प्राणाग्नि प्रज्ज्वलन कुण्डलिनी साधना से

January 1987

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कुण्डलिनी शक्ति का जागरण एवं उत्थापन कठिन है। उससे प्रवाह का अवरोध करना पड़ता है। असंयम में मौज मस्ती लगती है और प्रसन्नता भी होती है। स्वादेन्द्रियों को जितने प्रकार के व्यंजन चखाये जाँय वह मोद मानती हैं अभ्यास से आदत भी बन जाती है कि स्वादिष्टों की विविधता भी चाहिए और अति मात्रा भी। यही बात जननेंद्रियों के बारे में भी है। कामुकों का चिन्तन आकाश पाताल चूमता रहता है और क्रिया में भी अतिवाद अपनाने की ललक छाई रहती है। व्यभिचारी की मानसिक तृप्ति नहीं होती, शरीर थक जाता है, पर मन विभिन्नता और अतिवाद की रट लगाये ही रहता है। यह बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है। मन ग्यारहवीं इन्द्रिय है। उसके तीन स्वाद है। लोभ मोह अहंकार समूची काया पर आलस्य प्रमाद छाया रहता है। सामान्य जीवन के यही प्रवाह है। पशुवत् और प्रेत पिशाच जैसी दुष्प्रवृत्तियां इसी अधोगामी दिशा में गिरती रहती हैं इन्हें बाँधने की तरह रोकना असाधारण प्रयत्न है फिर समुद्री खारे जल का शुद्ध भाग भाप की तरह उड़ाकर बादल बनाना आकाश भ्रमण के लिए जाना और भी कठिन है। कुओं का पानी अथवा गहरे स्रोतों का तेल ऊपर जमीन तक लाने के लिए शक्तिशाली उपकरणों की जरूरत पड़ती है। खींचने उठाने के लिए क्रेन जैसे साधन चाहिए। फिर उन साधनों का यथावत नियोजन संचालन रख रखाव अपने आप में एक बड़ा काम है। उसे कर गुजरने के लिए सुशिक्षित इंजीनियर चाहिए। उनकी शिक्षा ही नहीं तत्परता और तन्मयता भी काम करती है।

कुण्डलिनी का संयम जागरण उत्थापन यह तीनों ही कार्य एक से एक कठिन है। इन्द्रियसंयम मनसंयम के साथ साथ विचार संयम अर्थसंयम समयसंयम आदि को अपनाना ही इस प्रकार निभाना पड़ता है जैसे घोड़े की लगाम हाथी को अंकुश ऊँट को नकेल लगाकर मनमानी करने से रोका और इच्छित प्रयोजन के लिए उनका इच्छित उपयोग बलपूर्वक किया जाता है। झरने के ऊपर से नीचे गिरने वाली प्रवृत्ति को यदि कोई बदलना चाहता है और उस पतनोन्मुख प्रवाह को नीचे से हजारों फुट ऊँचा ले जाना चाहता है तो उसके लिए शक्तिशाली बड़े आकार के पम्प की जरूरत पड़ेगी। यह कार्य साधारण प्रयास से नहीं हो सकता।

संयम निभाने व प्राणाग्नि को प्रज्वलित कर लेने वाले साधक की विकसित आत्म चेतना देव शक्तियों के रूप में साकार होकर कार्य कर सकती है। इस संबंध में कुछ उदाहरण सुविख्यात है। महात्मा जड़भरत राजर्षि भरत के ही अवतार थे सिंधु नरेश रहुगण को उन्होंने उनकी पालकी ढोते हुए ही आत्मज्ञान प्रदान कर दिया था। एक बार उन्हें एक दस्यु सरदार ने बलि के लिए पकड़ा लिया भद्रकाली की मूर्त के सामने उन्हें बंध के लिए खड़ा किया गया। वधकर्ता पुरोहित खड्ग लेकर आया। जड़ भरत निर्विकार खड़े रहे। उनके आत्मतेज से भद्रकाली मूर्ति जागृत हो गयी। उसने वधकर्ता का खड्ग छीनकर सभी दुष्टों का संहार कर दिया। आत्मसत्ता में प्रचण्ड शक्ति असीम सामर्थ्य है। काय विद्युत जब जागती है तो आग्नेयास्त्र की तरह कार्य करती एवं प्रतिकूलताओं से जूझने की सामर्थ्य रखती है।

