दिव्य शक्ति का निर्भर कुण्डलिनी का चक्र परिवार

January 1987

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जीवन एक यज्ञ है। इसके भी पुरोहित देवता और उपकरण होते है। इन सबकी संगति शास्त्रकारों ने बिठाई है। कुण्डलिनी यज्ञ का विशेष वर्णन करते हुए मुंडकोपनिषद् के 217 संदर्भ में कहा गया है। सप्तप्राणी उसी से उत्पन्न हुए। अग्नि की सात ज्वालाएँ उसी से प्रकट हुई। यही सप्तसमिधाएँ है। यही सात हवि है। इनकी ऊर्जा उन सात लोकों तक जाती है। जिनका सृजन परमेश्वर ने उच्च प्रयोजनों के लिए किया है।

सप्त लोकों का देवी भागवत में अन्य प्रकार से उल्लेख हुआ है। उसमें भू में धरित्री भुव में वायु स्व में तेजस मह में महानता जन में जनसमुदाय तप सत्य में सिद्ध वाणीवाक् सिद्धि रूपी सात शक्तियाँ समाहित बतायी गयी है। इस प्रकार कुण्डलिनी योग के अंतर्गत चक्र समुदाय में वह सभी कुछ आ जाता है। जिसकी कि भौतिक और आत्मिक प्रयोजनों के लिए आवश्यकता पड़ती है।

मानवीकाया को एक प्रकार से भूलोक के समान माना गया है। इसमें अवस्थित मूलाधार चक्र को पृथ्वी की और सहस्रार को सूर्य की उपमा दी गई है। दोनों के बीच चलने वाले आदान प्रदान माध्यम को मेरुदंड कहा गया है। सूर्य की गर्मी से पृथ्वी का सारा काम चलता है। ब्रह्म रंध्र ब्रह्मांड का प्रतीक है। सूर्य का तेजस धारण करने से ही पृथ्वी को बहुमूल्य जड़ चेतन संपदा प्रवाह को उत्पन्न और निर्वाह करते रहने की क्षमता मिलती है। ठीक इसी प्रकार सहस्रार लोक ब्रह्मांडीय चेतना का अवतरण केन्द्र है। और इस महान भांडागार में से मूलाधार को जिस प्रयोजन के लिए जितनी मात्रा में जिस स्तर की सामर्थ्य अपेक्षित होती है। उसकी पूर्ति सतत् होती रहती है।

यह अनुदान किस प्रकार बरसता है। इसकी एक झांकी ध्रुव प्रदेशों में जाकर देखी जा सकती है। क्यों कि ब्रह्मरंध्र को मस्तिष्क को उतरी ध्रुव भी माना गया है। जहाँ सूर्य की तथा अन्यान्य ग्रहों की महत्वपूर्ण शक्तियाँ निरन्तर बरसती रहती है। इसमें कौन क्या कितनी मात्रा में बटोरता है। यह साधक के कोशल पर निर्भर है।

पृथ्वी का उतरी ध्रुव क्षेत्र प्रायः 50 हजार वर्ग मील का दक्षिणी ध्रुव लगभग 30 हजार वर्ग मील क्षेत्र में फैला हुआ है। उतरी ध्रुव पर ध्रुव प्रभा मेरु प्रकाश के रूप में आती है। और वह चित्र विचित्र रूपों में वहाँ दीखती है। यह प्रकाश दोनों ध्रुवों पर अपने अपने निराले रूपों में जिस प्रकार दृष्टि गोचर होता है। उसे देखकर चकित रह जाना पड़ता है।

ध्रुव प्रकाश सूर्य किरणों की वक्रता के कारण विचित्र रूप में सर्च लाइट की तरह दीखता गायब होता रहता है। उतरी ध्रुव पर चमक कुछ अधिक होती है। उतरी ध्रुव पर एस्किमो जाति के मनुष्य भालू रेन्डियर मछली आदि प्राणियों का अस्तित्व पाया जाता है। दक्षिणी ध्रुव पर पेन्गुइन पक्षी पाया जाता है। जिसकी प्रकृति में असीम प्यार भरा है। उतरी ध्रुववासी एस्किमो स्वभावतः असीम साहसी होते है।

