कुण्डलिनी सविता की सूक्ष्म शक्ति है, जो सर्वव्यापक होते हुए भी प्रकट वहीं होती है, जहाँ उसका अनुष्ठान आह्वान किया जाता है। सविता रूपी महाशक्ति का एक स्थूल एवं सामान्य उपयोग हम गर्मी और रोशनी के रूप में करते हैं, असामान्य उपयोग जीवन निर्माण के रूप में है। ब्रह्माण्डव्यापी इस सविता शक्ति का बीज तत्व मानवी काय-कलेवर में भी विद्यमान है। सप्तचक्र, सप्तधातु, सप्तजिव्ह, सप्तगंग, सप्तभुवन, सप्ताश्व, सप्तशक्ति प्रवाह की तरह इन्हें सूर्य के सात वर्ण सात अश्व समझा जा सकता है। इन्हीं की सहायता से सृष्टि का उत्पादन, अभिवर्धन परिवर्तन का क्रम चलता रहा है।
प्रचलित जानकारी के अनुसार साधना उपादानों के माध्यम से व्यक्ति विशेष की ही कुण्डलिनी जागृत होती है और वह अपने मनोबल, प्राणबल के सहारे कुछ ऐसे काम कर पाता है जो शरीरबल या शास्त्र उपकरणों के सहारे सरलतापूर्वक कर नहीं पाता। मानवी गाया में सन्निहित ऐसे अगणित बीज सूत्र है जो विकसित हो सकने की स्थिति में मनुष्य को असाधारण बना देते हैं। उसकी गणना सिद्धपुरुष, महामानव, तेजपुँज एवं शाप-वरदान के अधिष्ठाता के रूप में की जाने लगती है। वह ऐसे पराक्रम करने लगता है, जिनकी आशा किन्हीं देव दानवों से ही की जाती है। सृजन और विघटन के दोनों ही क्षेत्रों में वह ऐसा कुछ करने लगता है, जिसे अद्भुत, आश्चर्यजनक अलौकिक कहा जान लगे।
यह व्यक्तिगत सफलता की बात हुई। आमतौर से व्यक्ति की स्वार्थपरता ही प्रधान होती है। वह अपने ही वैभव, विलास, पराक्रम एवं यश-सम्मान की बात सोचना है। स्वर्ग-मुक्ति भी इसी क्षेत्र में आते हैं। शाप-वरदान देकर भी आत्म तुष्टि ही की जाती है। जिन्हें डराया या सम्पन्न किया जाता है वे भी बदले में प्रयोक्ता को प्रतिफल उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार प्रचलित प्रयोग में कुण्डलिनी जागरण भी व्यक्ति का निजी उत्कर्ष-अभ्युदय ही कहा जा सकता है।
समन्वित कुण्डलिनी जागरण आत्मिकी का एक उच्चस्तरीय प्रयोग है। इसमें साधक का “स्व” सीमित न होकर असीम बन जाता है। वह जो सोचता है, जो करता है, उसमें विश्व व्यवस्था को समुन्नत श्रेष्ठ बनाना ही लक्ष्य होता है। जिसने “आत्मवत्-सर्व भूतेषु” की-”वसुधैव कुटुम्बकम्” की धारणा परिपक्व कर ली वह अपनी कामनाओं व चेष्टाओं को विश्व कल्याण के निमित्त ही केन्द्रित कर देता है। उसका अपना कुछ रहता ही नहीं। जिसने द्वैत को अद्वैत में विसर्जित कर दिया-तुच्छ को महान में विलीन कर दिया, कामना को भावना बना लिया; उसका चिन्तन और कर्तृत्व विराट के लिए ही हो सकता है। उसकी अभिरुचि विश्व वाटिका को फला-फूला देखने की ही ओर केन्द्रित हो जाती हैं
