कुण्डलिनी साधना का मर्म एवं आवश्यक मार्ग दर्शन

January 1987

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पदार्थों में से प्रत्येक का अपना-अपना प्रत्यक्ष प्रकट एवं अप्रत्यक्ष अप्रकट रूप है। सोना एक मूल्यवान धातु है। यह जमीन से मिट्टी मिली कच्चे अयस्क के रूप में निकलती है, परन्तु उसे परिशोधन के उपरान्त बाजार में महँगे मोल में खरीदा जाता है, सुन्दर आभूषण बनते हैं। पर जब उसे रासायनिक क्रियाओं द्वारा स्वर्ण भस्म के रूप में विकसित किया जाता है तो उसके गुणों में अद्भुत विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है। वह दुर्बल शरीर को बलिष्ठ एवं दीर्घायु बनाने के काम आती है। यही विशेषताएँ अन्य धातुओं में भी हैं। सामान्यतया उनके उपकरण बनते हैं पर शोधन-सूक्ष्मीकरण के उपरान्त वे रस-भस्मों के रूप में अपनी रहस्यमयी विशेषताएँ प्रकट करती हैं। रेत के परमाणुओं का सूक्ष्म अंश अणुशक्ति उत्पादन करने के काम आता है, जिससे बिजली, विकिरण, किरणें तथा आयुध बनते हैं। यह स्थूल का सूक्ष्मीकरण है।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि स्थूल की तुलना में सूक्ष्म में अगणित शक्ति होती है। मिट्टी के ढेले की तुलना में अणु-विस्फोट गजब का काम करता है। शरीर की तुलना में मनोबल की महत्ता अत्यधिक है। पानी से भाप की समर्थता कई गुनी है। आत्मा अदृश्य है तो भी वह विकसित हो महापुरुष, ऋषि, देवात्मा एवं अवतारों के रूप में प्रकट होती है।

मानवी सत्ता का सूक्ष्मीकरण भी इसी प्रकार योग और तप के माध्यम से हो सकता है। तपस्वी अपनी शरीरगत दिव्य क्षमताओं को जगाता है। भाप से रेल चलती है और बांसों के घर्षण से दावानल प्रकट होती है। तपस्या की साधनात्मक विधि-व्यवस्था से यही प्रभाव उत्पन्न होता है। आतिशी शीशे पर बिखरी हुई सूर्य किरणें जब एक बिन्दु पर एकत्रित की जाती हैं तो उतने भर से अग्नि की ऊर्जा दृश्यमान होने लगती है। तपश्चर्या का-साधना का प्रतिफल ऐसा ही होता है।

योग से मनुष्य की तुच्छता, दिव्य लोक की महानता के साथ जुड़ती है और उस गठबंधन का परिणाम होता है-लघु और महान् का एकीकरण। बिजली से जुड़ जाने पर सभी तार शक्तिशाली हो जाते हैं और अपने लिए नियोजित कार्य उस उपलब्ध शक्ति के सहारे सम्पन्न करने लगते हैं। बड़ी टंकी के साथ जुड़े हुए सभी नल तब तक पानी देते रहते हैं, जब तक टंकी भरी रहती है। स्पष्ट है कि दिव्य चेतना की टंकी कभी खाली नहीं होती है और उसके साथ जुड़ा हुआ नल तब तक पानी फेंकता है, जब तक कि कोई भारी व्यवधान बीच में आकार खड़ा न हो जाय। परब्रह्म की दिव्य चेतना को मानवी अंश चेतना जब धारण करती है तो उसे नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, तुच्छ से महान् बनने में देर नहीं लगती। कलेवर का विस्तार अपने साथ क्षमता को भी बढ़ाता चलता है। शेर की तुलना में हाथी का आकार ही नहीं, बल भी अधिक होता हैं। बच्चे की तुलना में तरुण का आकार ही बड़ा नहीं होता वरन् उसकी कार्य क्षमता भी उसी अनुपात से बढ़ जाती है। साधक की साधना उसे सिद्ध बना देती है।

साधनाएँ इसीलिए सफल नहीं होतीं क्योंकि उनमें आत्मसंयम, चरित्र का प्रखरीकरण और व्यवहार में उदार, सेवा-साधना का समन्वय नहीं होता। खाद पानी और रखवाली के बिना बोया हुआ बीज विशालकाय वृक्ष कैसे बने? यह तथ्य कुण्डलिनी साधना प्रकरण पर पूरी तरह लागू होता है।

कुण्डलिनी जागरण से तात्पर्य है-चेतना के अन्तराल में छिपी हुई दिव्य शक्तियों का जागरण प्रचंडीकरण। यह तीनों शरीरों में विभिन्न प्रयोजनों के लिये विभिन्न प्रकार से सम्पन्न हो सकता है।

