गायत्री, सावित्री और कुण्डलिनी महाशक्ति

January 1987

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कुण्डलिनी की मीमांसा गायत्री महाप्रज्ञा के तत्वदर्शन की चर्चा से आरम्भ होती है। गायत्री उपासना मूलतः धर्मधारणा और भाव संवेदना का प्रयोग है। इसमें आत्मशोधन को प्रधानता दी है एवं ध्यान धारण द्वारा भक्ति संचार करते हुए ब्राह्मी चेतना को निकटवर्ती बुलाया जाता है या उसके साथ गुँथा जाता है। लकड़ी के ढेर पर आग उगल देना या जलती आग में ईंधन डालते जाना समांतर कृत्य हैं। अन्तर इतना ही है कि आत्म समर्पण की अद्वैत की स्थिति ले आने चमत्कारी परिणति अविलम्ब बन पड़ती है। समर्पण भाव न होकर अपने लिये कुछ चाहने का सकाम प्रयोजन भाव न होकर अपने लिये कुछ चाहने का सकमा प्रयोजन भी हो गाड़ी धीमी चाल से चलती हो तो भी उस में अपना हित साधन तो हो ही जाता है। पर सामर्थ्य इतनी हस्तगत नहीं होती कि दूसरों का भी भला कर सके। तैराक स्वयं तो तैर सकता है, पर नाविक की तरह दूसरों को पार लगाते रहने का व्यवसाय नहीं कर सकता। गायत्री की निष्काम और सकाम उपासना में यही अन्तर है। अपने-अपने स्तर की सफलता दोनों ही प्रयत्नों से साधकों को मिलती है।

यों हम गायत्री के तत्वदर्शन की गहराई में जाएँ तो पाते हैं कि मस्तिष्क के ज्ञान बीज से ही हमारी समस्त चेतना प्रभावित होती है। शरीर निर्वाह तथा लोक व्यवहार में उसी की भूमिका प्रधान है। उच्चस्तरीय भूमिका में यही केन्द्र अतीन्द्रिय क्षमताओं का उद्गम स्रोत सिद्ध होता है और अनंत ब्रह्म और जीवन को मिलाने वाली जीवन लक्ष्य को पूर्ण करने वाली परमानन्द प्रक्रिया भी यहीं सम्पन्न होती है। ब्रह्मलोक को गायत्री की ब्राह्मी शक्ति कहा गया है। उसका प्रभाव क्षेत्र ज्ञान चेतना है। गायत्री को ब्रह्माणी ब्रह्म पत्नी अलंकारिक दृष्टिकोण से कहा गया है। उसकी सामर्थ्य को भौतिक जगत में दुख दारिद्रय का विनाश करने वाले एवं दुष्ट दुष्कृतों को परास्त करने वाले ब्रह्म दण्ड के रूप में देखा जाता है। अध्यात्म क्षेत्र में उसका स्वरूप ब्रह्मवर्चस के रूप में देखा जाता है।

गायत्री के उपरान्त सावित्री साधना का प्रसंग चलता है। सावित्री उपासना गायत्री का ही भौतिक पक्ष है। भौतिक प्रयोजनों के लिए शक्ति चाहिए। शक्ति ऊर्जा के सहारे विकसित होती है। कार्य कलेवर में अवस्थित पंचतत्व पंचप्राण ईंधन का काम दे जाते है। और उनके सहारे भीतरी अग्नि जगाई जा सकती है। यह अग्नि प्रज्ज्वलन ही सावित्री साधना है। सावित्री व कुण्डलिनी साधना में अंतर होते हुए भी उन्हें एक दूसरे के समतुल्य समझा जा सकता है।

पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्माजी की दो पत्नियाँ थी। प्रथम गायत्री दूसरी सावित्री। इसे अलंकारिक प्रतिपादन में ज्ञान चेतना और पदार्थ सम्पदा कहा जा सकता है। इनमें एक परा प्रकृति है, दूसरी अपरा। परा प्रकृति के अंतर्गत मन, बुद्धि चित, अहंकार अहंकार चतुष्टय, ऋतंभरा प्रज्ञा आदि का ज्ञान क्षेत्र आता है। दूसरी पत्नी सावित्री इसे अपरा प्रकृति पदार्थ चेतना जड़ प्रकृति कहा जाता है। पदार्थों की समस्त हलचलें गतिविधियाँ उसी पर निर्भर है। परमाणुओं की भ्रमणशीलता, रसायनों की प्रभावशीलता, विद्युत ताप प्रकाश चुम्बकत्व ईथर आदि उसी के भाग है। पदार्थ विज्ञान इन्हीं साधनों को काम में लाकर अगणित आविष्कार करने और सुविधा साधन उत्पन्न करने में लगा हुआ है, इसी अपरा प्रकृति को सावित्री कहते हैं। सावित्री की अपरा प्रकृति से ही प्राणियों का शरीर संचालन होता है और संसार का प्रगति चक्र चलता है। सत रज तम पंचतत्व तन्मात्राएँ आदि का सूत्र संचालन यही शक्ति करती है। सिद्धियों और वरदान इसी के अनुसार में मिलते है। मनुष्य शरीर में आरोग्य दीर्घजीवन बलिष्ठता, स्फूर्ति, साहसिकता सौंदर्य आदि अगणित विशेषताएँ इसी पर निर्भर हैं। यों इसका विस्तार तो सर्वत्र है, पर पृथ्वी के ध्रुव केन्द्र में और शरीर के मूलाधारचक्र में इसका विशेष केन्द्र है। साधना प्रयोजन में प्रकारान्तर में इसी को कुण्डलिनी शक्ति कहते है। इसी के जागरण से सारे प्रयोजन पूरे माने जाते हैं। जिनके लिए शक्ति उपार्जन की सामर्थ्य हस्तगत की जाती है। शास्त्रोक्त प्रतिपादनों पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि कहीं कहीं सावित्री व कुण्डलिनी को एक माना गया है। वह कहीं कहीं इन्हें अलग मानते हुए इनकी साधना पद्धति व उद्देश्य भिन्न भिन्न बताये गये हैं। फिर भी एक तथ्य अपनी जगह अटल है कि काया की सूक्ष्म संरचना व उस तंत्र को जगाने का विधि विधान सदैव शाश्वत चिरन्तन रहेगा। अन्तर वहाँ वहाँ होता है जब उनसे प्राप्त शक्ति सामर्थ्य को प्रयोजन विशेष हेतु नियोजित किया जाता है।

वैसे देखा जाय तो कुण्डलिनीयोग में क्रियायोग की प्रधानता है। नाड़ी शोधन त्रिनाड़ी परिमार्जन षट्कर्म चक्रवेधन आदि सभी प्रयोग ऐसे हैं जिनमें ध्यान धारणा के साथ-साथ शरीरगत क्रिया कलापों को प्रमुखता देनी पड़ती है। प्राणायाम के प्राण प्रयोगों का विचित्र क्रम अपनाना पड़ता है। बंधु मुद्राएँ आसन इत्यादि कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में विशेष रूप से प्रयुक्त होते हैं विशुद्ध सावित्री साधना में स्वयं को मस्तिष्कीय क्षेत्र की परिधि तक सीमित रखना होता है। सहस्रार कमल ब्रह्मरंध्र और खोपड़ी में भरा द्रव्य अपने ढंग की उठक पटक से जागृत हो जाता है। भीतरी पक्ष की देखभाल ब्रह्मरंध्र करता है और बाहरी का तृतीयनेत्र आज्ञाचक्र। किन्तु जब सावित्री व कुण्डलिनी की सम्मिलित साधना का उपक्रम अपनाया जाता है तो दोनों विधि विधान का एक सम्मिश्रित स्वरूप हो जाता है। व फलितार्थ भी तद्नुसार बदल जाते हैं। प्रस्तुत साधना का स्वरूप कुछ ऐसा ही है। इसलिए क्रमिक सोपानों में गायत्री व कुण्डलिनी के सिद्धान्त व प्रयोग पक्ष की चर्चा की गई है।