देवर्षि नारद जब भी विष्णु भगवान के पास जाते थे तब एक ही प्रश्न करते थे कि विश्व की अस्त-व्यस्त व्यवस्था में सुधार कैसे हो? ऋषियों की आकाँक्षा “काम ये दुःख तप्तानाँ प्राणिनाँ आर्त्तनाशनम्” में केन्द्रीभूत रहती रही है। उदारचेताओं का योग-तप इसी प्रयोजन के निमित्त होता रहा है। क्षुद्रता तो नितान्त अर्वाचीन है। पिछले अन्धकार युग में ही मनुष्य स्वार्थपरता में आबद्ध हुआ है। आत्मिकी साधनाएँ और उपलब्धियाँ इन्हीं दुर्दिनों में व्यक्ति विशेष की निजी कामनाओं की पूर्ति में नियोजित होकर रहने लगी। आज सिद्ध पुरुषों के क्षेत्र में मनोकामनाओं की पूर्ति ही संकीर्ण स्वार्थपरता के रूप में कार्यान्वित होती हुई देखी जाती हैं। पर यह नहीं सोचना चाहिए कि यही सब कुछ है। परमार्थ और लोक मंगल भी अपवाद रूप में अभी भी जीवित हैं और वे अपने सनातन अस्तित्व का परिचय अभी भी देते रहते हैं।
विगत तीन वर्षों में शान्तिकुँज में सामयिक परिस्थितियों को देखते हुए जो विशिष्ट साधना चली है, उसे विश्व का अथवा राष्ट्र का कुण्डलिनी जागरण कह सकते हैं। अग्नि को तेजस् उसके निकट क्षेत्र में अधिक होता है। उसके उपरान्त जैसे-जैसे दूरी बढ़ती है वैसे ही उसकी ऊष्मा कम होती जाती है। इसी प्रकार हिमालय की पुरातन ऋषि-ऊर्जा का पुनर्जागरण हरिद्वार के सप्तधारा क्षेत्र में नियोजित हुआ है। उसका प्रभाव राष्ट्र में समीपता की दृष्टि से अधिक और जल्दी दृष्टिगोचर होगा। दूरी बढ़ते जाने से विश्व के अन्य क्षेत्रों में उसका प्रभाव क्रमश परिलक्षित होता जाएगा। अरुणोदय का प्रकाश सर्वप्रथम पानी में दृष्टिगोचर होता है। उसकी झलक आरम्भ में पर्वतों की चोटियों और वृक्षों की ऊपर टहनी-फुनगियों पर दिखाई पड़ने लगती है। उसके बाद वह प्रकाश क्रमशः अधिक व्यापक होता जाता है। समूचे आकाश में फैलता है और पर्वत-शिखरों से नीचे उतर कर सारी जमीन पर फैल जाता है। ठीक उसी प्रकार महाप्रज्ञा की जो इन तीन वर्षों में कुण्डलिनी जागृत हुई है, उसकी ऊर्जा का उदयन प्रथम इस देश से होगा। पीछे क्रमशः वह समस्त विश्व में फैलता जाएगा। उसके प्रभाव से होता हुआ परिवर्तन हुआ था। इस बार भी वैसा ही होने जा रहा है। गंगा के तलहट की सफाई सरकार द्वारा इन दिनों बड़ी राशि खर्च करके कराई जा रही है। गोवर्धन की मानसी गंगा की तली में जमी हुई कीचड़ को भी इन्हीं दिनों पूरी तरह निकालकर उसमें नया पानी भरने का प्रावधान बना है। ठीक इसी प्रकार विश्व वातावरण में जो विविध प्रकार की अवाँछनीयताएँ घुस पड़ी हैं, अनेक परिमार्जन-परिशोधन किये जाने का ठीक यही समय है। प्रस्तुत कुण्डलिनी जागरण का यही प्रयोजन हैं कि व्यक्ति को नहीं, विश्व को आदर्शवादिता की पृष्ठभूमि पर सशक्त बनाया जाय। अनैतिकताओं, मूढ़मान्यताओं, अन्ध परम्पराओं, अवाँछनीयताओं से उसे मुक्त किया जाय।
परिवर्तन किस क्रम से होगा? परिवर्तन किस क्रम से होगा इस संदर्भ में यह समझ कर चलना चाहिए कि सर्व प्रथम जो जमा हुआ है, जड़ समाये हुए है, उसे उखाड़ना पड़ेगा। भले ही इसमें राहत के स्थान पर असुविधाएँ ही क्यों न सामने आयें?