उपाय-उपचारों की विदित और अनुभूत संख्या 14 पाई गई है। इन 14 विभूतियों की समुद्र मंथन से निकले 14 रत्नों के साथ तुलना की जाती है। इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है। स्थूल शरीर में मूलाधार से लेकर मेरुदंड प्रदेश से आगे बढ़ते हुए सहस्रार कमल, ब्रह्मरन्ध्र तक जा पहुँचने वाला षट्चक्र समूह इन्हें भौतिक क्षेत्र की समृद्धियों के उत्पादन और अवरोधों के निवारण में काम आने वाले सशक्त माध्यम कहा जा सकता है। इनकी सिद्धियाँ मनुष्य को सशक्त, समृद्ध और प्रचण्ड-पराक्रमी बनाती है। इस आधार पर साधक सामान्यजनों की तुलना में कहीं अधिक सशक्त हो जाता है। हमारी इन्द्रियाँ बहिर्मुखी ही नहीं रहतीं, अंतर्मुखी होकर व्यापक क्षेत्र में भी काम करने लगती हैं। जो दृश्य आँखों से नहीं देखे जा सकते, वे दिव्य दृष्टि के जगाने पर दीख पड़ते हैं। यही बात अन्य इन्द्रियों के संबंध में भी है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, विचार संप्रेषण, पदार्थ संचालन, प्राण प्रवाह, शक्तिपात, भविष्य ज्ञान जैसी स्थूल जगत से संबंधित सिद्धियाँ स्थूल शरीर के क्षेत्र की कुण्डलिनी जगाने पर उपलब्ध होती हैं। ओजस्, तेजस् और वर्चस् की बड़ी मात्रा का भी उपार्जन इस माध्यम से हो जाता है।

सूक्ष्म शरीर का कुण्डलिनी जागरण पंच कोशों के आधार पर होता है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय विज्ञानमय और आनन्दमय कोश चेतना पर चढ़ी हुई पाँच परतें हैं। उनमें पंच तत्वों का पंच प्राणों का समीकरण है। इन्हें पाँच लोक या पाँच आयाम भी कह सकते हैं। इन क्षमताओं के विकसित होने पर साधक अदृश्य जगत से जुड़ जाता है। सर्व-साधारण की जानकारी तो दृश्यमान पदार्थ जगत तक ही सीमित होती है, किन्तु सूक्ष्म शरीर की कुण्डलिनी जागने पर मनुष्य का संबंध अदृश्य जगत से बन जाता है। उसके निवासी पितरों, देवों के साथ उसका स्नेह संबंध जुड़ता और आदान-प्रदान का क्रम चल पड़ता है। वह प्रकृति के रहस्यों से अवगत होता है। भविष्य की संभावनाएँ जिस प्रकार पक रही है, उनका पूर्वाभास भी उसे मिल जाता है। इस जानकारी के आधार पर तद्नुरूप प्रबन्ध करके, अनुकूलताओं से लाभ उठाया जा सकता है और प्रतिकूलताओं को निरस्त किया जा सकता है। जनमानस में अभीष्ट आवेश भरे जा सकते हैं और लोक प्रवाह को मोड़ा-मरोड़ा जा सकता है।

कारण शरीर के तीन प्रयोग हैं, उन्हें “ग्रन्थि भेद” कहते हैं। मस्तक मध्य में ब्रह्म ग्रन्थि है, जिसे कैलाश पर्वत अथवा क्षीर सागर कहा जाता है। उसे ब्रह्माण्डीय शक्तियों के साथ आदान-प्रदान में निरत ध्रुवकेंद्र कहा जा सकता है। दूसरा हृदय देश में विष्णु चक्र है। उसे चेतना का अन्तराल कह सकते हैं। भाव संवेदनाओं का केन्द्र यही है। तुष्टि, तृप्ति और शान्ति यहीं मिलती है। अपने मानस को उच्चस्तरीय बनाने के अतिरिक्त दूसरों की समझ को भी समुचित मोड़ देना, इस विष्णु ग्रन्थि की शक्ति के सहारे ही बन पड़ता है। तीसरी ग्रन्थि है रुद्र ग्रन्थि। यह नाभि चक्र में है। शारीरिक स्वास्थ्य, प्रतिभा, प्रखरता, सशक्तता, साहसिकता, उत्पादन, अभिवर्धन जैसे अनेकों शक्ति स्रोत इस क्षेत्र में पाये जाते हैं। मूलाधार चक्र इसी गह्वर में है। कुण्डलिनी के चिर विश्राम का क्षेत्र यही है। उसे प्राण-प्रहार से ही जगाया, ऊँचा उठाया और ब्रह्मलोक तक पहुँचाया जाता है।

