आत्म विज्ञान की साधना का गुह्य तत्व ज्ञान

January 1987

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प्याज के छिलके के भीतर दूसरी छिलका निकला है। दूसरे के भीतर तीसरा। इसी प्रकार केले के तने को चीरा जाय तो उसमें एक के भीतर दूसरी परत निकलती जाती है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु है पर वह अकेला दीखते हुए भी अकेला नहीं है। उसके भीतर मध्यवर्ती नाभिक होता है उसके इर्द गिर्द इलेक्ट्रॉन प्रोटोन न्यूट्रोन आदि छोटी इकाइयाँ परिभ्रमण करती रहती है।

सौर मण्डल एक घेरा है। पर उनकी परिधि के अंतर्गत नवग्रह और 43 उपग्रह अपनी-अपनी धुरी एवं कक्षा में परिभ्रमण करते हैं। परमाणु भी एक सौर मण्डल है। उसके भीतर भी सौर मण्डल की प्रक्रिया काम करती है। मिट्टी का एक ढेला तोड़ा जाय तो उसमें से थोड़ा-सा रेत बिखर जायेगा पर यदि परमाणु के मध्यवर्ती नाभिक को तोड़ा जाय तो उसमें में एक बड़े पर्वत को गला देने वाली ऊर्जा निकलती है।

स्पष्ट है कि स्थूल को जितना सूक्ष्म दिया जाता है उतना ही वह अधिक शक्तिशाली होता है। शरीर में अरबों खरबों जीवन कोशिकाएँ है, पर उनके अन्तराल में जो जीन्स छिपे रहते है। उनमें से प्रत्येक में एक प्राणी की प्रोटोटाइप निहित हैं उनमें से प्रत्येक हर मनुष्य की काया में समष्टिगत ब्रह्माण्ड की तरह अरबों खरबों प्राणी निवास करते हैं। इनमें से एक को संभोग क्रिया के अवसर पर नारी डिम्ब में प्रवेश करने का अवसर मिल जाता है। बस इतने भर से एक भ्रूण बनता है और उसका पृथक सत्ता पृथक काया बननी आरम्भ हो जाता है। नौ महीने में भ्रूण परिपक्व हो जाता है और माता के योनिमार्ग में बाहर निकल कर संसार में विचरण करना आरम्भ कर देता है।

इस नवजात शिशु में अपने माता पिता नाना नानी, दादा दादी आदि कितनी ही पीढ़ियों की शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं की समावेश होता है। यह विशेषताएँ विभूतियों के रूप में इतनी सूक्ष्म होती हैं कि जीवन प्राण जीन्स का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण करने पर भी वस्तुस्थिति का पता नहीं चलता उनकी स्थिति तब प्रकट होती है, जब शिशु विकसित होते होते प्रौढ़ बन जाता है और अपनी विशेषताओं का स्पष्ट परिचय देना आरम्भ कर देता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि कच्ची स्थिति में उन विशेषताओं का भी पता नहीं चलता जो प्रौढ़ होने पर प्रकट होती हैं। शिशु का विश्लेषण करने पर उस परम्परागत प्रकृति का आभास नहीं मिलता। मात्र चेहरे पर त्वचा पर अभिभावकों का कुछ असर दृष्टिगोचर होता है। सूक्ष्मता चिरकाल तक अपरिपक्व स्थिति में ही बनी रहती है और समयानुसार परिपक्व होने पर अपनी स्थिति एवं सत्ता का परिचय देती है।

सूक्ष्म के भीतर सूक्ष्म का इतना बड़ा उपक्रम है कि प्याज के छिलके और केले के तने की उपमा उसके आगे वस्तुतः उपहासास्पद-सी ही प्रतीत होती है।

बीजों के ढेर का इकट्ठा कर लिया जाय तो उसके रंग रूप वजन आदि में थोड़ा बहुत ही अन्तर दिखाई पड़ता है पर जब उन्हें बोया जाता है तो अन्तर अंकुरों की आकृति से आरम्भ होकर पत्तों में, पत्तों के बाद तनों में, तनों के बाद टहनी में इसके उपरांत फूल फल की आकृति में प्रत्यक्ष होता चला जाता है। बड़े पेड़ों का अन्तर स्पष्ट दीखने लगता है। उनके फूलों की आकृति सुगंध तथा फलों के स्वाद गुण में इतना अधिक अन्तर हो जाता है कि उनका वर्गीकरण सहज ही पृथक पृथक किया जा सकता है। यह अन्तर असाधारण होता है। उनकी पृथकता बीज के अन्तराल में छिपी होती है। जिसे आरम्भिक स्थिति में देखा समझा नहीं जा सकता।