नवजात शिशु को गोदी में खिलाने से पूर्व प्रसव पीड़ा सहनी पड़ती है और खून खच्चर हाता है। नाली में जमा गन्दगी साफ करते समय उस सारे क्षेत्र में दुर्गन्ध फैलती है, फोड़े को अच्छा करने से पूर्व उसका ऑपरेशन होता है और जमा हुआ विषैला द्रव्य बाहर निकालना पड़ता है। होम्योपैथी की औषधियों के बारे में कहा जाता है कि वे पहले उभार लाती है अर्थात् जो विकृतियाँ जमी हुई थीं, उन्हें भीतर से बाहर लाती हैं इसके बाद रोग का अच्छा होने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। इमारत खड़ी करने से पूर्व नींद खोदनी पड़ती है। कपड़े को रंगने से पूर्व उसे पीट-पीट कर धोना पड़ता है। यही प्रक्रिया कुण्डलिनी ऊर्जा के देशव्यापी-विश्वव्यापी बनने से पूर्व आरम्भिक दिनों में दृष्टिगोचर होगी। जो विकार, विद्वेष, प्रपंच, पाखण्ड, अनाचार, कुविचार मुद्दतों से जड़ जमाए बैठे हैं, उन्हें उखाड़े बिना नवीन स्थापनाओं को सिलसिला चल नहीं सकेगा, उपक्रम बन नहीं सकेगा। इसलिए इन आरम्भिक दिनों में यदि तोड़-फोड़ हो तो ऐसा ही समझना चाहिए जैसे कुम्हार मिट्टी को पानी से भिगोता, डंडे से कूटता और पैरों से रौंदता है। इसके बाद चाक पर बर्तन बनाने के उपरान्त उन्हें आवे में पकाता है। नवयुग के निर्माण में भी इसी प्रकार की प्रक्रिया को परिवर्तन की विधि व्यवस्था द्वारा अपनाया जा रहा है। इन दिनों जहाँ-तहाँ उपद्रव हो रहे हैं, तोड़-फोड़ चल रही हैं, तो भी किसी को निराश होने की आवश्यकता नहीं है।
वैद्य बहुमूल्य रसायन बनाते हैं तो औषधियों की पिसाई, घुटाई करने के उपरान्त रसभस्मों के अग्नि संस्कार भी करते हैं। अच्छी खासी औषधियों की दुर्गति बनाने जैसा ही यह क्रिया-कलाप दीखता है, पर इनका परिणाम अन्ततः अच्छा ही होता है। उज्ज्वल भविष्य की संभावना का यह प्रथम चरण है। वृक्ष बनने से पूर्व बीज को गलना-सड़ना पड़ता है, उसके बाद वह पौधा बनता और वृक्ष के रूप में फलता-फूलता हैं। वर्तमान विश्व व्यवस्था को भी पुरातन अनुपयुक्त ढाँचे में से निकालकर इस प्रकार ढालना पड़ेगा जिसमें नया कायाकल्प देखकर मानवी गरिमा का-विश्व की सुसंस्कृत समृद्धि का प्रत्यक्ष दर्शन हो सके।
वर्षा के दिनों में आरम्भ में सर्वत्र कीचड़ होती है। हवा-पानी से झोंपड़े उड़ने और मकान चूने लगते हैं। किन्तु कुछ ही दिनों में सूखे तालाब भर जाते हैं। हरे-भरे घास–पात से ऊसर-बंजर और फसल से खेत लहलहाने लगते हैं। वह समय इक्कीसवीं सदी का होगा, जिसमें सृजन का, अभ्युदय का, सभ्यता का विकास तेजी से होता दृष्टि गोचर होगा। अभी बीसवीं सदी के शेष तेरह वर्ष ऐसी ही उखाड़ पछाड़ से भरे होंगे। वर्षा के दिनों में भी खेतों की मेंड़ें टूटती हैं और नाले-नदियोँ में भयंकर बाढ़ आती है। समझना चाहिए कि वर्तमान तेरह वर्ष ऐसे हैं, जिनमें घटाएँ घुमड़ती, बिजली कड़कती और अनिष्ट की संभावना उतरती दीख पड़ेगी। पर अन्ततः यह तथ्य सभी के सामने आता है कि वर्षा की घटाटोप विभीषिका सभी प्राणियों के लिए सुखद परिणाम साथ लाई थी। इन दिनों की उथल-पुथल के पीछे निकट भविष्य में सुखद संभावनाओं का आगमन आँकना चाहिए।