स्थूल शरीर के छः चक्र सूक्ष्म शरीर के पाँच कोश-कारण शरीर की तीन ग्रन्थियाँ मिलकर चौदह बनते हैं। यही चौदह भुवन हैं। इनमें से सात ऊर्ध्वलोक हैं और सात अधःलोक। सात का उन्नयन अभ्युदय के लिए प्रयोग होता है; और सत्ता का दुष्टता के दमन के लिए-संकट निवारण हेतु। मानवी सत्ता को ही समुद्र माना जा सकता है और उसे त्रिविधि कुण्डलिनी साधना द्वारा मथा जा सकता है। सही अर्थों में इसमें शरीर ही दैत्य है, और मन ही देव है। दोनों मिलकर जब तप योग की शाखा-प्रशाखाओं का अवलम्बन लेते हुए साधनारत होते हैं तो उपरोक्त 14 रत्नों को

हस्तगत करते है पौराणिक समुद्र मन्थन में इन्हीं की वर्णन विवेचन अलंकारिक रूप में किया गया है मानवी सत्ता के पंच तत्वों और प्राणों से बने हुए कलेवर को समुद्र जितना गहरा और विशाल रत्नाकर माना गया है। अभीष्ट की प्राप्ति के लाए हम कही अन्यत्र बाहरी जाने की आवश्यकता नहीं है। जो चाहिए सो भीतर ही विद्यमान है उसे बाहर क्योँ ढूंढ़ा जाय कस्तूरी हिरन की तरह अपनी नाभि में ही क्यों न तलाश लिया जाय?

संक्षेप में यही है कुण्डलिनी विज्ञान की रूप रेखा जिसका अंक के विगत पृष्ठों में परिचय विवरण विधान का संकेत दिया गया है पर इन चौदह विधानों में से किसी की भी समग्र रूपरेखा जानबूझ कर प्रस्तुत नहीं की गयी है। क्यों कि यह अणु विस्फोट जैसा प्रयोग से पूर्व यह जानना पड़ता है कि किसी स्थिति का कौन व्यक्ति किस प्रयोजन के लिए इसे प्रयुक्त करना चाह रहा है यह विदित हुए बिना साधना आरम्भ कर देना बारूद के ढेर के साथ खिलवाड़ करने के समान है गलत उपयोग से कर्ता की ऐसी हानि भी हो सकती है जिसकी क्षतिपूर्ति न हो सके। नौसिखियों और असावधानों के लिए तो ज्ञानयोग भक्तियोग कर्मयोग प्रज्ञायोग आदि सरल जीवन साधनाओं से भी काम चल सकता है। वे इतना ही कर ले तो बहुत है।

कुण्डलिनी विधान सीखने के लिए किसी को भी आतुरता नहीं अपनानी चाहिए और न उसका कोई सिरा पकड़कर पूर्णता तक पहुंचने की साध संजोनी चाहिए। इस महान प्रयोग में से जितना जिसके लिए उचित और आवश्यक है उतना उसे सिखाते रहने की हमारी जिम्मेदारी कम से कम एक शताब्दी तक बनी रहेगी उसे बताया और सिखाया जाता रहेगा। स्थूल शरीर न रहने पर भी हमारी सूक्ष्म सत्ता अपने सामयिक दायित्वों का निर्वाह भली प्रकार करती रहेगी।

किसी सत्पात्र को यह अनुभव न होने दिया जायगा कि सिखाने वाले के अभाव में हमारी आत्मिक प्रगति की उचित आवश्यकता कुण्डलिनी जागरण का विधान न मालूम होने के कारण इच्छा पूर्ति न हो सकी। जिस प्रकार दिव्य शक्तियों ने हम से 24 वर्ष महापुरश्चरण पूरा कराया और तीन वर्ष में कठोर तप के माध्यम से देश की कुण्डलिनी जगाने का विधान ही नहीं बताया वरन् साथ देकर जो आवश्यक था उसे पूरा करने का सरंजाम भी जुटाया। उसी प्रकार हम भी यह प्रयत्न करेंगे कि प्रज्ञा परिवार के परिजनों में से जो विशेष प्रयोजन के लिए विशेष आत्मबल संग्रह करने के लिए कुण्डलिनी विज्ञान का आश्रय लेना चाहे उनकी आवश्यकता को पूरी करने के लिए आवश्यक प्रयोग बिठाते एवं सरंजाम जुटाते रहे।


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