शिव पत्नी सती ने पिता दक्ष के यह यज्ञ में अपमान अनुभव होने पर घोषणापूर्वक योगाग्नि से अपना शरीर भस्म कर दिया था ऋषि सुतीक्ष्ण ने भी भगवान राम के सामने ही उनके दर्शन से पूर्णकाम होकर शरीर योगाग्नि में होम दिया था। राज नल की पत्नी सती दमयन्ती ने वन में शील रक्षा के लिए नेत्र दृष्टि से ही व्याध को जला दिया था यह सब सोये भाण्डागार को जगाने की फल श्रुतियाँ हैं।

प्रसुप्त को जगाने में साधारणतया भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। सोता बच्चा या मनुष्य झकझोर कर जगाया जाय तो वह उस आनन्द को छोड़कर हुए खीज अनुभव करता है और चिढ़ता खीजता है। सोते साँप को जगाना तो और भी बड़ा जोखिम मोल लेना है। परमाणु के भीतर उसकी नाभिक शक्ति सोई रहती है पर उसे छोड़ा जाय तो तोड़ा जाय तो इतना भयंकर विस्फोट होता है कि मीलों के दायरे में सर्वनाश उपस्थित हो जाता है। अणु विस्फोट की घटनाओं का जिन्हें स्मरण नहीं उन्हें नागाशाकी और हिरोशिमा की घटनाएँ स्मरण दिलाई जाती हैं, जिससे लाखों मनुष्यों का सर्वनाश हो गया था और पहाड़ पिघलकर शीशे की झील जैसा बन गये थे। स्वेच्छा पूर्वक हुई ज्वालामुखी फटने की घटनाएँ कितनी भयंकर होती हैं? इस संदर्भ में मैक्सिको कोलम्बिया आदि के विस्फोटों की चर्चा को कुछ दिन हुए हैं। हैलेना का ज्वालामुखी विस्फोट एक सप्ताह तक दिन को रात बनाये रहा था। उसकी काली धूलि आकाश के बड़े भाग पर छा गई थी। सुप्त कुण्डलिनी का जागरण ऐसा ही है। सोते कुम्भकरण के ऊपर जगाने के लिए हाथियों का झुण्ड घुमाया गया। था कुण्डलिनी प्रसंग ऐसा ही है। उसके प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहने पर ही दैनिक जीवन के सामान्य काम काज ढर्रे पर घूमते रहते हैं अभ्यस्त दिनचर्या किसी प्रकार लंगड़ी गाड़ी तक तरह लुढ़कती रहती है। जब रेल में नया शक्तिशाली इंजन जोड़ा और पूरे वेग से छोड़ा जाता है तो वह साथ में जुड़े हुए डिब्बे को घसीटता हुआ द्रुतगामी गति से दौड़ता है। कुण्डलिनी जागरण वाले साधक को भी साधना काल के आरम्भिक दिनों में ऐसे ही जोखिम का सामना करना पड़ता है। उसकी चमत्कृति साधारण मंद पवन की तरह नहीं चलती वरन् आँधी तूफान के वेग से दौड़ती है। हवा चक्रवातों और पानी के भँवरों जैसी उसकी गति होती है।

महायोग विज्ञान में ऋषि कहते हैं -

मूलाधारे आत्मशक्ति कुण्डलिनी परदेवता। शायिता भुजगाकारा सार्द्धत्रय बलयान्विता।

यावत्सा निद्रिता देहै तावज्जीवा पशुर्यथा। ज्ञानं जायते तावत् कोटियोगविधेरपि॥ तस्याँ शक्तिप्रबोधेन त्रैलोक्यं प्रति बुध्यते।

अर्थात् -आत्म शक्ति कुण्डलिनी मूलाधारचक्र में साढ़े तीन कुण्डली लगाये हुए सर्पिणी की तरह शयन करती है। जब तक वह सोती रहती है तब तक जीव पशुवत् बना रहता है। बहुत प्रयत्न करने पर भी तब तक उसे ज्ञान नहीं हो पाता। जिसकी आधार शक्ति सो रही है उसका सारा संसार ही सो रहा होता है। जब वह जागती है तो उसका भाग्य और संसार ही जाग पड़ता है।