सांसारिक प्रचलन में मनुष्य कर्म करता है। उसकी प्रतिक्रिया एवं परिणति सामने आती है। किन्तु दैवी विधान इससे भिन्न है। उसमें प्रथम वातावरण बनता है। उससे व्यक्ति, प्राणी एवं पदार्थ प्रभावित होते हैं। ऋतु चक्र ऐसा ही है। सर्दी, गर्मी, वर्षा अपने-अपने समय पर वातावरण विनिर्मित करती हैं। पतझड़ और बसन्त का प्रभाव सहज ही देखा जा सकता हैं। युग परिवर्तन को भी ऋतु परिवर्तन के समतुल्य दैवी कर्त्तव्य समझा जा सकता है। उसमें अदृश्य वातावरण की प्रधान भूमिका रहती है। उससे जड़ चेतन सभी प्रभावित होते हैं।
विश्व की-राष्ट्र की कुण्डलिनी जागृत होने का प्रभाव इस रूप में देखा जा सकेगा कि उससे जड़ पदार्थ, जीवधारी, मनुष्य एवं परिस्थितियों के प्रवाह प्रभावित होंगे। मृतिका की उर्वरता बढ़ेगी, खनिजों के भंडार तथा उत्खनन का अनुपात बढ़ जाएगा। धातुएँ मनुष्य की आवश्यकताओं से अधिक ही उत्पन्न होंगी। खनिज तेलों की कमी न पड़ेगी। रसायनें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होंगी। वृक्ष-वनस्पति उगाने के लिए मनुष्य को अधिक प्रयास नहीं करना पड़ेगा। वे प्रकृति की हलचलों से ही उपजते और बढ़ते रहेंगे। जलाशयों में कमी न पड़ेगी। वनौषधियाँ फिर प्राचीन काल की तरह इतनी गुणकारक होंगी कि चिकित्सा के लिए बहुमूल्य उपचार न ढूँढ़ने पड़ेंगे। उपयोगी प्राणी बढ़ेंगे और दीर्घ काल तक जीवित रहेंगे। हानिकारकों की वंश वृद्धि रुक जायगी और वे जहाँ-तहाँ ही अपना अस्तित्व बचाते हुए दीख पड़ेंगे। जलवायु में पोषक तत्व बढ़ेंगे और वे प्रदूषण को परास्त कर देंगे। मलीनता घटेगी और शुद्धता अनायास ही बढ़ेगी। प्रकृति प्रकोपों के समाचार यदा-कदा ही सुनने को मिलेंगे। बाढ़, सूखा, अकाल, महामारी, भूकम्प, ज्वालामुखी-विस्फोट, ओलावृष्टि, टिट्टी इत्यादि हानिकारक उपद्रव प्रकृति के अनुकूलन से सहज ही समाप्त होते चले जायेंगे।
मनुष्य की आकृति तो वैसी ही रहेगी जैसी अब है। पर अगली शताब्दी में उसकी प्रकृति असाधारण रूप से बदल जायगी। दुर्व्यसन हर किसी को अरुचिकर लगेंगे और न उनमें जनसाधारण की प्रीति रहेगी, न प्रतीति। चोरी, ठगी, निष्ठुरता, क्रूरता, पाखण्ड, प्रपंच अपने लिए न अनुकूलता देख पायेंगे, न अवसर प्राप्त करेंगे। अधिकाँश के जब गुण, कर्म, स्वभाव में सज्जनता भरी होगी तो दुष्ट-दुर्जनों की करतूतें न तो बन पड़ेंगी और न सफल होंगी। मक्खी-मच्छर सड़न कीचड़ में पनपते हैं। अनाचार भी तभी फूलते फलते हैं, जब उन्हें रोका-टोका नहीं जाता। जब पग-पग पर उन्हें विरोध, प्रतिरोध, दमन, निन्दा, भर्त्सना और असहयोग का सामना करना पड़ेगा तो उनकी दाल गलने ही कैसे पाएगी? जब प्रचलन सज्जनता का होगा तो दुष्टता को अपनी घात लगाने के लिए न तो अवसर मिलेगा, न साहस बन पड़ेगा।
