मनस्विता की प्रचण्ड शक्ति

September 1989

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पार्सल का पैकेट ही दृष्टिगोचर होता है। इसके भीतर क्या है, यह पता लगाने के लिए उसके भीतर के भाग को खोलना और देखना होता है। शरीर एक प्रकार से पार्सल का पैकिंग है, उसकी चमड़ी के रंग और नख–शिख की बनावट मात्र की परिचय बाहरी देखभाल से मिल सकता है। इसके भीतर क्या है? इसका पता ऊपरी देखभाल से नहीं लग सकता। हो सकता है उसके भीतर बहुमूल्य रत्न बन्द हों और यह भी हो सकता है कि चमकीले लिफाफे के भीतर किसी मसखरे ने उसमें ऐसे ही कुछ कूड़ा कबाड़ भर दिया हो।

मनुष्य का वास्तविक मूल्याँकन उसके मन मस्तिष्क की जाँच पड़ताल कर लेने से होता है। हो सकता है कि कोई विषकन्या नख शिख से सुसज्जित होकर प्राण हरण के लिए बैठी हो। यह भी हो सकता है कि अष्टावक्र जैसे किसी अपंग के कलेवर में ज्ञान का भण्डार भरा पड़ा हो। चाणक्य काले कुरूप थे तो भी उनकी मेधा शक्ति ने छिन्न-भिन्न भारत को चक्रवर्ती विशाल भारत में बदल दिया था। कीमत अन्तराल की होती है। बाहरी कलेवर तो दिखावा मात्र होता है, कई बार तो छलावा भी।

चेतन की कई परतें हैं। उनमें मन बुद्धि, चित्त, अहंकार का प्रमुख रूप से प्राधान्य होता है। मनोविज्ञान की भाषा में इनका विवेचन चेतन, अचेतन, अवचेतन, सुपर चेतन आदि के रूप में किया जाता है। वस्तुतः यही वह खजाना है जिसमें एक से एक बहुमूल्य रत्नों का भण्डार भरा पूरा रहता है। उसमें देवत्व के दर्शन होते हैं पर कभी कभी ऐसा भी होता देखा गया कि इस देव सिंहासन पर कोई दुर्दान्त दस्यु अपना कुचक्र डाले और इस प्रकार अपनी शक्ति का प्रदर्शन करे मानो विनाश के देवता के रूप में उसका अवतार हुआ हो। रावन, कुँभकरण, दुर्योधन, जरासंध, वृत्रासुर, महिषासुर, भस्मासुर आदि के रूप में ऐसों की ही रोमाँचकारी चर्चा होती रहती है। यह विकृति का विवेचन है। वस्तुतः अन्तराल देवलोक है। स्वर्ग मुक्ति से लेकर ऋद्धि सिद्धियों के खजाने इसी में भरे रहते हैं। आत्मा के रूप में परमात्मा का निवास भी इसी मानस मन्दिर में निरन्तर विराजमान रहता है। ऋषि, मनीषी, तपस्वी, सन्त, सुधारक, शहीद जैसे महामानव इसी क्षेत्र की उत्पत्ति हैं।

मोटे शब्दों में इस चेतना केन्द्र को मानस या मानस कहते हैं। यही वह निकटतम लोक है जिसमें स्वर्ग और नरक थोड़े से फासले पर ही विद्यमान है, तभी तक वह जीवित है अन्यथा प्राण के निकलते ही अच्छा खासा शरीर कुछ ही क्षणों में सड़गल कर अपनी सत्ता समेटने की तैयारी कर लेता है।

काम करता तो शरीर दिखाई पड़ता है पर वस्तुतः वह जड़ होने के कारण निष्क्रिय होता है। साइकिल को सवार की इच्छानुसार अपनी गति और दिशा निर्धारित करनी पड़ती है। उसी प्रकार दृश्यमान कायिक हलचलें मन के संकेतों का अनुसरण करती हैं। दोषारोपण या गुणगान शरीर के रूप में गाये जाने वाले का होता है पर वास्तविकता दूसरी है। कठपुतली की समस्त हरकतें परदे के पीछे छिपे बैठे बाजीगर की होती है। उसी प्रकार मनका सूत्र संचालक दृश्यमान अनेकों बुरी भली हरकतें करता रहता है।

यह व्यक्ति का मन ही है, जिसमें विचारों का उद्गम उमड़ता रहता है और वह ऐसा विचित्र रूप धारण करता है कि आश्चर्य से चकित रह जाना पड़ता है। इसकी विचित्रतायें देखते ही बनती हैं। यदि पतन की दिशा में मुड़ चले तो उसकी स्थिति-पशु, पामर और पिशाच से भी बदतर हो जाती है। यदि वह ऊँची उठ चले तो इसी हाड़ माँस के पुतले की ऐसी उच्चस्तरीय स्थिति बन जाती है कि उस पर देव समुदाय को भी निछावर किया जा सके। विचार संस्थान काम न दे तो व्यक्ति मूर्ख, सनकी, विक्षिप्त, बेतुका, गया गुजरा जैसा बनकर रह जाता है, भले ही उसके अंग अवयव अपनी जगह पर सही और सुशोभित ही क्यों न हों।