जब शास्त्रों में ब्रह्मा की पत्नी के रूप में कहीं इन साधना प्रसंगों का विवरण आता है, तो यह मानना चाहिए कि यह शब्द अलंकारिक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। चेतनसत्ता कुटुम्ब परिवार मनुष्यों जैसा थोड़े ही होता है? अग्नि तत्व की दो विशेषताओं गर्मी ताप एवं प्रकाश रोशनी को कोई चाहे तो दो पत्नी का नाम दे सकता है। यह शब्द अरुचिकर लगे तो पुत्रियाँ कह सकते हैं। ऐसे शास्त्रों में हुआ भी है। सरस्वती को कहीं ब्रह्मा की पत्नी कहीं पुत्रियाँ कहा गया है। इसे स्थूल मानवी लोकाचार की भाषा में नहीं समझकर अलंकारिक वर्णन, उपमा भर मानना चाहिए। आत्मशक्ति गायत्री है, वस्तु शक्ति सावित्री है। आत्म चेतना का ऊर्ध्वगमन व्यक्तित्व का विकास श्रेष्ठ कार्यों में सुनियोजन, उच्चस्तरीय चिन्तन एवं जीवन्मुक्ति हेतु साधना पुरुषार्थ गायत्री साधना की फल श्रुतियाँ है। कुण्डलिनी जागरण से शरीरगत प्राण ऊर्जा की प्रसुप्ति उपक्रम सावित्री साधना के अंतर्गत आता है। बिजली के ऋण व धन दोनों ही धाराएँ होती है। दोनों के मिलने पर ही शक्ति प्रवाह बहता है। गायत्री व सावित्री के समन्वय से ही साधना की समग्र आवश्यकता पूरी होती है। सावित्री साधना का मात्र भौतिक ही नहीं आत्मिक लाभ उठाने के लिए सदा गायत्री साधना का अवलम्बन लेकर शुरुआत की जाती है। यही है कुण्डलिनी साधना का प्रारम्भिक स्वरूप जो मानसपटल पर अस्पष्ट हो तो इस दिशा में किये गये प्रयास निरर्थक ही जाते हैं।

अध्यात्म क्षेत्र में ज्ञान भाग को दक्षिण मार्ग कहते हैं। उसे निगम राजयोग वेदमार्ग आदि भी कहा गया है। दूसरे क्रिया भाग को वाममार्ग, आगम, तन्त्र हठयोग आदि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। दोनों की पृथकता प्रतिकूलता हानिकारक है। इससे कलह और विनाश उत्पन्न होता है। देवासुर संग्राम के उपाख्यानों को पढ़कर किसी को प्रसन्नता नहीं होती। उस वर्णन को पढ़कर खिन्नता ही उभरती है। दोनों जब मिलकर साथ चले समुद्र मंथन में सहयोग किया तो उस क्षेत्र में दबी हुई प्रचुर सम्पदा उपलब्ध हुई। समुद्र मंथन के फलस्वरूप बहुमूल्य चौदह रत्न निकलने की कथा सर्वविदित है। गायत्री और सावित्री के समन्वय को ठीक इसी प्रकार के देवासुर सहयोग स्तर का कहा जा सकता है।

शिव और पार्वती के विवाह से दोनों का एकाकीपन दूर हुआ था। दोनों के संयोग से दो पुत्र हुए एक सिद्धिदायक गणेश। दूसरे निकंदन कार्तिकेय। एक से धर्म की स्थापना होती है दूसरे से अधर्म के विनाश की। गणेश का वरदान प्रज्ञा और कार्तिकेय का अनुदान शक्ति है कार्तिकेय के छः मुख हैं। इन्हीं को षट्चक्र कहते हैं। इस स्कन्द अवतरण को कुण्डलिनी महाशक्ति से सम्बन्धित षट्चक्र समूह और उसने प्रभाव का वर्णन ही समझना चाहिए।

जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित आधार अग्नि का नाम ही कुण्डलिनी है शिव रूप सहस्रार के जागृत प्रफुल्लित होने पर उसका जो पराग मकरन्द निर्झरित हुआ उसे शिव रेतस कहना चाहिए। कुण्डलिनी आधार पर अग्नि ने उसे ग्रहण किया। छः कृतिकाओं ने उसे परिपक्व किया। यह छः कृतिकाओं छः चक्र ही है। छः कृतिकाओं द्वारा परिपोषित छः मुख वाले कार्तिकेय को अलंकार के रूप में षट्चक्रों का प्रभाव परिणाम ही माना जाना चाहिए।