प्राणाग्नि का प्रज्ज्वलन उद्दीपन अंत में अपरिमित उखाड़ पछाड़ करता है। जब आँधी अंधड़ के साथ चक्रवात आते हैं तो वे अपनी शक्ति सामर्थ्य से साधारण पेड़ों को उखाड़ते झोंपड़ों को उड़ाते चलते हैं। सूखे पत्ते और धूलिकण तक आसमान चूमने लगते हैं। नदी के भंवर नावों को डुबो देते है। और समुद्र के भँवर जहाजों तक की घसीट कर पाताल पहुँचा देते हैं। विशिष्ट गतिशीलता ऐसे ही अदृश्य उत्पन्न करती है। जेनरेटर फटते हैं तो समीपवर्ती इलाके की धज्जियाँ उड़ा देते हैं। आकाश से तड़ककर गिरने वाली बिजली भी जहाँ गिरती है। उसको जलाकर रख देती है।

कुण्डलिनी जागरण में भी ऐसी ही विपत्ति का सामना करना पड़ा है। अस्तु उसमें साहसिकता ही नहीं सतर्कता भी ऊँचे दर्ज की बरतनी पड़ती है। इसमें आलस्य प्रमाद काम नहीं देता। सरकस में पतली रस्सी पर चलकर दिखाने वाले नट जिस प्रकार अपना संतुलन सही रीति से सम्भाले रहते हैं उसी प्रकार कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया भी साधक से उच्चस्तरीय स्तर एवं सतर्कता की आशा करती है। असावधानी उपेक्षा बरतने पर अनिष्ट की आशंका बनी रहती है।

मक्खी मच्छर दिन भर में ढेरों अण्डे देते रहते हैं। मछलियाँ भी एक ही समय में सैकड़ों हजारों अण्डे दे गुजरती है, उन्हें उनके पालन पोषण की चिन्ता नहीं करनी पड़ती। पर मनुष्य के भ्रूणाण्ड को जननी गर्भावस्था में भी सम्भालती और प्रसवकाल में भी मरणतुल्य कष्ट सहती है और फिर कई वर्ष तक उसके आहार की स्वच्छता की ऋतु फिर कई वर्ष तक उसके आहार की स्वच्छता की ऋतु प्रभाव से बचाने की व्यवस्था में लगी रहती है। अन्य क्रिया कलाप तो मक्खी मच्छर मछली द्वारा दिये जाने वाले अण्डों के समान हैं। पर कुण्डलिनी जागरण तो मनुष्य शिशु का प्रजनन और पोषण करने के समान है। उसमें सरलता नहीं कठिनता भी है और जिम्मेदार भी। यह सब भली भाँति सतर्कता चाहते हैं। भूल होने पर अनिष्ट का भय दिखाते हैं।

मादा बिच्छू के प्रजनन का तरीका विचित्र है। उसके पेट में कई अण्डे एक साथ पलते और बढ़ते हैं। जब वे कुछ बड़े हो जाते हैं, तो पेट से बाहर निकलना चाहते हैं। जननेन्द्रिय का छिद्र इतना छोटा होता है कि उसमें से उनका निकलना संभव नहीं होता। उधर बच्चों के पेट में बढ़ते जाने पर उन्हें भूख भी सताती है। वे माता का पेट खाना आरम्भ कर देते हैं और उसमें रहने वाले सारे माँस को खाकर बाहर निकलते हैं। इतने में मादा बिच्छू अपने पेट के खोखले हो जाते और फट जाने पर प्राण गवाँ बैठती है।