मानव शरीर की कोशाओं की सामान्य आकृति एक जैसी होती है किन्तु उसके भीतर इतने रहस्य भरे होते हैं जिनकी थोड़ी-सी जानकारी भर मिलने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। भौतिक विज्ञान इस पर्यवेक्षण का स्थूल भाग ही खोजने में लगे हैं। शरीर में कोशाएँ कितनी भिन्न भिन्न गतिविधियाँ अपनाती हैं और अपने-अपने पृथक पृथक कार्य करने में किस प्रकार संलग्न रहती है। इसका कुछ भाग शरीर शास्त्रीविज्ञानी वंशानुक्रम जान पाए हैं। उसी आधार पर वे चिकित्सा एवं शल्यक्रिया करते हैं, मनुष्य की जीवन शक्ति की क्षमता तथा संभावनाओं का मूल्याँकन करते हैं।

किन्तु विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि जीवन घटक मात्र पदार्थ से ही नहीं बने होते हैं। उनमें रसायनों भर का सम्मिश्रण नहीं है। उनमें एक महत्वपूर्ण पक्ष चेतना का भी है, जिसे जैव विद्युत कहते हैं। अध्यात्म की भाषा में उसे प्राण कहा जाता है। यह प्राण यों है तो एक पर विभिन्न अवयवों में पहुँचकर वह स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाता है। मस्तिष्क क्षेत्र में वह आस्था, आकाँक्षा आदत विचारणा आदि के रूप में काम करता है। मन, बुद्धि चित आदि के रूप में उसकी व्यवस्था, विवेचना की जाती है। यही तत्व ज्ञानेन्द्रियों में अपना प्रभाव रूप, रस, गंध स्पर्श, शब्द के रूप में ग्रहण करता है। और प्रजनन का ढाँचा खड़ा करता है। हर माँसपेशी का स्नायु तन्तु का अपने अपने ढंग का क्रिया कलाप और स्वभाव है शक्ति और ज्ञान दोनों ही इसमें गुँथे हुए हैं।

काया के जड़ व चेतन को जानने, समझने के बाद निष्कर्ष यही निकलता है कि समूचे वृक्ष की सत्ता जिस प्रकार बीज में समायी रहती है, उसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की कायपिंड की हम वर्तमान कालीन स्थिति ही देख पाते हैं पर वस्तुतः उसके साथ भूत और भविष्य भी जुड़ा होता है। काया एक दर्पण है, यदि उसकी गहन सूक्ष्मता तक उतरा जा सकें तो यह जानकर व देखकर आश्चर्य हो सकता है कि यह विश्व व्यापी पदार्थ सत्ता और चेतन सत्ता के साथ हमारा काय पिण्ड कहाँ और किस रूप में किस सीमा तक जुड़ा हुआ है?

वस्तुतः मनुष्य के छोटे शरीर में इतना कुछ भरा पड़ा है जिसके सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि वह शक्तियों के संयुक्त परिकर की तुलना में अकेला ही अधिक शक्तिशाली है। किन्तु कठिनाई एक ही है कि यह शक्तिभंडार प्रसुप्त स्थिति में है। इन्हें जानने के लिए तप साधना स्तर के प्रयत्न करने पड़ते हैं, यदि उन्हें न किया जाय तो वे सदा सर्वदा प्रसुप्त ही पड़े रहते हैं और नर पशु से अधिक बड़े स्तर का और कुछ कर सकना उसके लिए सम्भव नहीं होता। इसलिए अध्यात्म क्षेत्र में प्रवीण पारंगत बनने के लिए हर किसी को साधनारत होने की आवश्यकता पड़ती है। कायविज्ञान का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करने पर पाते हैं कि यह सभी विभूतियाँ मनुष्य के भीतर ही है। उनकी दिव्य क्षमताओं को कार्यान्वित कर सिद्धियों को हस्तगत भी किया जा सकता है। सूक्ष्मकाया में अवस्थित षट्चक्र प्रसिद्ध है। (1)मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (3) मणिपूर (4) अनाहत (5) विशुद्धि (6) आज्ञाचक्र। यह कार्य कलेवर के अंतर्गत ही हैं। इस गणना में मस्तिष्क को छोड़ दिया गया है। उसके मध्य में सहस्रार कमल है। इसे भी जोड़ देने से सात चक्र हो जाते हैं और सप्त लोकों में जो वैभव है सप्त तीर्थों में जो विभूतिवान पुण्य प्रयोजन हैं उन सबका परिचय मिलने लगता है। आवश्यक केवल विकास जागरण की है। शुक्राणु का नारी गर्भ में जब पोषण होता है, तब उसका शिशु रूप में विकास और जन्म होता है। बीज कोठे में बन्द पड़ा रहने पर विकसित नहीं होता, उसे खाद पानी की समुचित सुविधा उपलब्ध कराने पर ही यह सम्भव होता है कि पौधा पेड़ बने और फूलों से लदा हुआ विशालकाय शोभायमान दृष्टिगोचर हो।