षट्चक्र क्या है? कहाँ है? क्यों है? किस स्थिति में हैं? उनका क्या प्रयोजन है? इन प्रश्नों की यहाँ विस्तार से चर्चा नहीं की जा रही। इनके प्रयोग उपयोग का स्वरूप एवं विज्ञान सम्मत विवेचन बाद में किया जाना है। यहाँ उस कुण्डलिनी प्रसंग की चर्चा हो रही है जो मूलतः उनके लिए है जो भौतिकी के माध्यम से आत्मिकी से साध्य प्रयोजन उच्चस्तरीय उपलब्धियों हेतु पूरा करना चाहते हैं जो शक्ति के पुजारी है एवं सोचते हैं कि शक्ति की महत्ता अधिक है। देवासुर संग्राम में असुरों ने शक्ति जो उपार्जित की थी उसे निकृष्ट प्रयोजनों में गंवाया एवं फिर विष्णु भगवान की या उच्चस्तरीय आत्मशक्ति का प्रयोग कर उनका दमन किया जाता रहा। देवत्व के साथ जब शक्ति साधना जुड़ती है तभी फलीभूत होती है। ऐसी उपलब्धि शाश्वत होती है। एवं दूरगामी दृष्टि से सदैव जन साधारण के लिए हितकारी भी। दैत्यों की सफलता जो प्रारंभ में दिखाई देती है, हथेली पर सरसों जमा देने की बाजीगरों की तरह ही मायावी सिद्ध होती है। शुक्राचार्य कुण्डलिनी विद्या के निष्णात् रहे हैं। उन्हीं ने अपने शिष्यों असुरों को इसका मार्गदर्शन एवं प्रशिक्षण दिया था बृहस्पति देव गुरु रहे हैं। उन्होंने योगी, तपस्वी और ब्रह्मवेत्ता श्रेयार्थियों को गायत्री मंत्र से प्रारम्भिक सोपान पर चलाकर सुपात्र बनाया देवोपम बनाया। उन्होंने भी कुण्डलिनी साधना के प्रयोगों का शिक्षण दिया पर उसका नियोजन सदैव श्रेष्ठता के संवर्धन हेतु परहितार्थाय ही होता रहा। जिन आत्मवेत्ताओं के सामने भौतिक समस्याएँ थीं, उन्हें प्रारंभिक शिक्षण के उपरान्त सावित्री साधना का अवलम्बन लेने के लिए कहा गया। दधिचि भागीरथ लोमश श्रृंगी विश्वमित्र आदि ने सावित्री साधना से ही भौतिक पुरुषार्थ सम्पन्न किये थे। वे किये गये परमार्थ प्रयोजनों के लिए ही थे पर साधना का मार्ग उपक्रम विधि विधान तद्नुसार बदला गया। अर्जुन हनुमान जैसों को भी साँसारिक विग्रहों का शमन करना पड़ा उन्हें भी अध्यात्म विज्ञान के अंतर्गत भौतिकी शाखा सावित्री कुण्डलिनी साधना का पथ अपनाना पड़ा। हमारी अपनी साधना भी इन्हीं उद्देश्यों हेतु नियोजित हुई एवं सही मार्ग अपनाने पर प्रतिफल भी वैसे मिले।

जब सावित्री साधना व कुण्डलिनी जागरण का सम्मिलित प्रयोग होता है तो चमत्कारी परिणाम मिलते हैं बिजली कुछ ही सेकेंडों में अपना काम कर दिखाती है। विद्युत शवदाहा गुहों में यह कृत्य सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है जब कि अग्नि पर दाल चावल पकाने तक में देर लगती है। अध्यात्मिक दिव्यता को क्षति भी न पहुँचे एवं सुपात्र साधक अपने गन्तव्य को भी शीघ्र पा ले उसके लिए यही विधि श्रेयस्कर है। विशुद्ध कुण्डलिनी साधना तंत्र मार्ग वाममार्ग के अंतर्गत आती है। जब सावित्री गायत्री व कुण्डलिनी का समन्वय हो जाता है तो योगमार्ग दखिण मार्ग का प्राधान्य हो जाता है।

भगवान को बहुधा विकट प्रसंगों में वाराह नृसिंह परशुराम आदि का रूप धारण करना पड़ा है। शिवजी को भोलेबाबा, औघड़दानी कहा जाता है पर उनने भी दक्ष प्रजापति पर क्रुद्ध होकर वीरभद्र को उत्पन्न किया व दक्ष के अहंकार को मटियामेट किया था ये आपत्तिकालीन प्रसंग है जिनमें आवश्यकता को देखते हुए शमन मर्दन के प्रयोग किये जाते हैं।

अवतार शक्तियाँ एवं उच्चस्तरीय आत्माएँ परिस्थितियाँ देखते हुए यह कार्य दूसरों से कराती हैं ताकि अपनी शक्ति क्षीण न हो। विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा स्वयं कर सकते थे पर क्रोध के आवेश में वर्चस शक्ति नष्ट न कर उन्होंने ताड़का सुबाहु मारीचि से निपटने के लिए राम लक्ष्मण जैसे क्षत्रिय बालकों को ही अग्रिम पंक्ति में रखा बला अतिबला विद्या सिखाकर उनसे रक्षा का कार्य कराया। समर्थ रामदास ने छत्रपति शिवजी से और चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से वे कार्य कराये थे जो यदि वे चाहते तो स्वयं भी कर सकते थे। यहाँ प्रश्न यही आता है कि ब्रह्मतेज अधिक मूल्यवान है। उस उपार्जित विभूति हेतु अपव्यय न किया जाय। इस प्रकार सावित्री व कुण्डलिनी की समन्वित साधना से अपने और पराये सामान्य स्तर के संकट निपटाये जा सकते हैं और औचित्य की सीमा के अंतर्गत वैभव सामर्थ्य को भी बढ़ाया जा सकता है।