लोग आत्म विश्वासी, स्वावलम्बी, और पुरुषार्थ पारायण होंगे तो दरिद्रता, अभावग्रस्तता के लिए कोई कारण ही शेष न रहेगा। मनुष्य की श्रमशीलता और बुद्धिमत्ता यदि काम करे तो उचित आवश्यकताओं की पूर्ति में कमी क्यों पड़ेगी? उदारता जीवन हो तो दुखों को बाँट लेने और सुखों को बाँट देने की परम्परा ही चल पड़ेगी। तब न किसी को क्रोध का आवेश ही जकड़ेगा, न प्रतिशोध के लिए हाथ उठेगा।
व्यक्तिगत स्वार्थपरता और निष्ठुरता ही सामूहिक रूप से विकसित होकर साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, शोषण उत्पीड़न, अपहरण आदि के घृणित कृत्यों में विकसित होती है। युद्ध उसी के कारण छिड़ते और असंख्यों के प्राण हरते हैं। वस्तुतः अहमन्यता ही विग्रह खड़े करती है। लड़ाई में दोनों ही पक्ष हारते हैं और जर्जर होकर इस स्थिति में पहुँच जाते हैं कि कठिनाई से ही अपना अस्तित्व बनायेर रखने में समर्थ हो सकें। युद्ध का उन्माद जब तक चढ़ा रहता है तब तक प्रतीत होता है कि अपनी स्थिति ही सर्वजयी है। किन्तु जब उन्माद उतरता है तो प्रतीत होने लगता है कि यह आत्मघात का ही एक तरीका है। विवेक का उदय होते ही यह समझ भी आ जाती है कि मतभेदों को विचार विनिमय से अथवा किसी न्यायनिष्ठ को पंच बनाकर उपयुक्त फैसले पर पहुँचा जा सकता है। ऐसे फैसलों में भले ही किसी को घाटा दिखाई पड़े, पर वह लड़ाई की तुलना में लाभदायक ही रहता है। यह समझ जब जनसाधारण में उपजेगी तो न छोटी लड़ाइयाँ होगी और न महायुद्ध रचे जायेंगे।
मानवी श्रमशीलता और बुद्धिमत्ता में इतनी सामर्थ्य है कि यदि उसे सृजन प्रयोजनों में लगाया जा सके तो उसके आधार पर इतने सुविधा साधन विनिर्मित किए जा सकते हैं, जिनका सदुपयोग करके मनुष्य देवताओं जैसी प्रसन्नता, सुसंस्कारिता करके मनुष्य देवताओं जैसी प्रसन्नता, सुसंस्कारिता एवं सर्वांग सुन्दरता प्राप्त कर सके। सन्मार्गगामी व्यक्तियों से भरी-पूरी इस धरित्री को ही स्वर्ग से बढ़कर समृद्ध एवं सुसम्पन्न देखा जा सकता है।
अगले दिनों ऐसा ही वातावरण बनेगा। इसे बनाने की अदृश्य भूमिका उस साधना द्वारा सम्पन्न होने जा रही है जिसे विश्व कुण्डलिनी जागरण नाम दिया गया है और जिसे विगत तीन वर्षों में कठिन तपश्चर्या के माध्यम से पूरा किया गया है।
परिवर्तित समय सुख संतोष से भरी-पूरी परिस्थितियों में विगत रामराज्य की तरह चिरकाल तक बना रहेगा। उसे “सतयुग की वापसी” नाम दिया जाय तो यह उचित ही होगा।