मेरुदण्ड को राजमार्ग महामार्ग कहते हैं। इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा जाता है। इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं। आत्म और परमात्मा के मध्य सप्तलोकों को विराम स्थल माना गया है। लम्बी मंजिलें पूरा करने के लिए लगातार ही नहीं चला जाता बीच बीच में विराम भी लेने होते हैं। रेलगाड़ी गन्तव्य स्थान तक बीच के स्टेशनों पर रुकती कोयला, पानी लेती चलती है। काय विद्युत के इन विराम स्थलों को ही चक्र कहा गया है। चक्रों की व्याख्या दो रूपों में महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है। अभिमन्यु उसमें फँस गया था। वेधन कला की समुचित अनुदान के रूप में महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है। अभिमन्यु उसमें फंस गया था वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था। चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं। इस अलंकारिक प्रसंग को आत्म का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं भौतिक आकर्षणों की भ्रान्तियों की विकृतियों की चहारदीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है। इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है। भागवत महात्म्य में धुन्धकाली प्रेत का बाँस की सात गांठें फोड़ते हुए सातवें दिन कथा प्रभाव से देव देहधारी होने की कथा है। इसे चक्रवेधन का संकेत समझा जा सकता है।

साधना में अपनी निज की कोई विशेष शक्ति नहीं है। उसकी प्रमुखता एक ही है कि वह सोई हुई शक्ति को जागती है। जिसमें निज की क्षमता नहीं है या न्यून है उसके लिए साधारण साधना कुछ विशेष कारगर नहीं होती। सरकस के पशु शिक्षक उन्हीं को भरती करते हैं। जिनमें निजी चतुरता या सूझबूझ होती है। साधनाएँ सभी कलात्मक हैं। वे भावना की पृष्ठभूमि पर उगती और फलती फूलती है। इसलिए दृष्टिकोण का भाव संस्थान का संयम परिष्कार करना होता है। साथ ही चिन्तन और चरित्र को भी परिमार्जित करना होता है। यह प्रारम्भिक शर्त है जिसे पूरा किया जाना चाहिए।

किस साधना को कितने समय करना चाहिए? इसका सब के लिए एक जैसा निर्धारण नहीं हो सकता यह मनोभूमि के ऊपर निर्भर है। जिसके व्यक्तित्व में आत्मवादी गुणों का पहले से ही समावेश हो चुका है वह थोड़े ही समय में थोड़े ही श्रम में उत्साहवर्धक लाभ प्राप्त कर सकता है। किन्तु जिन सत्प्रवृत्तियों आधार पर यह उपार्जन किया जाता है उन्हीं में वह खर्च भी होता रहता है। गिरों को उठाने में दुखों को घटाने में डूबतों को उबारने में चढ़ते को चढ़ाने में इस शक्ति का समापन होता रहता है। तप के बदले पुण्य बढ़ता रहता है। इस प्रकार संतुलन बना रहता है और योगी यती साम्य सात्विक देवोपम जीवन जीते रहते हैं उनका दृष्टिकोण स्वर्गोपम और आचरण जीवन मुक्त जैसा रहता है। आत्म गौरव के रूप में आत्म साक्षात्कार होता है और विश्व वसुधा के कण-कण में समाये हुए परमेश्वर का दर्शन विवेक चक्षुओं से निरन्तर होता रहता है। वही वह स्थिति है जिसमें पुरुष पुरुषोत्तम नर नारायण कहलाता है।

किन्तु यदि चिन्तन और चरित्र पर आश्रित व्यक्तित्व उज्ज्वल न हो उसमें वीभत्स स्तर की निकृष्टता भरी हो तो रहस्यमयी शक्तियों के उपार्जन कर लेने पर मनुष्य मदोन्मत्त हो जाता है और ऐसे कुकृत्य करने लगता है जिससे उसकी गणना राक्षस, असुर दैत्य वर्ग होती है। धन, बल, वैभव पराक्रम आदि शक्तियों का यदि सदुपयोग न हो तो वे संचित नहीं रह सकती, कुमार्ग में चल पड़ती है। अंगूर सड़ने पर मदिरा बन सकता है। इसी प्रकार रहस्यमयी आन्तरिक शक्तियों का विकास हो तो किन्तु सत्प्रयोजनों में न लग सके तो फिर दूसरा विकल्प दुरुपयोग ही रह जाता है। अध्यात्म का योगपरक दक्षिणमार्गी। उपयोग न होगा तो फिर वह दुष्टता पर उतारू होगा। कुकर्मी ताँत्रिक अघोरी, कापालिक भी असुरता पर उतर आते हैं और मारण मोहन वशीकरण, उच्चाटन जैसे घोर कर्म करते हैं। असुरों को प्रायः आक्रमण अपहरण करते और आतंक मचाते ही देखा जाता है। वृत्तासुर हिरण्यकश्यप महिषासुर कंस रावण आदि यही करते रहे। उनके परिवार के खरदूषण कुम्भकरण मेघनाद हिरण्याक्ष, कंस, जरासंध, रक्तबीज आदि ने यही किया असुरों ने देवताओं को सताया। उनका वैभव लूटा ओर ऋषि रक्त को निचोड़ा था। वे प्रजा का मात्र त्रास ही देते रहते थे और तनिक से स्वार्थ के लिए बड़े से बड़ा अनर्थ कर गुजरते थे।

