक क्रिया कलापों के सामने राम मोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर बौने लगते हैं। अपने में कहीं कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता। भूले भटके कोई कोई कमियाँ दिखाने का प्रयास भी करे तो उसे ईर्ष्यालु या शत्रु की संज्ञा प्रदान की जाती है। परिणाम यह होता है कि हमारा समूचा व्यक्तित्व भौंड़ा बन कर रह जाता है।

अपने दोष देखने की जगह दूसरों की कमियाँ देखने में रस मिलता है। अच्छी से अच्छी चीज में कोई न कोई कमी खटकती है। यहाँ तक कि परमात्मा में दोष निकाल लिया जाता है। अपने शक्ति व समय की खपत इसी में होती रहती है।

पर छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति संसार में कहीं सुन्दरता नहीं देखने देती। महापुरुषों, समाज-सेवियों, लोकनायकों आदि के दर्शन कराकर, उनकी महानता की चर्चा करने पर चित्त खिन्न हो जाता है। यही नहीं मौका पाकर उनके दोष गिनाने शुरू कर देते हैं। उन्हें भी अहंकारी, स्वार्थी आदि अवगुणों से ग्रसित कहकर दोषी सिद्ध कर दिया जाता है।

सृष्टि में गुण हैं और दोष भी। हर स्थान, हर पदार्थ, हर व्यक्ति में किसी न किसी मात्रा में ये दोनों रहते हैं। सही कहा जाय तो दोनों की ही अपने-अपने स्थान पर उपयोगिता भी है। जो एक स्थान पर गुण है वही दूसरे स्थान पर दोष हो सकता है। संसार में दुग्ध, फल, मेवा जैसी पोषक चीजें हैं तो ज़हर जैसी मारक भी। प्रत्यक्ष में पोषक वस्तुएँ गुणवान लगती हैं ज़हर जैसी चीजों में दोष ही दोष दिखाई पड़ते हैं। किन्तु वास्तविकता इससे अलग है। अधिक खा लेने पर पोषक मारक में बदल जाती है और सँखिया आदि जहरीली चीजों को औषधि के रूप में प्रयुक्त कर किसी की जान भी बचाई जा सकती है। पर यह काम तभी सम्भव है जब उपयोग करने वाला उनको विवेक सम्मत ढंग से प्रयोग में लाए।

संसार में शायद ही ऐसा कोई प्रमाण मिले कि किसी व्यक्ति ने दूषित दृष्टिकोण और परनिन्दा की वृत्ति को पाले रख कर जीवन में कोई सफलता पाई हो। विश्व का इतिहास इस बात की अनेक गवाहियों से भरा पड़ा है कि घोर निन्दा, आलोचना और विरोध होने पर भी जिन सत्पुरुषों ने किसी की निन्दा नहीं की और गुण ग्राहक वृत्ति में विश्वास बनाए रखा, उन्होंने अपने साथ दूसरों का भी कल्याण किया आवश्यकता बाहर के दोषों को न देखकर अपने में निहित कमियों-बुराइयों को निहारने की है। मनोविज्ञान ने इस प्रक्रिया को आत्म निरीक्षण का नाम दिया है। दर्शन की भाषा में यह महत्वपूर्ण विशेषता है जो केवल मानव को मिली है मनुष्य आत्म चेतन है, जब कि पशु सिर्फ चेतन। इसका मतलब है कि आदमी के पास वह सामर्थ्य है, जिसके द्वारा अपने को जान सकता है। स्वयं अपने दोष दुर्गुणों को जानकर उन्हें दूर कर सकता है। जब कि पशु इन्द्रिय संवेदनों द्वारा बाहरी चीजों के बारे में तो जान सकते है पर स्वयं को जानना उनके बस की बात नहीं है।

इस विशिष्ट सामर्थ्य की गरिमा तभी है जब उसको उपयोग कर स्वयं को निहारा जाय। दोष-दुर्गुणों, विकृतियों को देख समझ कर उन्हें उखाड़ फेंका जाय।