मस्तिष्क सही रहने पर कितने ही विद्वानों ने रोग–शय्या पर पड़े पड़े असाध्य कष्ट सहते सहते महत्वपूर्ण ग्रन्थों की संरचना की है। उनके नेतृत्व में जितने महत्वपूर्ण काम चलते रहे हैं उन्हें कितने ही विद्वान एक साथ मिलकर नहीं चला सकते थे। संसार में ऐसे अगणित प्रतिभा के धनी हुए है, जिनने घोर अभावों के बीच किसी प्रकार दिन गुजारते हुए भी प्रगति पथ पर अनवरत गति से कदम बढ़ाये और ऐसे काम कर दिखाये जो सुसम्पन्नों की कल्पना में भी नहीं आ सकते थे। प्रगति और अवगति की दोनों दिशाएँ मानसिक स्तर की उत्कृष्टता पर निर्भर रहती हैं।

रेल की पटरियों के मोड़ इंजन और डिब्बों को किसी भी दिशा में घसीट ले जाते हैं। इंजन तो मात्र दौड़ता भर है, डिब्बे तो मात्र अनुगमन भर करते हैं वस्तुतः दिशा निर्धारण उस माध्यम से होता है जहाँ से कि पटरियों को जोड़ने और खोलने का उपक्रम सम्पन्न किया जाता है। इसी अन्तर के कारण एक रेल-पूर्व को तो दूसरी दक्षिण को चल पड़ती है और उन दोनों के बीच कुछ ही समय में असाधारण दूरी का अन्तर बन जाता है। पहाड़ की चोटी पर होने वाली वर्षा का पानी जिस ओर को ढलानों पर बह चलता है उसकी धारा भी उसी दिशा वाले समुद्र में जा मिलती है। आरंभ एक जगह से होने पर उसका अन्त उस प्रकार का होता है जिसे असाधारण ही कहा जा सकता है। यह मार्ग परिवर्तन कहाँ से होता है। इसका उत्तर एक ही हो सकता है कि मन के रुझान से।

समझा यह जाता है कि वातावरण से, संगति से, शिक्षा से मनुष्य का मन बदल जाता है और वह सुसंस्कृत बनने की ओर अग्रसर होने लगता है पर यह बात आँशिक रूप से तभी सच निकलती है जब मन ढीलापोला हो और गीली मिट्टी की तरह किस भी ढाँचे में ढलते समय आना-कानी न करे पर जब निजी उत्कण्ठा प्रबल होती है तो वह सारे आवरणों को तोड़ मरोड़ कर रख देती है और वही करा लेती है जिसके लिए प्रबल उत्कण्ठा जड़ जमाये बैठी होती है। रावण पुलस्त्य ऋषि का नाती था। उसकी वंश परंपरा में सभी सज्जन होते आये थे पर रावण की अपनी इच्छा शक्ति इतनी प्रबल निकली कि उसने वंश परम्परा की वातावरण की, शिक्षा दीक्षा की कुछ भी परवाह न की और उस दिशा में चल पड़ा जिसके सम्बन्ध में कोई आशा अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। यहाँ मनोबल की प्रबलता सर्वोपरि सिद्ध होती है। इसके विपरीत कितने ही ऐसे व्यक्ति भी हुए हैं जिनके न पूर्वजों का कोई इतिहास था और न वे स्वयं किसी समुन्नत वातावरण में पले फिर भी मन की एक उमंग ने उन्हें कुछ से कुछ बना दिया। आंबपाली, अंगुलिमाल की जिन्दगी हेय स्तर की बीती जब उनने करवट बदली तो कायाकल्प जैसा परिवर्तन उपस्थित हो गया। वे सन्त ही नहीं बने, वरन् ऐसी स्थिति में पहुँच गये जहाँ से वे अनेकों को सन्मार्ग की ओर घसीट कर ले जाने में सफल होते रहे। कबीर, रैदास आदि की परिस्थितियाँ ऐसी नहीं थीं, जिसके कारण उन्हें उच्चकोटि के सन्त और समाज सुधारक बनने का अवसर मिलता। उनकी निजी मानसिक प्रचंडता अपने आप में एक ऐसी शक्ति है जो अपने अनुकूल वातावरण बना लेती और सहयोग जुटा लेती है तथा प्रतिकूलताओं से जूझकर उन्हें अनुकूलता में बदल लेती है।


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