असुरों के दो वर्ग होते हैं, एक उद्धत आक्रमी आतंकवादी। दूसरे मायावी छली, प्रपंच रचने वाले और षडयंत्र गढ़ने वाले आक्रमणकारी अपने पराक्रम की डींग हाँकते हैं और मायावी अपने छल कौशल को मयाचार को बढ़ चढ़कर बखानते हैं। आक्रमणकारी बदनाम हो जाते हैं किन्तु मायावी पर्दे के पीछे बैठकर अपनी घात चलाते हैं। कई बार तो वे बाहर से सन्त और हितैषी जैसा आवरण ओढ़ते हैं। उदाहरण के लिए कालनेमि इस मायावी वर्ग का था। रावण का कुटुम्बी असुर होते हुए भी वह आक्रमण नहीं करता था, पर दूसरों की बुद्धि पर सवार होकर उन्हें ऐसे कुमार्ग पर घसीट ले जाता था जहाँ से वे उभर तो सकते नहीं थे, दलदल में फँसकर रोते कलपते प्राण त्यागते थे।

अध्यात्म शक्तियों का उपार्जन तो किया जाय पर उसको सत्प्रयोजन में न लगाकर विलास वैभव चातुर्य छल पाखण्ड में लगाया जाय तो स्थिति कालनेमि जैसी बन जाती है। उसमें आक्रमण के साथ जुड़ा हुआ प्रत्युत्तर का भय भी नहीं रहता है। छद्म की आड़ ले लेने पर प्रत्यक्ष बदनामी से भी कुछ समय तक बचाव हो जाता है। इसलिए आधुनिक असुरता कुण्डलिनी क्षेत्र में भी कालनेमि मार्को लगाकर बाजार में सस्ते भावों मिलती और टोकरे भर भर कर मिनटों में बिकती है।

असली आत्मशक्ति सम्पादन तो श्रेय मार्ग अपनाते पर ही बन पड़ता है। उसी में अपना तथा अन्य सबका भला भी है। आत्म विज्ञान का मूलभूत दर्शन यही है कि साधना का अवलम्बन लिया जाय पर प्राप्त सिद्धियों विभूतियों को परहित हेतु ही नियोजित किया जाय।

मोटेतौर पर समझा यह जाता है कि परिस्थितियाँ भावना स्थिति को प्रभावित करती है। संसार में जो घटित हो रहा है, उसी से हम प्रभावित होते हैं। अपर आत्म विज्ञान की मान्यता इससे बहुत गहराई तक चली गई है और यहाँ तक पहुँची है कि वैयक्तिक चेतना के तन्तु समीपवर्ती और दूरवर्ती परिस्थितियों को प्रभावित करते हैं। मनुष्य को अपना भाग्य विधाता कहा जाता है, पर तथ्य यह है कि वह विकसित स्थिति में ब्रह्माण्ड का सूत्र संचालक भी है इतना तो इस संदर्भ में निश्चित रूप से समझा जा सकता है कि अपने भीतरी और बाहरी क्षेत्र से सम्बन्ध रखने वाले परिकर को मन स्थिति के अनुरूप निश्चित रूप से ढाल सकते हैं विकसित स्थिति के अनुरूप निश्चित रूप में ढाल सकते हैं विकसित स्थिति में वह विश्व व्यापी गतिविधियों को भी मोड़ मरोड़ सकता है। इसी को अतीन्द्रिय क्षमता कहा गया है। यही अतिमानव या अति मानस की स्थिति है जो कि साधारणतया अविज्ञात एवं प्रसुप्त स्थिति में ही बनी रहती है। इसे जागृत कैसे किया जाय? बलिष्ठ कैसे बनाया जाय? और विभिन्न प्रयोजनों के लिए उसे काम में कैसे लाया जाय? इसी का नाम आत्मविज्ञान है। इसी को ब्रह्म विद्या कहते हैं। कुण्डलिनी साधना इसी को जीवन्त जागृत स्तर तक पहुँचाने के लिए की जाती है।


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