कुण्डलिनी के साथ जुड़ी हुई सिद्धियों का प्रजनन ठीक इसी प्रकार का है जब वह जागती है तो शास्त्रकारों के अनुसार साधक का रक्त पी जाती है और माँस खा जाती है। वह अस्थिपंजरवत् रह जाता है। यह एक प्रकार का काया कल्प है, जिसमें पुराना कचरा छंटा जाता है और नये अंकुर उत्पन्न होते हैं। चतुर माली इसी रीति नीति को अपनाते हैं। वे फूल पौधों को ऊपर से अलग बगल में छाँट देते हैं इसके बाद अनेक जगहों से नई कोपलें फूटती हैं। और उन सभी पर फूलों के गुच्छे लटकते हैं। पौधे की गोलाई और साधक को स्वयं ही अपने संचित कुसंस्कारों, कषाय कल्मषों एवं अनगढ़ आदतों की छंटाई स्वयं ही करनी पड़ती है। कटते छँटते समय लगता है कि पौधा भी छोटा हो गया, उसका कलेवर घट गया। पर यह स्थिति देर तक नहीं रहती। नये कोंपल और नये फूल आना आरम्भ करते हैं। पतझड़ की श्रीहीनता चली जाती है और बसन्त में पुष्प पल्लवों से भरी हुई शोभा सम्पदा प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगती है।

कुण्डलिनी जागरण एक प्रकार की अग्नि परीक्षा है। तपाने पर सोने के साथ जो मिलावट होती है वह जलती है। खरे सोने वाले भाग को कोई आँच नहीं आती, वरन् उसकी क्रान्ति और भी अधिक निखर जाती है। अप्रामाणिकता का सन्देह टूट जाता है और खरे सोने का मूल्याँकन हर ग्राहक करता है। जागृत कुण्डलिनी वाला साधक शक्तिशाली बनता है। उसकी काया का ढाँचा तो पूर्ववत् रहता है किन्तु उस पिंजर के भीतर ऐसे विद्युत जागृत होती है जो अन्त जागरण और बाह्य वातावरण के परिवर्तन के उभयपक्षीय प्रयोजन साधती है।

अग्नि प्रज्वलित होने पर कई काम सधते हैं। उससे कीचड़, सीलन, सड़न सुखाई जा सकती है। भोजन पकाया जा सकता है। कूड़ा जलाया जा सकता है। आवे में लगाये गये मिट्टी के बर्तनों को तपाया जा सकता है। धातु शोध का काम हो सकता है। ऐसे ऐसे अनेक काम उससे हो सकते हैं कुण्डलिनी की अग्नि अन्तराल में जगाने से ठंडक लगने की कठिनाई तत्काल दूर होती है। अग्नि से भूख बुझाने वाली रसोई पकती है। गीले और बदबू वाले कपड़े सूखकर निर्मल बनते हैं। यह निजी लाभ हुए। बाहर के क्षेत्र में अनेकों व्यावसायिक प्रयोजन पूरे होते हैं। लुहार हलवाई सुनार कुम्हार अपनी-अपनी भट्टियाँ जलाते हैं और उपयोगी वस्तुएँ विनिर्मित करते हैं। कुण्डलिनी शक्ति से भौतिक क्षेत्र की अनेक कठिनाइयों का निराकरण और उपयोगी सुविधाओं का संवर्धन होता चला जाता है। अग्नि का देव पूजन में भी प्रयोग होता है। दैवी शक्तियों का सान्निध्य प्राप्त करके संपर्क बढ़ाने में भी उसका उपयोग है। इतना ही नहीं, कई बार तो गैस वैल्डिंग के सहारे दो धातु खण्डों को मजबूती के साथ जोड़ भी दिया जाता है। जहाँ यह जोड़ है वहाँ से टूटने का खतरा नहीं रहता, चाहे अन्यत्र से भले ही झुक या टूट जाय। दैवी उपासनाओं में साधारणतया भावनात्मक ज्वार भाटे आते रहते हैं। कभी भक्ति भावना का आवेश ऊँचे दर्जे तक की उष्णता ले आता है। कभी वह दूध के झाग या पानी के बुलबुले जैसा नीचे बैठ भी जाता है। किन्तु यदि उसमें कुण्डलिनी शक्ति का समावेश हुआ तो स्थिरता यथावत् बनी रहती है।