ध्रुव क्षेत्रों पर सूर्य किरणों की अनेक विचित्रताएँ दृष्टि गोचर होती है। उतरी ध्रुव यात्री जॉन बायर्ड ने एक बारे वहाँ सूर्य को बिलकुल हरे रंग का देखा था। वहां दूर की वस्तुएँ हवा में लहराती दिखाई पड़ती है। टीलों की ऊंचाई जितनी होती ही। उससे कई गुनी ऊँची दिखाई पड़ती है। कई बार अनेक सूर्य एक साथ उगते हुए दीखते है। इसी प्रकार चन्द्रमा भी बर्फ पर हवा में तथा आकाश में अलग अलग दीखते है। उतरी ध्रुव पर रात्रि छः महीने की होती है। सूर्य वर्ष में मात्र 16 दिन पूरी तरह चमक से निकलता है। चन्द्रमा की चमक कई बार इतनी होती है। जिसकी तुलना सूर्य से की जा सके। रोशनी रंग बदलती और झिलमिलाती रहती है। कई बार वह टार्च के प्रकाश की तरह लम्बाई में दौड़ती चली जाती है। चुम्बकीय तूफान निरन्तर आते रहते है। यह शक्ति प्रवाह उछल कर उस स्थान पर गिरा पाया जाता है। जहाँ दक्षिणी ध्रुव है। उतरी ध्रुव का प्रदूषण आणविक धूलि दक्षिणी ध्रुव से उत्सर्जित पायी जाती है। एक ध्रुव गहरा है। दूसरा उठा हुआ आवाजें कभी बहुत दूर की पास सुनाई देती है। कभी बहुत पास की भी सुनवाई नहीं पड़ती। यह विवरण काया के दोनों लोक मूलाधार व सहस्रार दक्षिणी व उतरी ध्रुव से भली भांति संगति खाता है।,

मस्तिष्क उतरी ध्रुव है। और जननेन्द्रिय मूल मूलाधार दक्षिणी ध्रुव। दोनों की परिस्थितियों ओर विशेषताओं तथा प्रभाव को देखते हुए जननेन्द्रिय और मस्तिष्क में पाई जाने वाली विशेषताओं की पूरी पूरी संगति बैठ जाती है। कामवासना का प्रवाह भी मस्तिष्क से चलता है। और जननेंद्रियों पर अपनी उत्तेजना पटकता है। इस आदान प्रदान में रोक थाम ओर मर्यादा बनी रहे इस प्रयोजन के लिए मेरुदंड का एक लम्बा मार्ग है। और उसमें भी छः चक्र छः व्यवधान खड़े हुए है।

कितने ही पौराणिक उपाख्यानों की संगति कुण्डलिनी योग से बैठती है। यह संसार शेष नाग के फन पर टिका है। एवं शरीर मूलाधार स्थित सर्प पर। इस क्षेत्र में गड़बड़ी पड़ जाने पर मनुष्य अशक्त अपाहिज नपुंसक हो जाता है। विष्णु भगवान शेष नाग पर सोते हैं। शंकर जी के गले में साँप है। यह ब्रह्म रंध्र का वर्णन है। यह सभी सर्प एक दूसरे का सहयोग करते है। और धारणकर्ता को उस ऊर्जा से लाभान्वित करते रहते है। जो विष्णु व शिव से जुड़े होने के कारण अलंकारिक रूप से उनमें पाई बतायी जाती है।

जहाँ मूलाधार की प्रसुप्त महासर्पिणी नारी तत्व की बोधक है। वहाँ सहस्रार में विद्यमान महासर्प नर है। दोनों की अपनी अपनी विशेषताएँ है। दोनों के मिलन की असीम उत्कंठा की पूर्ति मेरुदंड कुण्डलिनी योग के माध्यम से करता है।

रतिक्रिया में मिलने वाले विषयानंद को मस्तिष्कीय ऊर्जा झकझोरने पर ब्रह्मानंद का एक छोटा रूप बताया गया है। दोनों ही क्षेत्र आमतौर से सोये रहते है। एवं उमंग उठाने पर ही वे उत्तेजित होते है।

कुण्डलिनी की मूलाधार स्थित ऊर्जा को प्राण प्रवाह जीवनी शक्तिसृजन प्रेरणा जिजीविषा उमंग उत्साह विनोद क्रीड़ा पौरुष आदि के रूप में प्रकट होता देखा जाता है। वह क्षेत्र प्रसुप्त हो तो मनुष्य निराश अशक्त स्थित में रहने लगता है।

कुण्डलिनी के ऊर्ध्व लोक सहस्रार चक्र में बुद्धि विचारणा विवेकशीलता भक्ति भावना आदर्शवादिता संयमशीलता स्नेह श्रद्धा सद्भाव कर्मनिष्ठा आदि का निवास है।

काम क्रीड़ा में अतिवाद बरता जाय तो नीचे और ऊपर के दोनों ही केन्द्र लड़खड़ाने लगते है। शारीरिक और मानसिक दोनों ही क्षेत्रों में अशक्तता आ जाती है। यदि इन केंद्रों का सीमित एवं मात्र सत्प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाय तो उससे असाधारण फल श्रुतियाँ भी मिलती है।

कहा जा चुका है। कि कुण्डलिनी शक्ति स्थूल शरीर में प्रजनन का क्रीड़ा विनोद भर का काम करती है। उसका गंभीर स्वरूप सूक्ष्म शरीर में सन्निहित है। शरीर की चीर फाड़ की जाय तो चक्र तो नहीं पर निर्धारित स्थानों के आस पास छोटे छोटे नाड़ी गुच्छक दृष्टि गोचर होते है। जिनकी एनोटॉमीकल संगति का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। चक्र वस्तुतः विद्युत प्रवाह के प्रतीक केन्द्र है।