मनोवैज्ञानिक जे.एस.लैशले ने अपने शोध निबन्ध “द बिहैविअरिस्टिक इन्टरप्रिटेशन आफ काँशसनेस” में इस आत्म निरीक्षण की प्रक्रिया को दो चरणों में समझा है। पहला अपने व्यावहारिक क्रियाकलापों का अध्ययन। इसको पहले नम्बर पर रखने का कारण यह है कि हमारी दृष्टि स्वाभाविक बहिर्मुखी है। शुरू शुरू में यह सम्भव नहीं कि अन्दर गोता लगाकर कमियाँ टटोली जायँ। यदि नित्य प्रति व्यावहारिक गतिविधियों का बारीकी से अध्ययन किया जाय तो मालूम होगा कि स्वयं द्वारा किए गए क्रियाकलापों में लगभग 30-40 प्रतिशत ऐसे बचकाने हैं जो स्वयं की गरिमा के अनुकूल नहीं हैं।

इनको सम्हालने के लिए स्वयं के चिन्तन को निहारना होगा। यह प्रक्रिया का दूसरा चरण है। कठिन होने के बावजूद इसकी जरूरत है। बिना इसके काम नहीं चलता। व्यवहार के बीज चिन्तन में मौजूद रहते हैं। अपने सोच विचार के तौर-तरीके पर ध्यान देना होगा। जैसे जैसे दृष्टि अन्तर्मुखी होगी पता चलेगा कि हमारा बहुत सारा समय निरुपयोगी चीजों को सोचने में चला जाता है। कभी किसी की बुराई सोचते हैं। कभी बिना मतलब की कल्पनाएँ करते हैं। इनमें कोई तारतम्य नहीं। मानसिक ऊर्जा की यों ही बरबादी होती रहती है। दूसरों की बुराइयाँ उन्हें परेशान करने के तौर-तरीके सोचने की जगह चिन्तन को सुसम्बद्ध करना होगा।

मनःशास्त्री आर. अर्नहेम का “द क्रिएटिव प्राँसेस” में मानना है कि आत्मनिरीक्षण का क्रम तब तक अधूरा है जब तक इसके साथ आत्मसुधार की विधि न जुड़ी हो। इसका मतलब है ईर्ष्या, डाह, द्वेष आदि तमाम दोषों को हटाकर इसमें सत्प्रवृत्तियों की पूरी फसल उगाना। यह काम ठीक किसान जैसा है। वह खेत में बुवाई के पहले से खरपतवार निकालना शुरू करता है और फसल उग जाने के बाद भी अपना यह निराई का कार्यक्रम नहीं छोड़ता। प्रक्रिया के इस पहलू में लगभग ऐसा ही करना होता है। व्यावहारिक जीवनक्रम में दया, करुणा, सेवा, सहृदयता का किस स्तर पर कैसे समावेश हो। इसके लिए चिन्तन के स्तर पर पूरी योजना तैयार करनी होगी। प्रयत्न पूर्वक इन्हें व्यवहार में उतारने के प्रयास करने होंगे।

जैसे-जैसे इनका अभ्यासक्रम शुरू होगा अपने दोष साफ-साफ दिखाई पड़ने लगेंगे। स्थिति बिल्कुल बदल जाएगी। जहाँ पहले दूसरों के दोष दिखाई देते थे और अपने गुण। वहाँ अब दूसरों में गुण दिखाई देने लगेंगे और अपने में दोष।

मन चतुर किसान की तरह इसी में व्यस्त रहेगा कि अपने अवगुण निकाल कर कैसे बाहर करें और दूसरों में जो गुण झलक रहे हैं, उन्हें अपने में किस तरह आरोपित किया जाय। महर्षि दत्तात्रेय ने यही क्रम अपनाया था। उन्होंने जब अपनी दोष दृष्टि त्याग कर श्रेष्ठता ढूँढ़ कर अपने में रोपित करने की वृत्ति जगाई, तो तब उन्हें चील, कुत्ते, मकड़ी, मछली, भृंग जैसे तुच्छ प्राणी भी गुणों के भण्डार दीखने लगे। यही नहीं उन्होंने इन्हें गुरु के स्थान पर सुशोभित किया। उनसे शिक्षा ग्रहण करते गए। हम चाहें, तो चोरों से भी सावधानी, सतर्कता आदि अनेक गुणों को सीख सकते हैं। अपने दोष और दूसरों के गुण तलाशने को यदि हम ठीक-ठीक अपनालें तो न केवल अपना व्यक्तित्व सँवरेगा बल्कि सारी दुनिया हमारे लिए उपकार, सद्भावना का उपहार लिए खड़ी दिखाई देगी। उपयुक्त यही है कि अपनी सारी चेतना को आत्म निरीक्षण व आत्म सुधार की प्रक्रिया में केन्द्रित किया जाय।


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