एक व्यक्ति की साधना उपार्जित सामर्थ्य से अन्य अनेक एवं यहाँ तक कि वातावरण को भी बदला सारे परिकर में मंथन कर आमूल–चूल परिवर्तन किया जा सकता है। यह सत्य है। अन्य दानों की तरह शक्ति दान भी होता है। आत्मशक्ति वाले किसी समर्थ से अपने लिए शक्ति का अनुदान माँगकर उसे उचित कार्यों में खर्च कर सकते हैं, इसका सृष्टि के नियमों में वैसा ही प्रावधान है जैसा कि बैंकों से ब्याज लिया जाता है। जिस प्रकार धनी व्यक्ति अपना धन सम्पदा का एक अंश दान करते रहते हैं उसी प्रकार योगी समष्टिगत कठिनाई आने पर सारी वसुधा के हित हेतु अपना उपार्जन दूसरे सत्पात्रों को भी दान करते रहते हैं। कुटुम्ब में कमाने वाला एक होता है सभी अपने अपने हिस्से के छोटे बड़े काम स्थिति के अनुरूप करते रहते हैं पर यह आवश्यक नहीं कि उन्हें अपने लिए अलग-अलग कमाना पड़े अपनी आवश्यकता का सरंजाम जुटाना पड़े।

कुण्डलिनी जागरण अति कठिन विद्या है। इसे बिजली के साथ खेलना कह सकते हैं। बिजली के साथ जान जाने का जोखिम भी बना रहता है। कुण्डलिनी जागरण प्रयोगों में मार्गदर्शन के पात्रता के अभाव में कई व्यक्ति पागल होते देखे गये हैं कईयों का पक्षाघात हुए व कई जान से हाथ धो बैठे हैं। मोटर ड्राइविंग की किताब पढ़कर कोई गाड़ी चलाने चल पड़े तो इसका परिणाम अनर्थ में भी हो सकता है। कुशल सीखा हुआ चालक गाड़ी भी संभालता है और बैठे यात्रियों को अभीष्ट स्थान पर पहुँचा देता है। कुण्डलिनी जागरण का माहात्म्य ऋद्धि सिद्धियों के घटना प्रसंग प्रतिफल आदि जान लेने सुन समझ लेने के उपरान्त ऐसी उतावली नहीं करना चाहिए। कि इस कार्य को अति सरल समझ लिया जाय और बिना किसी मार्गदर्शक की सहायता के अपने आप ही कुछ उलटा सीधा करने लग जायें। ऐसे प्रसंगों में फुदक कर अगल पंक्ति में जा खड़े होने में रोमाँच तो है साहस का काम भी है पर उससे खतरा भी कम नहीं है।

गायत्री सावित्री व कुण्डलिनी के समन्वित प्रसंगों की चर्चा साधना प्रयोजनों हेतु इतनी सावधानी से की जानी इसीलिए आवश्यक है कि उसे दिशा में लोगों का आकर्षण कम नहीं। गुह्य विज्ञान होने के नाते एक आवरण उस पर पड़ा है। कुण्डलिनी विज्ञान का सिद्धांत स्वरूप व व्यवहार समझने की बात उचित भी है, आवश्यक भी क्योंकि जब ऐसी विधाओं का लोप होने लगता है तो सूत्र संकेतों की कड़ी मिल जाने पर बुद्धिमान व्यक्ति तो श्रृंखला को अपनी सूझ बूझ के आधार पर सुलझा लेते हैं। यदि कुछ भी अता पता न हो तो सिरे से अन्वेषण आविष्कार निश्चित ही कष्टसाध्य समयसाध्य है। अस्तु विज्ञान की महत्वपूर्ण धाराओं की जानकारी होने से हर्ज नहीं। हर्ज मात्र प्रयोग करने में हैं। शब्दबेधी बाण यदि उलट पड़े और अपनी ही आवाज को लक्ष्य मान ले तो वह प्रहार आत्मघाती ही होगा।

कुण्डलिनी विद्या को साधारण पूजा पत्री स्तर की खिलवाड़ न मानकर यही मान्यता बनाना चाहिए कि इसके लिए पात्रता अनिवार्य है प्रारम्भिक साधना की पृष्ठभूमि भी होना अभीष्ट है एवं जहाँ तक प्रयोग का सम्बन्ध है वह निष्णातों के हाथ में ही रहे।


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