प्रस्तुत दिव्य प्रवाहों को रक्त प्रवाह नाड़ी चक्र ज्ञान तन्तु प्रवाह कोश स्फुल्लिंग आदि के रूप में नहीं जाना जा सकता है। इन मान्यताओं को अपनाकर चलने वाले वस्तुस्थिति को नहीं समझ पाते और न तथ्यों की सही विवेचना ही कर पाते है। यह चेतनात्मक प्राण प्रवाह का विषय है। जिसे भौतिक विद्युत के समकक्ष नहीं माना जा सकता क्यों कि उसका प्रवाह लकड़ी रबड़ जैसी वस्तुओं पर प्रभाव नहीं डालता जब कि प्राण की चेतना में ही नहीं जड़ में भी गति है।

कुण्डलिनी प्रसंग योग वाशिष्ठ योग चूड़ामणि देवी भागवत शारदा तिलक शांडिल्योपनिषद् मुक्तिकोपनिषद् हठयोग संहिता कुलाव्रत तंत्र योगिनी तंत्र बिंदूपनिषद् रुद्र यामल तंत्र सौंदर्य लहरी आदि ग्रंथों में विस्तार पूर्वक दिया गया है। तो भी वह वैसा नहीं है। जिससे साधना के उतार चढावों को सरलता पूर्वक समझा जा सके और साधना का विधि विधान समझ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने की सफलता को प्राप्त किया जा सके। यही कारण है। कि ऋग्वेद में ऋषि कहते है। प्राणाग्नि मेरे जीवन में ऊषा बनकर प्रगटो, अज्ञान का अन्धकार दूर करो ऐसा बल प्रदान करो जिससे देव शक्तियाँ खिंची चली आएँ।

त्रिशिखिब्रह्मोपनिषद् में शास्त्रकार ने कहा है। योग साधना द्वारा जगाई हई कुण्डलिनी बिजली के समान तड़पती और चमकती है। उससे जो सोया है। सो जागता है। जो जगता है। वह दौड़ने लगता है।

अर्जित मुकर्जी की द तांत्रिक वे स्वामी अगेहानन्द की ताँत्रिक परम्परा एवं यौन ऊर्जा हैसा जैक्सन की पाश्चात्य मनोविज्ञान एवं भारतीय साधना ओमर गैरीसन की तंत्र योन योग उखिल हाँस की कमेण्टी आँन हठयोग प्रदीपिका फिलीप राखेन की तांत्रिक कला जान ब्राइट की चेतना की सीमान्त हैस रिग्जीमर की भारतीय धर्म के उपाख्यान और प्रतीक एवं सर जॉन वुडरफ की सपेण्टाइन पॉवर में कुण्डलिनी योग के संदर्भ में आधुनिक मनोविज्ञान परामनोविज्ञान एवं साधना शास्त्र के ऊपर विस्तृत प्रकाश डाला है। एवं बताया है। कि यह विद्या ऐसे सुनिश्चित तथ्यों पर आधारित है। कि उसको प्रयोग में लाने वाले लाभान्वित हुए बिना रह ही नहीं सकते

महातंत्र में वर्णन आता है। जाग्रत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है। उससे नाद बिन्दु कला के तीनों अभ्यास स्वयमेव सध जाते है। परा पश्यन्ति मध्यमा और वैखरी चारों वाणियों मुखर हो उठती है। इच्छा शक्ति ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में उभार आता है। शरीर वीणा के सभी तार क्रमबद्ध हो जाते है। और मधुर ध्वनि में बजते हुए अंतराल को झंकृत करते है। शब्दब्रह्म की यह सिद्धि मनुष्य को जीवन्मुक्त कर देवात्मा बना देती है।

चक्रों के भाव पक्ष को आधार मानकर चलने वाले उनमें कई कई रंगों कई शब्दों कई कणों कई वाहनों का आरोपण करते है। ध्यान की गहनता में तो वैसा स्वरूप भी दीख सकता है। और वैसी विशेषताएँ भी प्रतीत हो सकती है। किन्तु यदि तथ्यों को आधार रखकर चला जाय तो उनकी वायु में पड़ने वाले चक्रवातों ज्वालामुखी से प्रकट होने वाले लावा अग्नि ऊर्जा के शोलों एवं नदी में पड़ने वाली भंवरों से तुलना की जा सकती है। जिनमें असाधारण सामर्थ्य काम करती रहती है इस सामर्थ्य के द्वारा परोक्ष जगत में व्यापक हलचल उत्पन्न की जा सकती है। साथ ही आत्मिक प्रगति के सर्वोच्च सोपानों तक पहुँचा जा सकता है।


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