संचित कुसंस्कार भी उभरे रहते हैं। दूब गर्मी के दिनों में सूख जाती है और वर्षा में फिर हरी भरी हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य के कुसंस्कार भी परिस्थितिवश सूख जाने पर भी सजीव हो उठते हैं। विश्वामित्र कठोर तपस्वी व ऋषि थे पर मेनका का आग्रह वे न टाल सके। उन्होंने गृहस्थी बनायी और सन्तानोत्पादन किया। किन्तु जिनके संस्कार जड़ मूल से ही जल जाँय उनके सामने ऐसी विपत्ति आने की कोई संभावना नहीं रहती। शुकदेव की स्थिति अपने पिता वेद व्यास से सर्वथा भिन्न थी। वेदव्यास ने आग्रह मानकर अपनी भावजों से सन्तानोत्पादन की स्वीकृति दे दी पर शुकदेव जन्मते ही वन में तप करने को चले गये। पिता समेत सभी इसके विरुद्ध थे और उन्हें रोकने मनाने का प्रयत्न कर रहे थे। पर उनने किसी का भी कहना न माना और अपने व्रत पर दृढ़ रहे। उनकी परीक्षा के लिए इन्द्र ने रम्भा अप्सरा को भेजा, पर उनने तनिक से शब्दों में उसे निरुत्तर करके वापस भेज दिया। इसे कहते हैं कुसंस्कारों का जल जाना। पेड़ का तना काट दिया जाय और जड़ें हरी बनी रहे तो जड़ों में से अंकुर फूटने लगते हैं। किन्तु यदि जड़ को खोदकर फेंक दिया जाय या जला दिया जाय तो उसके फिर को खोदकर फेंक दिया जाय या जल दिया जाय तो उसके फिर से उगने की संभावना नहीं रहती। कुण्डलिनी शक्ति संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण मात्र तीनों ही प्रकार के कर्मों को जलाकर भस्मात कर देती है। इसमें तपा या पका हुआ साधक पक्की ईंट जैसा मजबूत हो जाता है।

आयुर्वेद के ज्ञाता रस भस्में बनाते हैं। उन्हें शतपुटी सहस्रपुटी, गजपुटी अग्नि संस्कारों से बताया जाता है। उन्हें संजीवनी की उपमा दी जाती है। यह अग्नि संस्कार ही हैं। कुण्डलिनी को योगाग्नि कहा गया है। यह एक प्रकार से प्राणाग्नि प्रज्ज्वलन की यजन प्रक्रिया है। उसमें पकाया हुआ साधक ऐसे ही बन जाता है जैसे सामान्य धातुओं से रस, भस्म बनकर संजीवन मूरि का काम देती है। कुण्डलिनी की अग्नि में तपा हुआ व्यक्ति भी इसी प्रकार असामान्य हो जाता है और उसकी क्षमताएँ असाधारण रूप से विकसित होती हुई देखी जा सकती है।

भाप बिखरी हुई रहे तो उसका कोई महत्व नहीं, ऐसे ही हवा में उड़ जाती है। किन्तु यदि उसे एक घेरे में बन्द करके किसी स्थान विशेष तक सीमित रखा जाय तो उसकी शक्ति रेलगाड़ी के इंजन दौड़ने लगते हैं। प्रेशर कुकर मिनटों में खाना पकाने लगते हैं। इसी प्रकार समस्त शरीर में सोई और बिखरी हुई ऊर्जा जब कुण्डलिनी जागरण प्रयोगों द्वारा एकत्रित कर ली जाती है तो आत्मिक ऋद्धियाँ और भौतिक सिद्धियाँ अनायास ही सशक्त हो उठती हैं और उनके द्वारा अनेकों उपयोगी प्रयोजन सिद्ध किये जा सकते हैं।

मनुष्य शरीर में सशक्त विद्युत भंडार भरा पड़ा है पर वह सब है बिखरी हुई स्थिति में। इसलिए उसका कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं होती। पर जब उसे कुण्डलिनी जागरण से सारे शरीर में से समेटकर मूलाधार चक्र में केंद्रित कर लिया जाता है तो उसका परिणाम भी सुविस्तृत ऊर्जा के एकीकरण के रूप में होता है और इस केन्द्रीभूत विद्युत का ऐसा उपयोग किया जा सकता है जिसका प्रतिफल आश्चर्यचकित करने वाला हो।


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