करुणा का अंकुर (Kahani)

January 1987

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एक तापसी वृद्धा जंगल में रहती थी। एक भिक्षु भी उधर आ निकला। वृद्धा ने उसके लिए समीप ही एक झोंपड़ी बनवा दी और खाने का प्रबंध अपने जिम्मे ले लिया। एक रात रास्ता भटकी लकड़हारी रास्ता भूल कर अंधेरे में भिक्षु की कुटिया पर जा पहुँची और और अनुग्रह की याचना करने लगी।

सन्त ने इसे प्रणय प्रस्ताव समझा ओर उसे आश्रय या भोजन देने से इनकार करते हुए भगा दिया।

प्रौढ़ा पेड़ के नीचे बैठी सुबक रही थी। वृद्धा के कानों तक आवाज पहुँची। वह निकलकर बाहर आई और उसे अपने साथ ले ली गई। आश्रय और भोजन दिया। भोर होते उसे रास्ता बता दिया।

भिक्षु की निष्ठुरता वह सुन चुकी थी। उसने अपनी बनवाई झोंपड़ी तोड़ डाली। भोजन की सहायता से इनकार कर दिया और कहा तुमने यहाँ 24 वर्ष रहकर केवल वासना जीती। करुणा का अंकुर तक न उगा सके। धिक्कार है तुम्हारे भिक्षु होने पर


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